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“पचास वर्ष का किराया भी मालिकाना हक़ नहीं देता — Supreme Court की महत्वपूर्ण टिप्पणी”

“पचास वर्ष का किराया भी मालिकाना हक़ नहीं देता — Supreme Court की महत्वपूर्ण टिप्पणी”

प्रस्तावना

बहुत बार यह दावा सुना गया है कि यदि व्यक्ति लंबे समय (उदाहरणतः पाँच-० वर्ष, दस-वर्ष, पचास-वर्ष) तक किसी मकान या भू-भाग में किराए पर रहा है, तो धीरे-धीरे वह उस संपत्ति का “मालिक” बन जाता है। लेकिन भारतीय क़ानूनी प्रणाली में यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है। किरायेदारी (lease/tenancy) और मालिकाना हक़ (ownership) में मौलिक अन्तर है। इस लेख में हम किरायेदार-मकान-मालिक (tenant-landlord) संबंध, अधिग्रहण (adverse possession) का सिद्धांत, सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम निर्णयों का अवलोकन तथा निष्कर्ष प्रस्तुत करेंगे।


किरायेदारी और मालिकाना हक़ में अन्तर

  1. किरायेदारी (Tenancy) एक अनुबंध-आधारित संबंध है जहाँ मकानमालिक (landlord) किसी व्यक्ति को किराए पर अपनी संपत्ति उपयोगचयन के लिए देता है, किंतु मालिकाना अधिकार को स्थानांतरित नहीं करता। किरायेदार (tenant) को उपयोग, आवास (residence), व्यवसाय-उद्देश्य से संपत्ति का उपयोग मिलता है, लेकिन संपत्ति का अंतर्निहित अधिकार मालिक के पास ही रहता है।
  2. मालिकाना हक़ (Ownership) में संपत्ति पर सम्पूर्ण अधिकार होता है—उपयोग, लाभ, विक्रय, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अन्यायी हस्तक्षेप का विरोध आदि। सिर्फ कि लंबे समय तक रहने या उपयोग से यह स्व-संचालित रूप से नहीं मिल जाता।
  3. इस अंतर को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यदि हम यह मान लें कि “बहुत सालों से रहने का मतलब मालिक बन जाना है” तो यह किरायेदारी और मालिकाना हक़ के बीच मूलभूत विभाजन को ध्वस्त कर देगा।

अधिग्रहण (Adverse Possession) का सिद्धांत और किरायेदारी

भारतीय क़ानून में अधिग्रहण (adverse possession) का सिद्धांत यह कहता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी भूमि या संपत्ति पर अनवरत, खुला-साफ, तथा मालिक की अनुमति के बिना (या स्पष्ट रूप से मालिक के अधिकारों को ठुकराते हुए) नियंत्रण बनाए रखता है, तो एक निश्चित अविदित अवधि के पश्चात् वह मालिकाना हक़ का दावा कर सकता है।
परंतु यहाँ बड़ी महत्त्वपूर्ण बात यह है: यदि किरायेदारी के रूप में प्रवेश हुआ है, अर्थात् मालिक ने अनुमति दी है और किराए का अनुबंध अस्तित्व में है, तो यह आम तः अधिग्रहण का आधार नहीं बनती। किरायेदार ने “अनुमति के बिना कब्जा” नहीं लिया है बल्कि मालिक की अनुमति से प्रवेश किया है, अत: यह adverse possession की मूल शर्त नहीं पूरी करती।

इसके अतिरिक्त, अधिग्रहण के लिए अन्य शर्तें भी आवश्यक हैं—जैसे निरंतर कब्जा, सार्वजनिक कब्जा (open and notorious), मालिक द्वारा कई वर्षों तक हस्तक्षेप न करना आदि। किरायेदारी में ये शर्तें सामान्यतः अनुपस्थित होती हैं क्योंकि मालिक का अधिकार मौजूद रहता है।


सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण — “बहुत लंबे समय तक किराए पर रहने = मालिक बन जाना?”

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय पर स्पष्ट किया है कि केवल लंबे समय तक किराए पर रहना पर्याप्त नहीं है कि आप मालिक बन जाएं। उदाहरणस्वरूप:

  • सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि “living with landlord’s consent does not qualify as adverse possession” अर्थात् मालिक की अनुमति से रहना अधिग्रहण का आधार नहीं बनता।
  • अदालत ने यह पुनः बताया कि किरायेदारी के मामले में मालिक का अंतर्निहित अधिकार बना रहता है; किरायेदार स्वचालित रूप से मालिक नहीं बन जाता।
  • एक तथ्य यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक 60 वर्ष की कानूनी जद्दोजहद को देखा जहाँ किरायेदार बनाम मालिक विवाद में अंततः मकाना-मालिक के पक्ष में निर्णय दिया गया।

इस प्रकार, पचास वर्ष तक किराए पर रहने की स्थिति में भी निम्नलिखित बातें याद रखने योग्य हैं:

  • किराए की सहमति (अनुबंध) मौजूद थी या नहीं?
  • मालिक से अनुमति थी या कब्जा अनधिकृत था?
  • मालिक ने अपने अधिकारों का क्या व्यवहार किया — यानी, उन्होंने कभी दावा किया कि वह मालिक हैं, किरायेदारी समाप्त करने का प्रयास किया या नहीं?
  • अधिग्रहण लागू हो सकती है यदि “अनधिकृत कब्जा” हुआ हो, लेकिन सिर्फ किराए के नाम से नहीं।

सीमाएँ एवं असमर्थताएँ

  • जैसे कि ऊपर कहा गया, अनुवर्ती संविदात्मक संबंध (lease) में किरायेदारी समाप्त हो सकती है, और मालिक अपना अधिकार पुनः प्राप्त कर सकता है।
  • राज्य-विशिष्ट किराया नियंत्रण कानून (Rent Control Acts) एवं नगर किराया-कानून इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं — ये उनके विशेष अधिकार-दायित्व निर्धारित करते हैं।
  • अधिग्रहण के लिए अवधि, प्रकार, प्राकृतिक अवरोध, मालिक का क्रियात्मक दावा आदि अनेक तत्व मान्य होते हैं—यह केवल “कितने साल रहे” का मामला नहीं है।
  • यदि किराया समझौता लिखित नहीं है या किराया नियमित नहीं दिया गया, तो यह विवाद का विषय हो सकता है—लेकिन यह स्व-मालिकाना हक़ नहीं देता।

निष्कर्षः किरायेदारी कभी मालिकाना हक़ नहीं बन सकती, किन्तु विशेष परिस्थिति में दावा संभव है

संक्षिप्त रूप से:

  • किरायेदारी = उपयोग अधिकार (use-right)
  • मालिकाना हक़ = सम्पत्ति पर सम्पूर्ण अधिकार
  • केवल लंबे समय तक किराए पर रहने से मालिकाना हक़ स्वतः उत्पन्न नहीं होता।
  • यदि कब्जा “अनधिकृत” हो (मालिक की अनुमति नहीं हो) और अन्य अधिग्रहण की शर्तें पूरी हों, तो दावा हो सकता है—लेकिन यह किरायेदारी की सामान्य स्थिति में नहीं होता।
  • सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि मालिक का अधिकार बना रहता है, और किरायेदार के पक्ष में स्व-संचालित मालिकाना हक़ स्वीकार नहीं किया गया है।
  • इसलिए, “मैं ५० साल किराए पर रहा, अब मकान मेरा हो गया” यह दावा स्वतः स्वीकार्य नहीं है—जब तक कि विशेष क़ानूनी आधार न हो।