पर्यावरण और आर्थिक विकास में संतुलनः सतत विकास की ओर अग्रसर भारत
प्रस्तावना:
भारत जैसे विकासशील देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह आर्थिक प्रगति की गति को बनाए रखते हुए पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण भी सुनिश्चित करे। आधुनिक औद्योगिकरण, नगरीकरण और तीव्र जनसंख्या वृद्धि ने प्राकृतिक संसाधनों पर जबरदस्त दबाव डाला है। वहीं, पर्यावरण संरक्षण की अनदेखी से प्रदूषण, जैव विविधता का ह्रास, और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ सामने आ रही हैं। अतः यह आवश्यक हो गया है कि भारत आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए।
पर्यावरण की उपेक्षा से उत्पन्न समस्याएँ:
तेजी से हो रहे औद्योगीकरण और निर्माण कार्यों ने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया है। वनों की अंधाधुंध कटाई, नदी-झीलों का प्रदूषण, वायु और जल की गुणवत्ता में गिरावट, वन्य जीवों का ह्रास, और भूमि क्षरण जैसी समस्याएँ हमारे सामने हैं। यह न केवल प्रकृति को नुकसान पहुंचा रही हैं, बल्कि मानव स्वास्थ्य, कृषि उत्पादकता और जल सुरक्षा को भी प्रभावित कर रही हैं।
आर्थिक विकास की आवश्यकता:
भारत को गरीबी, बेरोजगारी, भूख, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक चुनौतियों से निपटने के लिए आर्थिक विकास की आवश्यकता है। बुनियादी ढाँचे का निर्माण, उद्योगों का विस्तार, ऊर्जा संसाधनों का विकास और वैश्विक व्यापार में भागीदारी ऐसे क्षेत्र हैं जो आर्थिक प्रगति को गति देते हैं। लेकिन इस विकास को प्रकृति विरोधी नहीं, बल्कि प्रकृति-संगत होना चाहिए।
सतत विकास का सिद्धांत:
‘सतत विकास’ वह अवधारणा है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के लिए संसाधनों को सुरक्षित रखने पर बल देती है। यह सिद्धांत पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास करता है। भारत ने विभिन्न योजनाओं और कानूनों के माध्यम से सतत विकास की दिशा में कई कदम उठाए हैं।
भारत का कानूनी और नीतिगत ढाँचा:
भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक कानूनी प्रावधान मौजूद हैं। जैसे– पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986; जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974; वायु (प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981; वन संरक्षण अधिनियम, 1980 आदि। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने कई ऐतिहासिक निर्णयों द्वारा पर्यावरणीय संरक्षण को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है, जैसे– एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ केसों की श्रृंखला।
न्यायपालिका की भूमिका:
भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर पर्यावरणीय हितों की रक्षा के लिए सराहनीय पहल की है। सुप्रीम कोर्ट ने “लोकहित याचिकाओं” (PIL) के माध्यम से न केवल पर्यावरणीय मामलों में हस्तक्षेप किया है, बल्कि सरकार को निर्देश भी दिए हैं। टी.एन. गोदावर्मन केस में वन संरक्षण हेतु निगरानी समिति की स्थापना इसका उदाहरण है।
सरकारी योजनाएँ और पहलें:
भारत सरकार ने विभिन्न योजनाओं के माध्यम से सतत विकास को प्रोत्साहित किया है जैसे– राष्ट्रीय हरित मिशन, स्वच्छ भारत अभियान, जल जीवन मिशन, ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने की नीति, और जैविक खेती की योजनाएँ। साथ ही, नीति आयोग द्वारा पर्यावरणीय संकेतकों के साथ आर्थिक प्रगति की निगरानी की जाती है।
पुनर्नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार:
भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों जैसे– सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत और जैविक ऊर्जा को अपनाने में उल्लेखनीय प्रगति की है। 2030 तक भारत 500 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखता है। यह कदम पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में भी सहायक है।
स्थानीय समुदाय और जनभागीदारी:
पर्यावरण संरक्षण केवल सरकारी नीति से संभव नहीं, इसके लिए समाज की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। ग्राम पंचायतों, स्वैच्छिक संगठनों, युवा समूहों और आम नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रेरित करने की आवश्यकता है। स्कूलों में पर्यावरण शिक्षा, वृक्षारोपण अभियान और प्लास्टिक मुक्त भारत जैसी पहलें सामूहिक प्रयास का हिस्सा बन सकती हैं।
चुनौतियाँ और समाधान:
हालाँकि भारत ने कई क्षेत्रों में प्रगति की है, परंतु औद्योगिक लॉबियों, भ्रष्टाचार, नीति निष्पादन में शिथिलता और जागरूकता की कमी जैसी समस्याएँ अभी भी बाधा बनी हुई हैं। इसके लिए सख्त कार्यान्वयन, पारदर्शिता, शिक्षा और तकनीकी नवाचार की जरूरत है। साथ ही, ‘ग्रीन जीडीपी’ जैसे उपायों से पर्यावरणीय क्षति का आकलन आर्थिक विकास के साथ किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:
भारत को अपने विकास के मार्ग को प्रकृति-सम्मत बनाना होगा। पर्यावरण और आर्थिक विकास के बीच संतुलन ही भविष्य की स्थायित्व और सुरक्षा का आधार है। सतत विकास के सिद्धांत को अपनाते हुए भारत एक ऐसे मॉडल का निर्माण कर सकता है, जो विश्व के अन्य विकासशील देशों के लिए अनुकरणीय बने।
“विकास का मार्ग तभी सार्थक है, जब उसमें प्रकृति की सुरक्षा और मानवता की भलाई दोनों निहित हों।”