IndianLawNotes.com

पुलिस की लापरवाही पर कड़ा रुख: आठ माह की देरी से FIR दर्ज करने पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का सख्त आदेश

पुलिस की लापरवाही पर कड़ा रुख: आठ माह की देरी से FIR दर्ज करने पर पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का सख्त आदेश


भूमिका (Introduction)

कानूनी व्यवस्था में “समय पर जांच और FIR का पंजीकरण” न्याय की पहली सीढ़ी मानी जाती है। जब किसी व्यक्ति की शिकायत दर्ज होने के बाद पुलिस अधिकारी जानबूझकर या लापरवाहीवश प्राथमिकी (FIR) दर्ज करने में देरी करते हैं, तो यह न केवल पीड़ित के मौलिक अधिकारों का हनन है, बल्कि आपराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक मामले में महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए पुलिस अधिकारियों की देरी को गंभीर अनुशासनहीनता और संवैधानिक दायित्व का उल्लंघन माना।


मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)

याचिकाकर्ता ने एक गंभीर संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) के संबंध में पुलिस में शिकायत दी थी। शिकायत में आर्थिक अपराध और धोखाधड़ी जैसे आरोप लगाए गए थे। परंतु, पुलिस ने प्रारंभिक जांच (Preliminary Investigation) के नाम पर लगभग आठ महीनों तक FIR दर्ज नहीं की। इस अत्यधिक देरी ने न्याय प्राप्ति की प्रक्रिया को बाधित किया और शिकायतकर्ता को अनुचित मानसिक और सामाजिक कष्ट पहुंचाया।

न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न था कि —
क्या पुलिस प्रारंभिक जांच के नाम पर FIR दर्ज करने में इतनी लंबी देरी कर सकती है?
और यदि हाँ, तो क्या यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार) के विपरीत नहीं है?


मुख्य कानूनी प्रश्न (Key Legal Issues)

  1. क्या पुलिस अधिकारी संज्ञेय अपराध की जानकारी मिलने के बाद FIR दर्ज करने में देरी कर सकते हैं?
  2. क्या प्रारंभिक जांच (Preliminary Inquiry) के नाम पर FIR दर्ज करने में लंबी देरी न्यायसंगत है?
  3. क्या ऐसे पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध आपराधिक या विभागीय कार्रवाई की जा सकती है जिन्होंने शिकायत को लंबित रखा?

न्यायालय का अवलोकन (Court’s Observation)

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि जब किसी शिकायत में संज्ञेय अपराध का संकेत हो, तब पुलिस को तुरंत FIR दर्ज करने की बाध्यता है। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय Lalita Kumari v. Government of Uttar Pradesh (2014) 2 SCC 1 का उल्लेख करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि –

“यदि किसी शिकायत से संज्ञेय अपराध बनता है, तो पुलिस को FIR दर्ज करना अनिवार्य है। प्रारंभिक जांच केवल विशेष परिस्थितियों में की जा सकती है और वह भी सीमित समय में।”

न्यायालय ने पाया कि पुलिस अधिकारियों ने शिकायत प्राप्त होने के आठ महीनों बाद FIR दर्ज की, जो पूरी तरह से अस्वीकार्य है। इस अवधि में शिकायतकर्ता बार-बार पुलिस अधिकारियों से संपर्क करता रहा, परंतु उन्हें केवल यह कहा गया कि “जांच जारी है।”


न्यायालय की कठोर टिप्पणी (Court’s Stern Remarks)

न्यायालय ने कहा कि यह मामला “प्रशासनिक निष्क्रियता” का उदाहरण है। पुलिस अधिकारियों ने संविधान द्वारा प्रदत्त अपने कर्तव्यों की खुली अवहेलना की है। अदालत ने कहा:

“जब कानून FIR दर्ज करने का स्पष्ट आदेश देता है, तब किसी भी पुलिस अधिकारी को यह अधिकार नहीं है कि वह शिकायत को महीनों तक लंबित रखे। ऐसी देरी न केवल पीड़ित के अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि न्याय की अवधारणा का भी अपमान है।”


अदालत के निर्देश (Court Directions)

