पुराने चेक पत्ते से ऋण चुकाने का दावा अविश्वसनीय: V.P. Zacharia बनाम केरल राज्य मामला विश्लेषण (SUPREME COURT OF INDIA)

शीर्षक: पुराने चेक पत्ते से ऋण चुकाने का दावा अविश्वसनीय: V.P. Zacharia बनाम केरल राज्य मामला विश्लेषण (SUPREME COURT OF INDIA)


भूमिका:

भारत के न्यायिक तंत्र में चेक के माध्यम से ऋण चुकौती के मामलों में Negotiable Instruments Act, 1881 की धारा 138 का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस धारा के अंतर्गत, यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर चेक के भुगतान में विफल रहता है, तो यह एक दंडनीय अपराध बन जाता है। किंतु क्या होता है जब चेक पुराना हो या परिस्थितियाँ असामान्य हों? इसी प्रश्न पर प्रकाश डालता है V.P. Zacharia बनाम State of Kerala & Anr का निर्णय।


मामले की पृष्ठभूमि:

इस मामले में याचिकाकर्ता V.P. Zacharia पर आरोप था कि उन्होंने एक धनराशि का भुगतान करने हेतु एक चेक जारी किया था, जो बाद में बाउंस हो गया। उत्तरदायी पक्ष ने दावा किया कि चेक को वर्ष 2000 में कानूनी देनदारी चुकाने के उद्देश्य से जारी किया गया था।

हालांकि, जब इस चेक की पड़ताल की गई तो यह स्पष्ट हुआ कि वह चेकपत्ता उस चेकबुक का हिस्सा था, जो वर्ष 1996 में ही समाप्त हो चुकी थी।


न्यायालय की टिप्पणियाँ:

केरल उच्च न्यायालय (Kerala High Court) ने इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण अवलोकन किए:

  1. “अत्यधिक असंभव” परिस्थिति: न्यायालय ने कहा कि यह अत्यंत असंभव और अविश्वसनीय प्रतीत होता है कि एक ऐसा व्यक्ति जो 1996 में ही एक चेकबुक का प्रयोग समाप्त कर चुका हो, वह उसके बचे हुए चेक पत्ते को चार वर्ष बाद (2000 में) एक वैध ऋण चुकाने के लिए प्रयोग करेगा।
  2. प्रत्याशा और व्यवहारिकता: न्यायालय ने यथार्थता और सामान्य बैंकिंग व्यवहार के आधार पर निर्णय देते हुए कहा कि कोई भी विवेकशील व्यक्ति पुरानी और संभवतः रद्द हो चुकी चेक पत्तियों को चार वर्ष बाद कानूनी भुगतान हेतु उपयोग में नहीं लाएगा।
  3. दस्तावेज़ीय साक्ष्य: न्यायालय ने यह भी देखा कि रिकॉर्ड में कोई ठोस साक्ष्य उपलब्ध नहीं था, जिससे यह सिद्ध हो सके कि चेक जारी करने की तिथि और भुगतान की कानूनी बाध्यता वास्तव में संबंधित थी।

विधिक निष्कर्ष:

इस निर्णय में न्यायालय ने यह स्थापित किया कि केवल चेक की उपस्थिति या शिकायतकर्ता की बातों से यह नहीं माना जा सकता कि चेक एक legally enforceable debt or liability के अंतर्गत जारी किया गया था। यदि चेक की प्रकृति संदिग्ध हो और वह व्यवहारिक दृष्टिकोण से असंगत प्रतीत हो, तो आरोपी को दोषी ठहराना विधिसम्मत नहीं होगा।


महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत:

  • Presumption under Section 139 of NI Act: हालांकि धारा 139 के अंतर्गत यह माना जाता है कि चेक वैध देनदारी के लिए जारी किया गया था, किंतु यह परिकल्पना प्रतिवादी द्वारा परिस्थितिजन्य साक्ष्यों या प्रबल युक्तियों से rebut की जा सकती है।
  • Burden of Proof: इस मामले में आरोपी ने सफलतापूर्वक यह सिद्ध किया कि चेक के प्रयोग की समयसीमा और व्यवहारिक सुसंगतता अनुपस्थित थी।

निष्कर्ष:

V.P. Zacharia बनाम State of Kerala & Anr का यह मामला इस बात का सशक्त उदाहरण है कि न्यायालय केवल दस्तावेज़ों पर आधारित नहीं, बल्कि व्यवहारिक और वास्तविक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्णय देता है। यह निर्णय स्पष्ट रूप से बताता है कि Negotiable Instruments Act की धाराएँ भी केवल आरोप पर नहीं, बल्कि प्रमाणिकता और व्यवहारिक संभावना के आधार पर लागू की जाती हैं।