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“पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय: आरोपी की अनुपस्थिति या गैर-हाजिरी के बावजूद आपराधिक पुनरीक्षण (Criminal Revision) स्वीकार्य”

“पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय: आरोपी की अनुपस्थिति या गैर-हाजिरी के बावजूद आपराधिक पुनरीक्षण (Criminal Revision) स्वीकार्य”

भूमिका (Introduction):

भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था (Criminal Justice System of India) न्याय, निष्पक्षता और विधिक प्रक्रिया के सिद्धांतों पर आधारित है। इस व्यवस्था का मूल उद्देश्य केवल अपराधी को दंडित करना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि न्याय हो — और न्याय होते हुए दिखाई भी दे।

आपराधिक मामलों में अभियुक्त (Accused) को कई स्तरों पर न्याय पाने का अवसर दिया गया है — जैसे अपील (Appeal), पुनरीक्षण (Revision), और पुनर्विचार (Review)। इन सभी विधिक उपायों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी व्यक्ति को बिना उचित सुनवाई या गलत निर्णय के आधार पर सज़ा न मिले।

इसी संदर्भ में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय (Punjab & Haryana High Court) ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि—

“किसी अभियुक्त की अनुपस्थिति, गैर-हाजिरी या आत्मसमर्पण न करने की स्थिति में भी, उसकी Criminal Revision Petition को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।”

यह निर्णय न्याय तक पहुंच (Access to Justice) और विधिक समानता (Equality Before Law) के सिद्धांतों को और भी मजबूत बनाता है।


मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case):

इस मामले में अभियुक्त को निचली अदालत (Trial Court) द्वारा एक अपराध का दोषी ठहराया गया था और उसे कारावास (Imprisonment) की सज़ा दी गई थी।

अभियुक्त ने इस सज़ा के विरुद्ध Criminal Revision दाखिल की, लेकिन वह न्यायालय में उपस्थित नहीं हुआ और न ही उसने आत्मसमर्पण किया। राज्य पक्ष (State Counsel) ने यह तर्क रखा कि अभियुक्त ने जब तक आत्मसमर्पण नहीं किया है, तब तक उसकी पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) Maintainable नहीं मानी जा सकती।

राज्य का यह भी कहना था कि —

“यदि आरोपी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में उपस्थित नहीं है या हिरासत में नहीं है, तो उसे पुनरीक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता।”

वहीं, अभियुक्त के वकील ने यह तर्क दिया कि —

“पुनरीक्षण एक विधिक अधिकार (Statutory Right) है, जो आरोपी को निचली अदालत के निर्णय की वैधता चुनौती देने के लिए दिया गया है। आत्मसमर्पण या हिरासत में होना इसका आवश्यक तत्व नहीं है।”


मुख्य विधिक प्रश्न (Key Legal Issue):

न्यायालय के समक्ष यह मूल प्रश्न उत्पन्न हुआ कि —

“क्या किसी अभियुक्त की अनुपस्थिति या आत्मसमर्पण न करने की स्थिति में, उसकी आपराधिक पुनरीक्षण याचिका सुनवाई योग्य (Maintainable) है या नहीं?”


विधिक प्रावधान (Relevant Legal Provisions):

  1. धारा 397, दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC):
    यह धारा सत्र न्यायालय (Sessions Court) और उच्च न्यायालय (High Court) को अधिकार देती है कि वे निचली अदालतों के आदेशों की समीक्षा (Revision) कर सकते हैं।
    उद्देश्य यह है कि किसी भी न्यायिक त्रुटि (Judicial Error) या विधिक गलत व्याख्या को सुधारा जा सके।
  2. धारा 401, CrPC:
    यह धारा उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्ति (Revisionary Powers) को परिभाषित करती है।
    इसमें कहा गया है कि उच्च न्यायालय किसी भी न्यायिक निर्णय की वैधता की समीक्षा कर सकता है, भले ही अभियुक्त की उपस्थिति आवश्यक न हो।
  3. संविधान का अनुच्छेद 21 (Article 21 – Right to Life and Personal Liberty):
    इस अनुच्छेद के तहत हर व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।
    “Access to Justice” को भी इस मौलिक अधिकार का हिस्सा माना गया है।

न्यायालय का निर्णय (Judgment of the Court):

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा कि —

“पुनरीक्षण (Revision) का अधिकार एक विधिक उपाय (Legal Remedy) है। यदि अभियुक्त ने आत्मसमर्पण नहीं किया है, तो यह मात्र एक तकनीकी कारण है, जो उसे न्याय पाने से वंचित नहीं कर सकता।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि –

“न्यायालय को तकनीकी आधारों पर याचिका को खारिज करने से बचना चाहिए, विशेष रूप से तब जब याचिका का उद्देश्य न्यायिक त्रुटि को सुधारना हो।”

अदालत का मुख्य तर्क यह था कि:

  • Criminal Revision का उद्देश्य निचली अदालत द्वारा दिए गए आदेशों की वैधता और निष्पक्षता की समीक्षा करना है।
  • अभियुक्त की अनुपस्थिति न्यायालय के लिए बाधक नहीं है, क्योंकि पुनरीक्षण याचिका में तथ्यों और विधि की जांच की जाती है, न कि प्रत्यक्ष गवाही की।
  • आत्मसमर्पण या हिरासत में होना, केवल सज़ा के क्रियान्वयन (Execution) के लिए आवश्यक है, न कि पुनरीक्षण की सुनवाई के लिए।

महत्वपूर्ण न्यायिक उदाहरण (Important Judicial Precedents):

