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. “न्याय प्रक्रिया में लचीलापन आवश्यक: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा – आदेश 8 नियम 1 सीपीसी अनिवार्य नहीं”

“गैर-वाणिज्यिक विवादों में विलंब स्वीकार करने का न्यायालय का विवेकाधिकार सुरक्षित: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा—अनसंशोधित आदेश 8 नियम 1 सीपीसी अनिवार्य नहीं बल्कि निर्देशात्मक प्रकृति का है”


प्रस्तावना

सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure, 1908 – CPC) भारतीय दीवानी न्याय व्यवस्था की रीढ़ है, जो न केवल दीवानी मामलों की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है, बल्कि न्याय के समयबद्ध और निष्पक्ष वितरण को भी सुनिश्चित करती है। इसी संहिता का Order 8 Rule 1 प्रतिवादी (defendant) द्वारा लिखित कथन (written statement) दाखिल करने की समय-सीमा से संबंधित है। वर्षों से इस प्रावधान की व्याख्या को लेकर न्यायालयों में मतभेद रहा है कि क्या यह प्रावधान अनिवार्य (mandatory) है या निर्देशात्मक (directory)

हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि अनसंशोधित (unamended) Order 8 Rule 1 CPC केवल निर्देशात्मक प्रकृति का है और न्यायालय के पास विवेकाधिकार (discretion) है कि वह गैर-वाणिज्यिक (non-commercial) मामलों में लिखित कथन दाखिल करने में हुई देरी को क्षम्य ठहरा सके। यह निर्णय न केवल सिविल प्रक्रिया की व्याख्या के लिए बल्कि न्यायिक विवेक की सीमाओं के निर्धारण के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।


प्रावधान की पृष्ठभूमि: Order 8 Rule 1 CPC

Order 8 Rule 1 CPC यह कहता है कि प्रतिवादी को समन की सेवा के 30 दिनों के भीतर अपना लिखित कथन दाखिल करना होगा। हालांकि, यदि उचित कारण हो तो न्यायालय इस अवधि को अधिकतम 90 दिनों तक बढ़ा सकता है।

यह नियम 2002 के संशोधन (Amendment Act, 2002) के बाद और भी सख्त कर दिया गया था ताकि मुकदमों में देरी को रोका जा सके। परंतु सवाल यह बना रहा कि क्या यह प्रावधान न्यायालय के विवेकाधिकार को सीमित करता है, या फिर न्यायालय परिस्थितियों के अनुसार इसे लचीले रूप में लागू कर सकता है?


विवाद की पृष्ठभूमि

वर्तमान मामले में, वादी (plaintiff) ने यह आपत्ति उठाई कि प्रतिवादी ने अपना written statement निर्धारित समय सीमा से बहुत देर बाद दाखिल किया, इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। प्रतिवादी ने यह तर्क दिया कि देरी तकनीकी कारणों और परिस्थितियोंवश हुई है, तथा न्यायालय के पास देरी को माफ करने का अधिकार है।

यह विवाद इस प्रश्न पर केंद्रित था कि —

“क्या अनसंशोधित Order 8 Rule 1 CPC को अनिवार्य माना जाए, जिससे न्यायालय किसी भी परिस्थिति में समय-सीमा से परे लिखित कथन स्वीकार न कर सके?”


पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का निर्णय

उच्च न्यायालय ने यह कहा कि अनसंशोधित Order 8 Rule 1 CPC को अनिवार्य (mandatory) नहीं बल्कि निर्देशात्मक (directory) माना जाएगा। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी स्पष्ट किया कि:

  1. विलंब को माफ करने का विवेकाधिकार (discretion) न्यायालय के पास रहता है।
  2. यदि कोई पक्ष उचित कारण प्रस्तुत करता है और विलंब न्याय के उद्देश्य को बाधित नहीं करता, तो न्यायालय लिखित कथन स्वीकार कर सकता है।
  3. यह विशेष रूप से गैर-वाणिज्यिक मामलों (non-commercial suits) में लागू होगा, जहाँ न्यायिक प्रक्रिया में लचीलापन आवश्यक है।
  4. केवल वाणिज्यिक विवादों (commercial disputes) में, जहाँ CPC में विशेष रूप से कठोर समय-सीमा दी गई है, न्यायालय की शक्तियाँ सीमित होती हैं।

न्यायालय द्वारा उद्धृत प्रमुख न्यायिक दृष्टांत

न्यायालय ने अपने निर्णय में कई प्रमुख फैसलों का उल्लेख किया, जिनमें से कुछ उल्लेखनीय हैं:

  1. Kailash v. Nanhku (2005) 4 SCC 480
    सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि Order 8 Rule 1 CPC निर्देशात्मक है, न कि अनिवार्य। इसका उद्देश्य मुकदमे में देरी रोकना है, लेकिन न्यायालय का विवेकाधिकार समाप्त नहीं होता।
  2. Salem Advocate Bar Association (II) v. Union of India (2005) 6 SCC 344
    इसमें भी यह कहा गया कि यदि देरी उचित कारणों से हुई है, तो न्यायालय को यह अधिकार है कि वह लिखित कथन स्वीकार करे।
  3. SCG Contracts India Pvt. Ltd. v. K.S. Chamankar Infrastructure Pvt. Ltd. (2019) 12 SCC 210
    हालांकि यह निर्णय वाणिज्यिक विवादों से संबंधित था, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि Commercial Courts Act, 2015 के बाद 120 दिनों से अधिक की देरी स्वीकार नहीं की जा सकती।

