पुलिस अधिकारियों पर अभियोजन से पूर्व स्वीकृति की अनिवार्यता: G.C. Manjunath & Ors बनाम सीताराम मामला

शीर्षक:
पुलिस अधिकारियों पर अभियोजन से पूर्व स्वीकृति की अनिवार्यता: G.C. Manjunath & Ors बनाम सीताराम मामला

परिचय:
भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 और कर्नाटक पुलिस अधिनियम की धारा 170 के अंतर्गत, राज्य के सेवकों और विशेष रूप से पुलिस अधिकारियों पर अभियोजन आरंभ करने से पूर्व सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति आवश्यक मानी जाती है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने G.C. Manjunath & Ors बनाम Seetaram (SUPREME COURT OF INDIA) में इस सिद्धांत को दोहराया कि यदि कोई पुलिस अधिकारी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, भले ही अपनी अधिकृत सीमाओं का अतिक्रमण करता है, तो भी जब तक उसके कृत्य और उसके आधिकारिक दायित्व के बीच तार्किक संबंध (reasonable nexus) हो, तब तक अभियोजन से पहले पूर्व स्वीकृति आवश्यक होगी।

मामले की पृष्ठभूमि:
इस मामले में याचिकाकर्ता पुलिस अधिकारी थे, जिनके विरुद्ध शिकायत की गई कि उन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए कुछ लोगों के साथ अनुचित व्यवहार किया। आरोप था कि उन्होंने अपने आधिकारिक दायित्वों की सीमाएं पार कर लीं और उनके कार्यों को व्यक्तिगत दुश्मनी के चलते किया गया माना गया। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि वे पुलिस जांच के हिस्से के रूप में कार्य कर रहे थे और उनके कार्यों का सीधा संबंध उनकी सेवा से है, इसलिए धारा 197 CrPC और धारा 170 कर्नाटक पुलिस अधिनियम के तहत अभियोजन से पहले पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित बिंदुओं पर बल देते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिया:

  1. पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि किसी सरकारी सेवक का कार्य उसके आधिकारिक कर्तव्य से संबंधित है, और भले ही वह सीमा से अधिक गया हो, तब भी जब तक उस कार्य और उसकी सेवा के बीच एक ‘reasonable nexus’ (युक्तिसंगत संबंध) है, तब तक अभियोजन से पहले सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति आवश्यक है।
  2. कर्तव्य की परिभाषा का विस्तार: न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि “कर्तव्य” की व्याख्या संकीर्ण दृष्टिकोण से नहीं की जानी चाहिए। यदि कार्य कानून के भीतर है, और वह सेवा की जिम्मेदारियों के अंतर्गत किया गया है, तो वह कर्तव्य की परिधि में आएगा, भले ही उसका निष्पादन दोषपूर्ण या अनुचित हो।
  3. रक्षा का अधिकार: सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि पूर्व स्वीकृति का उद्देश्य राज्य के अधिकारियों को अनावश्यक परेशानियों और झूठे मुकदमों से बचाना है, जिससे वे भयमुक्त होकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें।

न्यायिक महत्व:
इस निर्णय ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध यदि अभियोजन करना है, तो ऐसे मामलों में जहां उनका कार्य उनके कर्तव्यों से संबंधित हो, तब पूर्व स्वीकृति लेना आवश्यक है। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सरकारी अधिकारियों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है, ताकि वे स्वतंत्र रूप से अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें।

निष्कर्ष:
G.C. Manjunath & Ors बनाम Seetaram का निर्णय भारत में विधि और व्यवस्था से संबंधित मामलों में पुलिस अधिकारियों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह निर्णय दर्शाता है कि न्यायालय सरकारी सेवकों की भूमिका और उनके कर्तव्यों की सीमाओं को व्यापक दृष्टिकोण से देखता है, और उन्हें बिना पूर्व स्वीकृति के अभियोजन से सुरक्षित रखता है, जब तक कि उनका कार्य उनके दायित्वों से जुड़ा हो।