“पति का अधिकार और पारिवारिक संतुलन: माता-पिता की देखभाल बनाम वैवाहिक दायित्व”

“पति का अधिकार और पारिवारिक संतुलन: माता-पिता की देखभाल बनाम वैवाहिक दायित्व”

“पति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह वैवाहिक जीवन निर्वाह हेतु अपनी माता का परित्याग कर दे।”
यह कथन न केवल न्यायालय की सोच को दर्शाता है, बल्कि भारतीय सामाजिक संरचना की गहराई को भी उजागर करता है। भारत जैसे देश में जहां परिवार केवल दो व्यक्तियों का संबंध नहीं, बल्कि एक संपूर्ण संस्था है, वहां पति का यह अधिकार कि वह अपने माता-पिता की सेवा करे और उनके साथ निवास करे — न केवल कानूनी है, बल्कि नैतिक और सामाजिक रूप से भी स्वीकार्य है।


भारतीय संस्कृति और कर्तव्य की भावना

भारतीय पारिवारिक संरचना संयुक्त परिवार की परंपरा पर आधारित रही है, जिसमें माता-पिता की सेवा और देखभाल को पुत्र का कर्तव्य माना गया है। विवाह के बाद भी यह कर्तव्य समाप्त नहीं होता। एक पुत्र का यह अधिकार और दायित्व होता है कि वह अपने माता-पिता की सेवा करे, विशेषकर वृद्धावस्था में।


कानूनी परिप्रेक्ष्य

भारतीय न्यायालयों ने कई मामलों में यह स्पष्ट किया है कि:

“सिर्फ इस आधार पर कि पत्नी अपने सास-ससुर के साथ रहने से इंकार करती है, पति को यह बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह अपनी माता को छोड़कर पत्नी के साथ अलग घर बसाए।”

इसका तात्पर्य यह है कि पत्नी की यह मांग कि पति अपने माता-पिता को छोड़ दे और अलग निवास करे — वैवाहिक जीवन में न्यायोचित अपेक्षा नहीं है।

महत्वपूर्ण निर्णय:

उदाहरण के लिए, मंजू शर्मा बनाम राजेश शर्मा के एक चर्चित निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि:

“पति को अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल करने का पूरा अधिकार है, और यदि पत्नी इसमें सहयोग नहीं करती, तो यह पति की गलती नहीं मानी जा सकती।”


पति-पत्नी के बीच संतुलन बनाना

हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं है कि पत्नी को किसी भी परिस्थिति में जबरदस्ती ससुराल में रखा जाए। यदि ससुराल में उसे शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक पीड़ा दी जाती है, तो यह घरेलू हिंसा कानून के अंतर्गत आएगा। परंतु केवल “सास के साथ न रहने की अनिच्छा” को न्यायालय स्वीकृत आधार नहीं मानता।


निष्कर्ष

“पति का यह अधिकार है कि वह अपने माता-पिता की देखभाल करे और उनके साथ निवास करे।”
यह अधिकार सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि एक पुत्र का नैतिक और सामाजिक धर्म भी है। वैवाहिक जीवन की सफलता पति और पत्नी के बीच समझदारी और आपसी सम्मान पर आधारित होती है — न कि त्याग की एकतरफा अपेक्षाओं पर। पति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अपने विवाह को बनाए रखने के लिए अपनी मां को अकेला छोड़ दे।

सद्भाव, सह-अस्तित्व और सम्मान — यही भारतीय परिवार की नींव है।

पति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह वैवाहिक जीवन निर्वाह हेतु अपनी माता का परित्याग कर दे” – यह सिद्धांत भारत के विभिन्न उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों में प्रतिपादित हुआ है।

यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय निर्णय है:


🔹 Suresh Rao v. Rajani, 2006 (Bombay High Court)

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट कहा:

“एक बेटे को अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करने और उनके साथ रहने का अधिकार है। केवल इस आधार पर कि पत्नी अपने सास-ससुर के साथ नहीं रहना चाहती, पति को विवश नहीं किया जा सकता कि वह उनसे अलग हो जाए।”


🔹 V. Bhagat vs D. Bhagat, AIR 1994 SC 710

सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक जीवन में “क्रूरता” की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए यह संकेत दिया कि अगर पत्नी अनुचित मांग करती है (जैसे कि पति अपने माता-पिता से अलग हो जाए), तो यह क्रूरता के अंतर्गत आ सकता है।


🔹 K. Srinivas Rao v. D.A. Deepa, (2013) 5 SCC 226

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:

“यदि पत्नी पति के माता-पिता को छोड़ने की जिद करती है और साथ न रहने का दबाव बनाती है, तो यह वैवाहिक जीवन में असहयोग माना जा सकता है और यह तलाक का आधार बन सकता है।”


🔹 Narendra v. K. Meena, (2016) 9 SCC 455

यह सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसमें कहा गया:

“यदि पत्नी पति पर यह दबाव डाले कि वह अपनी वृद्ध और असहाय मां को छोड़कर अलग घर बसाए, तो यह ‘क्रूरता’ की श्रेणी में आएगा और यह पति के लिए तलाक का आधार बन सकता है।”


निष्कर्ष:

  • उपरोक्त सभी निर्णय इस बात को स्थापित करते हैं कि पति का यह कानूनी और नैतिक अधिकार है कि वह अपने माता-पिता के साथ रहे और उनकी सेवा करे।
  • पत्नी की केवल यह अनिच्छा कि वह सास-ससुर के साथ नहीं रहना चाहती — पति पर यह वैधानिक दायित्व नहीं डालती कि वह अपनी मां को छोड़ दे।
  • सुप्रीम कोर्ट का Narendra v. K. Meena निर्णय इस संदर्भ में सबसे प्रासंगिक और उद्धृत किया जाने वाला है।