  1. न्यायालय ने सभी संबंधित पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध प्राथमिकी (FIR) दर्ज करने के निर्देश जारी किए जिन्होंने शिकायत पर कार्रवाई में देरी की।
  2. अदालत ने यह भी कहा कि डीएसपी और एसएचओ स्तर के अधिकारियों की जवाबदेही तय की जाए और उनके विरुद्ध विभागीय जांच भी की जाए।
  3. न्यायालय ने पुलिस महानिरीक्षक (IGP) को व्यक्तिगत रूप से यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि आदेश का अनुपालन एक निश्चित समयसीमा के भीतर हो।
  4. अदालत ने कहा कि “प्रारंभिक जांच” का बहाना FIR दर्ज करने में देरी का औचित्य नहीं हो सकता।

कानूनी सिद्धांतों की पुनः पुष्टि (Reaffirmation of Legal Principles)

इस निर्णय ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांतों को पुनः सुदृढ़ किया:

  • धारा 154, दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
  • Lalita Kumari निर्णय (2014) के अनुसार, प्रारंभिक जांच केवल सीमित मामलों में अनुमन्य है — जैसे पारिवारिक विवाद, वाणिज्यिक अपराध, मेडिकल लापरवाही आदि — और वह भी अधिकतम 7 दिनों के भीतर पूरी होनी चाहिए।
  • पुलिस द्वारा जानबूझकर की गई देरी को कानूनी कर्तव्य का उल्लंघन (Dereliction of Duty) माना जाएगा, जो अनुशासनात्मक कार्रवाई योग्य अपराध है।

संवैधानिक परिप्रेक्ष्य (Constitutional Perspective)

अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को न्यायसंगत और समय पर जांच का अधिकार प्राप्त है। FIR दर्ज करने में अत्यधिक देरी न्यायिक प्रक्रिया के इस अधिकार को प्रभावित करती है। अदालत ने कहा कि पुलिस अधिकारियों का यह रवैया “न्याय के प्रशासन के विरुद्ध अपराध” के समान है।


व्यवहारिक प्रभाव (Practical Implications)

इस निर्णय का प्रभाव व्यापक है।

  • यह पुलिस प्रशासन को चेतावनी देता है कि FIR दर्ज करने में कोई भी अनुचित विलंब अब सहनीय नहीं होगा।
  • यह आदेश शिकायतकर्ताओं को भी अधिकार देता है कि यदि उनकी शिकायत पर समय से FIR दर्ज नहीं की जा रही है, तो वे सीधे न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
  • साथ ही, यह निर्णय पुलिस प्रणाली में जवाबदेही और पारदर्शिता की दिशा में एक बड़ा कदम है।

पूर्ववर्ती निर्णयों से तुलना (Comparison with Previous Judgments)

इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने कई बार पुलिस को FIR दर्ज करने के दायित्व की याद दिलाई है, जैसे कि —

  1. State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) – अदालत ने कहा कि FIR दर्ज करना पुलिस का वैधानिक दायित्व है।
  2. Parkash Singh v. Union of India (2006) – पुलिस सुधारों और जवाबदेही पर जोर दिया गया।
  3. Lalita Kumari (2014) – FIR दर्ज न करने पर संबंधित अधिकारी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा की गई।

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय इन्हीं सिद्धांतों की निरंतरता में है, परंतु इस बार अदालत ने “पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध प्रत्यक्ष FIR दर्ज करने का आदेश” देकर इसे और अधिक प्रभावी बना दिया है।


निष्कर्ष (Conclusion)

यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में एक मजबूत संदेश देता है — “कानून के सामने कोई भी अधिकारी जवाबदेही से ऊपर नहीं।”
संज्ञेय अपराधों में FIR दर्ज करने की अनिवार्यता केवल एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का हिस्सा है। FIR दर्ज करने में 8 महीनों की देरी जैसी लापरवाही न्याय की आत्मा को आहत करती है।

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह आदेश न केवल एक विशेष मामले में न्याय सुनिश्चित करता है, बल्कि भविष्य के लिए पुलिस अधिकारियों को यह सख्त चेतावनी देता है कि कर्तव्य की उपेक्षा सहन नहीं की जाएगी।

यह निर्णय न्यायपालिका की उस भूमिका को भी रेखांकित करता है, जो प्रशासनिक तंत्र की निष्क्रियता के विरुद्ध खड़ी होकर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है।


➡️ निष्कर्षतः, यह मामला इस बात का सशक्त उदाहरण है कि न्यायपालिका केवल विवादों का निपटान नहीं करती, बल्कि वह शासन की जवाबदेही और नागरिक स्वतंत्रता की प्रहरी भी है।