  1. Bani Singh v. State of U.P. (1996) 4 SCC 720
    सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अपील या पुनरीक्षण अभियुक्त की अनुपस्थिति में भी सुनी जा सकती है। अभियुक्त का व्यक्तिगत उपस्थित होना न्याय का पूर्वशर्त नहीं है।
  2. K.S. Panduranga v. State of Karnataka (2013) 3 SCC 721
    न्यायालय ने कहा कि यदि वकील उपस्थित है और मामले की पैरवी कर रहा है, तो अभियुक्त की गैर-हाजिरी न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करती।
  3. Shyam Deo Pandey v. State of Bihar (1971) 1 SCC 855
    अदालत ने माना कि अभियुक्त की अनुपस्थिति केवल तभी महत्वपूर्ण है जब उसकी उपस्थिति सुनवाई के लिए आवश्यक हो।
  4. Dayanand v. State of Haryana (Punjab & Haryana HC, 2024)
    इसी हालिया मामले में न्यायालय ने दोहराया कि पुनरीक्षण याचिका अभियुक्त के आत्मसमर्पण न करने पर भी स्वीकार्य है।

न्यायालय का विश्लेषण (Court’s Analytical Reasoning):

न्यायालय ने विस्तृत विवेचना करते हुए कहा कि —

  1. न्यायालय का कर्तव्य है कि वह न्यायिक त्रुटियों को सुधारने का अवसर दे।
  2. अभियुक्त की अनुपस्थिति केवल एक तकनीकी पहलू है, जो न्याय के मूल उद्देश्य को बाधित नहीं कर सकती।
  3. यदि पुनरीक्षण को केवल इस आधार पर खारिज कर दिया जाए कि अभियुक्त ने आत्मसमर्पण नहीं किया है, तो इससे न्याय का ह्रास होगा।
  4. न्यायालय को Substantial Justice के सिद्धांत पर काम करना चाहिए, न कि तकनीकी नियमों के पालन पर।

न्यायालय ने यह भी जोड़ा कि –

“Access to Justice एक मौलिक अधिकार है। यदि किसी व्यक्ति को तकनीकी औपचारिकताओं के आधार पर न्याय से वंचित किया जाता है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।”


न्यायालय की टिप्पणी (Observations of the Court):

  1. अभियुक्त की अनुपस्थिति न्यायालय की पुनरीक्षण शक्ति (Revisional Jurisdiction) को प्रभावित नहीं करती।
  2. न्यायालय के पास यह अधिकार है कि वह अभियुक्त की अनुपस्थिति में भी मामले की सुनवाई कर निर्णय दे।
  3. यदि आवश्यक हो, तो अदालत बाद में अभियुक्त को आत्मसमर्पण करने का निर्देश दे सकती है।
  4. तकनीकी आधारों पर न्याय से इनकार करना संविधान की भावना के विपरीत है।

निर्णय के प्रभाव (Impact and Significance of the Judgment):

  1. न्याय तक पहुंच का विस्तार (Expansion of Access to Justice):
    अब अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित हुए बिना भी न्याय पाने के लिए पुनरीक्षण याचिका दायर कर सकते हैं।
  2. तकनीकी बाधाओं का अंत (End of Technical Barriers):
    पहले कई मामलों में अभियुक्त की अनुपस्थिति के कारण याचिकाएं खारिज कर दी जाती थीं। यह निर्णय उस प्रवृत्ति को समाप्त करता है।
  3. मानवाधिकारों की रक्षा (Protection of Human Rights):
    यह निर्णय मानवाधिकार और प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों को मजबूत करता है।
  4. न्यायालयों पर नई दिशा (New Direction for Courts):
    अब अदालतों को यह ध्यान रखना होगा कि न्याय तकनीकीता पर नहीं, बल्कि निष्पक्षता और विधिक सत्य पर आधारित हो।
  5. विधिक शिक्षा और परीक्षा दृष्टि से महत्व (Importance for Legal Studies):
    यह निर्णय न्यायिक विवेचना, अनुच्छेद 21, और CrPC की धारा 397 एवं 401 की व्याख्या के संदर्भ में एक Landmark Case बन गया है।

निष्कर्ष (Conclusion):

यह स्पष्ट है कि पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय विधि के इतिहास में एक प्रगतिशील और मानवीय दृष्टिकोण वाला फैसला है।

इस निर्णय से यह सिद्ध हो गया कि —

  • न्यायालय का मूल उद्देश्य सत्य और न्याय की स्थापना है, न कि केवल तकनीकी औपचारिकताओं का पालन।
  • अभियुक्त की अनुपस्थिति या आत्मसमर्पण न करना न्याय तक पहुंच को बाधित नहीं कर सकता।
  • न्याय का अधिकार (Right to Justice) और न्याय पाने की प्रक्रिया (Due Process of Law) दोनों संविधान के मूल तत्व हैं।

इसलिए, यह फैसला न केवल विधिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक और मानवीय दृष्टिकोण से भी ऐतिहासिक (Landmark) कहा जा सकता है।

“न्याय का द्वार सबके लिए खुला होना चाहिए —
चाहे अभियुक्त जेल में हो या आज़ाद,
न्याय उसका संवैधानिक अधिकार है।”


संदर्भ (References):

  1. Code of Criminal Procedure, 1973 – Sections 397 & 401
  2. Constitution of India – Article 21
  3. Bani Singh v. State of U.P., (1996) 4 SCC 720
  4. K.S. Panduranga v. State of Karnataka, (2013) 3 SCC 721
  5. Shyam Deo Pandey v. State of Bihar, (1971) 1 SCC 855
  6. Dayanand v. State of Haryana, Punjab & Haryana High Court, 2024