पुलिस और प्रशासन का संवेदनहीन रवैया: पीड़ितों की न्याय तक पहुँच में सबसे बड़ी बाधा भूमिका

शीर्षक: पुलिस और प्रशासन का संवेदनहीन रवैया: पीड़ितों की न्याय तक पहुँच में सबसे बड़ी बाधा

भूमिका
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां संविधान नागरिकों को समानता, जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार प्रदान करता है, वहीं पुलिस और प्रशासन का संवेदनहीन रवैया इन अधिकारों के उपयोग में गंभीर बाधा बनता जा रहा है। विशेष रूप से महिला, बच्चे, दलित और आदिवासी समुदायों से संबंधित पीड़ितों के मामलों में प्रशासनिक उदासीनता और पुलिस की लापरवाही न केवल संवैधानिक मूल्यों का हनन करती है, बल्कि लोगों का न्याय व्यवस्था से भरोसा भी कमजोर करती है।

संवेदनहीनता के रूप
पुलिस और प्रशासन की संवेदनहीनता कई रूपों में सामने आती है —

  • पीड़ित की शिकायत को दर्ज न करना या FIR दर्ज करने से इनकार करना
  • यौन अपराधों या घरेलू हिंसा मामलों में पीड़िता से अपमानजनक व्यवहार
  • जातिगत भेदभाव, जिससे अनुसूचित जाति या जनजाति के पीड़ितों की शिकायतों को नजरअंदाज किया जाता है
  • राजनीतिक या प्रभावशाली व्यक्तियों के दबाव में निष्पक्ष जांच में बाधा
  • पीड़ितों या गवाहों को डराना-धमकाना

महिला और बाल अपराधों में स्थिति
विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों से जुड़े अपराधों में संवेदनशीलता की अत्यधिक आवश्यकता होती है। लेकिन कई बार पुलिस कर्मी, यौन उत्पीड़न या बलात्कार पीड़िता से पूछताछ करते समय अपमानजनक प्रश्न करते हैं या उसे दोषी ठहराने वाले रवैये से पेश आते हैं। इससे पीड़िता दोबारा मानसिक उत्पीड़न झेलती है और न्याय पाने की उसकी आशा कमजोर होती है।

प्रशासनिक उदासीनता का प्रभाव

  • न्याय प्रक्रिया में देरी
  • अपराधियों का हौसला बढ़ना
  • पीड़ितों की आत्महत्या या सामाजिक बहिष्कार जैसी स्थितियाँ
  • आम नागरिकों का कानून में विश्वास घटाना

संवेदनशीलता की आवश्यकता क्यों?
पुलिस और प्रशासन को केवल कानून लागू करने वाला अंग न मानकर एक मानवीय संस्था की तरह काम करना चाहिए। पीड़ितों से सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार, तुरंत मदद और निष्पक्ष जांच ही एक लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज का संकेत है। कानून के उद्देश्य की पूर्ति तभी संभव है जब उसे लागू करने वाले अधिकारी अपने कार्य में निष्ठावान और संवेदनशील हों।

सरकारी प्रयास और सुधार की दिशा में कदम

  • विशाखा दिशा-निर्देश (1997) और POSH अधिनियम (2013) ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए पुलिस और प्रशासन को जवाबदेह बनाया
  • POCSO अधिनियम, SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, और वन अधिकार कानून जैसे कानूनों के तहत विशेष प्रावधान किए गए
  • कई राज्यों में सिटीजन चार्टर, महिला हेल्प डेस्क, और वन स्टॉप सेंटर जैसी पहलें शुरू हुई हैं
  • पुलिस प्रशिक्षण में संवेदनशीलता मॉड्यूल जोड़े जा रहे हैं

चुनौतियाँ अब भी शेष
इन सबके बावजूद जमीनी स्तर पर कई पुलिस अधिकारी और प्रशासनिक इकाइयाँ पुराने पितृसत्तात्मक, जातिगत या सामंती सोच से ग्रसित हैं। कई बार पीड़ितों की मदद करने की बजाय उन पर ही केस वापस लेने या समझौता करने का दबाव डाला जाता है।

समाधान के सुझाव

  • पुलिस में संवेदनशीलता प्रशिक्षण को अनिवार्य और नियमित किया जाए
  • महिला पुलिस की संख्या बढ़ाई जाए
  • शिकायत दर्ज करने की ऑनलाइन, सुरक्षित और गोपनीय व्यवस्था हो
  • प्रशासन में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए स्वतंत्र निगरानी एजेंसियाँ बनाई जाएँ
  • हर जिले में पीड़ित सहायता केंद्र और काउंसलिंग सुविधा हो

निष्कर्ष
पुलिस और प्रशासन की भूमिका केवल कानूनी औपचारिकता निभाने की नहीं हो सकती। उन्हें संवेदनशीलता, सहानुभूति और निष्पक्षता के साथ पीड़ितों की सहायता करनी चाहिए। जब तक इस सोच में बदलाव नहीं होगा, तब तक कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन संभव नहीं होगा और समाज में न्याय की भावना अधूरी ही बनी रहेगी।