“परिस्थितिजन्य साक्ष्य में संदेह का लाभ: उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा IPC की धारा 396 एवं 201 में दोषमुक्ति का निर्णय”

लेख शीर्षक:
“परिस्थितिजन्य साक्ष्य में संदेह का लाभ: उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा IPC की धारा 396 एवं 201 में दोषमुक्ति का निर्णय”


भूमिका:
भारतीय दंड संहिता की धाराओं 396 (डकैती के दौरान हत्या) और 201 (अपराध के साक्ष्यों को छिपाना) के तहत दोष सिद्ध करने के लिए अभियोजन पक्ष को कठोर साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है। जब किसी आपराधिक मुकदमे में प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं होते, तब पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य (circumstantial evidence) पर आधारित होता है। हाल ही में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने एक ऐसे ही मामले में अभियुक्त को दोषमुक्त करते हुए यह कहा कि अभियोजन पक्ष संदेह से परे (beyond reasonable doubt) दोष सिद्ध नहीं कर सका।


मामले की पृष्ठभूमि:

  • अभियोजन का पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था।
  • अभियुक्त के विरुद्ध यह दावा किया गया कि वह मृतक के साथ “अंतिम बार देखा गया था” (last seen theory)।
  • यह भी आरोप था कि अभियुक्त ने मृतक से झगड़ा किया और हत्या में सम्मिलित रहा।
  • किंतु, इस बात का कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया।

प्रमुख निष्कर्ष:

🔹 1. “Last Seen Theory” का विफल सिद्ध होना:

  • अभियोजन यह सिद्ध नहीं कर सका कि मृतक को अंतिम बार अभियुक्त के साथ ही देखा गया था।
  • “Last seen theory” तभी प्रभावी मानी जाती है जब मृतक को अभियुक्त के साथ बहुत कम समय पहले देखा गया हो और उसके बाद उसकी मृत्यु हो जाती है — लेकिन इस मामले में ऐसा कोई समयानुसार साक्ष्य उपलब्ध नहीं था।

🔹 2. झगड़े या शत्रुता का कोई प्रमाण नहीं:

  • अभियोजन पक्ष यह भी सिद्ध नहीं कर सका कि अभियुक्त और मृतक के बीच कोई विवाद या झगड़ा हुआ था।
  • न तो कोई प्रत्यक्षदर्शी था और न ही कोई स्वतंत्र गवाह।

🔹 3. परिस्थितिजन्य साक्ष्य अपर्याप्त:

  • न्यायालय ने यह कहा कि जब प्रत्यक्ष साक्ष्य अनुपस्थित होते हैं, तब परिस्थितिजन्य साक्ष्य की कड़ी पूरी और सुसंगत होनी चाहिए।
  • परंतु, प्रस्तुत तथ्यों में कोई ऐसी ठोस कड़ी नहीं पाई गई जिससे अभियुक्त को दोषी ठहराया जा सके।

🔹 4. संदेह का लाभ अभियुक्त को:

  • भारतीय दंड प्रक्रिया में यह सिद्धांत है कि यदि किसी आरोपी के विरुद्ध अपराध संदेह से परे सिद्ध न हो सके, तो उसे दोषमुक्त किया जाना चाहिए।
  • उड़ीसा उच्च न्यायालय ने इसी आधार पर कहा कि अभियोजन पक्ष अपना भार सिद्ध करने में असफल रहा है।

न्यायालय की टिप्पणी:

The legal standard required for convicting an accused in a criminal trial is the proof of guilt beyond reasonable doubt. Mere suspicion, however strong, cannot substitute legal proof. Since the chain of circumstances is incomplete and the last seen theory remains unproven, the conviction cannot be sustained.


न्यायालय का निर्णय:

  • अभियुक्त के विरुद्ध IPC की धारा 396 (डकैती के दौरान हत्या) और धारा 201 (साक्ष्य मिटाना) के अंतर्गत जो दोषारोपण किया गया था, उसे न्यायालय ने “असंगत और अप्रमाणित” मानते हुए रद्द कर दिया।
  • अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया।

महत्वपूर्ण विधिक सिद्धांत:

  • संदेह का लाभ हमेशा अभियुक्त को मिलता है।
  • परिस्थितिजन्य साक्ष्य की श्रृंखला यदि पूरी और तार्किक न हो, तो दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।
  • Last Seen Theory तभी मान्य मानी जाती है जब अभियुक्त और मृतक के बीच की उपस्थिति और हत्या के समय में कोई स्पष्ट और करीबी संबंध हो।

निष्कर्ष:
उड़ीसा उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दंड न्याय प्रणाली की उस आधारभूत अवधारणा को दोहराता है कि “दोष सिद्धि केवल संदेह पर नहीं, अपितु प्रमाण पर आधारित होनी चाहिए।” अभियुक्त को तभी दोषी ठहराया जाना चाहिए जब सभी साक्ष्य मिलकर एक ही निष्कर्ष की ओर इशारा करें, और वह भी संदेह से परे। अन्यथा, अभियुक्त को दोषमुक्त करना ही न्याय का पालन है।