    इस प्रकार, गैर-वाणिज्यिक मामलों में स्थिति अलग है।


न्यायालय का तर्क

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह कहा कि न्यायिक प्रणाली का मुख्य उद्देश्य न्याय का प्रशासन है, न कि तकनीकी कारणों से किसी पक्ष को बाहर करना।

“Justice is not to be sacrificed at the altar of procedural technicalities.”

न्यायालय ने यह भी कहा कि सिविल मामलों में, विशेष रूप से पारिवारिक, संपत्ति, या अनुबंध से संबंधित विवादों में, कभी-कभी परिस्थितियोंवश देरी हो जाती है — जैसे कि वकील की बीमारी, दस्तावेजों की अनुपलब्धता, या समन की अनुचित सेवा। ऐसे मामलों में, यदि वादी को कोई वास्तविक हानि नहीं हुई है, तो न्यायालय को विवेक का प्रयोग कर देरी स्वीकार करनी चाहिए।


वाणिज्यिक बनाम गैर-वाणिज्यिक मामलों में अंतर

न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि:

  • वाणिज्यिक मामलों में (जैसे कंपनी विवाद, अनुबंधों की बड़ी डील्स आदि), न्यायालय को सख्त समय-सीमा का पालन करना चाहिए क्योंकि ये विवाद आर्थिक लेनदेन से संबंधित हैं।
  • परंतु गैर-वाणिज्यिक मामलों (जैसे संपत्ति, उत्तराधिकार, वैवाहिक विवाद) में लचीलापन आवश्यक है, ताकि न्याय के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति हो सके।

इसलिए, अनसंशोधित Order 8 Rule 1 CPC का अनुपालन अनिवार्य नहीं, बल्कि न्यायालय के विवेकाधिकार के अधीन होगा।


न्यायिक विवेक की सीमाएँ

यद्यपि न्यायालय ने विवेकाधिकार को मान्यता दी, परंतु यह भी कहा कि विवेक अनुशासनहीनता का उपकरण नहीं बन सकता।

  • यदि कोई पक्ष जानबूझकर देरी करता है,
  • या प्रक्रिया में दुरुपयोग करता है,
  • या अनावश्यक रूप से मुकदमे की गति को धीमा करता है,
    तो न्यायालय ऐसे मामलों में विलंब को स्वीकार नहीं करेगा।

इस प्रकार, विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायसंगत, तार्किक और उद्देश्यपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए।


निर्णय का प्रभाव

यह निर्णय भारतीय सिविल प्रक्रिया के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि:

  1. न्यायालय का विवेकाधिकार सिविल मामलों में अब भी विद्यमान है।
  2. तकनीकी विलंब न्याय के मार्ग में बाधा नहीं बन सकता।
  3. न्यायालय की प्राथमिकता न्याय की उपलब्धि है, न कि मात्र समय-सीमा का पालन।

इसके परिणामस्वरूप, अब वादियों और प्रतिवादियों दोनों को यह सुविधा प्राप्त होगी कि वे उचित कारणों के साथ अपनी देरी को न्यायालय में न्यायसंगत ठहरा सकें।


विवेचनात्मक दृष्टिकोण

कानूनी दृष्टि से यह निर्णय न्यायालय की प्रो-न्यायिक दृष्टि (pro-justice approach) को दर्शाता है। भारतीय न्यायिक परंपरा में हमेशा यह माना गया है कि “Procedure is the handmaid of justice, not its mistress.”

यह निर्णय न्यायालयों को इस संतुलन को बनाए रखने में सहायता करता है —
जहाँ एक ओर मुकदमों में देरी पर नियंत्रण हो, वहीं दूसरी ओर तकनीकी कारणों से किसी पक्ष को न्याय से वंचित न किया जाए।


निष्कर्ष

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय न केवल सिविल प्रक्रिया संहिता की व्याख्या के लिए मार्गदर्शक है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्यायालय का उद्देश्य केवल प्रक्रियागत औपचारिकता नहीं, बल्कि वास्तविक न्याय (substantial justice) की प्राप्ति है।

इस निर्णय से यह सिद्ध हुआ कि:

  • अनसंशोधित Order 8 Rule 1 CPC निर्देशात्मक है,
  • न्यायालय के पास विवेकाधिकार सुरक्षित है,
  • और गैर-वाणिज्यिक विवादों में देरी स्वीकार करने का निर्णय न्याय के उद्देश्य से ही जुड़ा है।

यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली की उस बुनियादी भावना को पुनः जीवित करता है कि —

“न्याय केवल कानून के अक्षर में नहीं, बल्कि उसके उद्देश्य में निहित है।”