“न्याय नहीं मिला तो आरोप मत लगाओ – सुप्रीम कोर्ट ने वादियों और वकीलों को दी नसीहत”
भारत की न्यायप्रणाली में बड़ी चिंता का विषय बन रहा है: जब वादी एवं उनके अधिवक्ता को अपने पक्ष में न्याय न मिलने पर सीधे न्यायाधीश पर ‘स्कैंडलस’ और ‘स्करुलस’ (अशोभनीय) आरोप लगाने लगते हैं। ये ताज़ा मुद्दा सामने आया है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवृत्ति पर “गंभीर चिंता” जाहिर की है और कहा है कि इस तरह का व्यवहार न्यायपालिका की गरिमा एवं सार्वजनिक विश्वास को कमजोर करता है।
इस लेख में हम इस घटना-परिस्थिति, कारणों, न्यायिक दृष्टिकोण और इसके प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
घटना-वृतांत
इस मामले में मुख्य रूप से निम्नलिखित तथ्य सामने आए हैं:
- एक वादी N Peddi Raju तथा उसके दो अधिवक्ताओं ने Justice Moushumi Bhattacharya (Telangana High Court की न्यायमूर्ति) के विरुद्ध उसी अदालत से मामले को स्थानांतरित करने हेतु याचिका दाखिल की। इसके साथ-साथ उन्होंने न्यायमूर्ति पर पूर्वाग्रह एवं अनुचित व्यवहार के आरोप भी लगाए।
- इस याचिका के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वयंमोद्देश्य (suo motu) रूप से तुरंत प्रतिवाद किया कि इस प्रकार के आरोप “स्कैंडलस” एवं “स्करुलस” हैं, और वादी एवं अधिवक्ताओं को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया।
- बाद में न्यायमूर्ति भट्टाचार्य ने उस याचिका में लगाए गए आरोपों के संबंध में माफी स्वीकार की। इसकी जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दी गई।
- सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसकी अध्यक्षता B.R. Gavai मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति K Vinod Chandran ने की थी, ने माफी स्वीकार करते हुए मामला बंद कर दिया। लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट किया कि इस प्रकार की प्रक्रिया “मजबूती से अस्वीकृत” होनी चाहिए।
- अदालत ने विशेष रूप से यह कहा:
“In the recent past, we have noticed a growing trend of making scurrilous and scandalous allegations against a judge when they don’t pass favourable orders. Such a practice needs to be strongly deprecated.”
- तथा यह भी कहा गया कि अधिवक्ताओं को “अदालत के अधिकारी” (officers of the Court) होने के नाते याचिकाओं या दायर दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए, विशेष रूप से जब उसमें न्यायाधीश पर आरोप हों।
न्यायिक दृष्टिकोण एवं आदेश की विवेचना
इस घटना और सुप्रीमो कोर्ट के आदेश से कुछ महत्वपूर्ण बिंदु समझे जा सकते हैं:
- न्यायपालिका की गरिमा तथा सार्वजनिक विश्वास
अदालत ने यह स्वीकार किया कि न्यायाधीशों पर बेहिसाब, बिना आधार के आरोप लगाने से न्यायपालिका की गरिमा और जनता का उसके प्रति विश्वास दोनों प्रभावित होते हैं। - अधिवक्ताओं की जिम्मेदारी
अधिवक्ता केवल वादी-प्रतिवादी के प्रतिनिधि नहीं हैं; उन्हें अदालत के प्रति अपना दायित्व समझना है। याचिकाओं पर हस्ताक्षर करते तथा प्रस्तुत करते समय उन्हें यह सुनिश्चित करना है कि आरोप प्रमाण-हीन, अपमानजनक तथा न्यायाधीश की छवि क्षुण्ण करने वाले न हों। - माफी एवं क्षमाशीलता का महत्व
अदालत ने यह भी कहा कि न्याय का साम्राज्य (majesty of law) सिर्फ दंड-प्रक्रिया में नहीं है, बल्कि माफी स्वीकार करना और आगे बढ़ना भी उसकी शक्ति है। इस आधार पर माफी स्वीकार होने पर मामला बंद किया गया। - नए चेतावनी-मानदंड
इस आदेश के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट संकेत दिया है कि अब इस तरह की दायरियों को हल्के में नहीं लिया जाएगा। भविष्य में, अधिवक्ताओं और वादियों के लिए यह तमगा रहेगा कि वे आरोप-पत्रों में न्यायाधीश-फोकस्ड अपमानजनक भाषा न उपयोग करें।
इस प्रवृत्ति के कारण एवं विश्लेषण
यह प्रश्न उठता है — आखिर क्यों ऐसा बढ़ता जा रहा है कि वादियों या उनके अधिवक्ताओं द्वारा न्यायाधीशों पर तुरंत आरोप लगाए जाते हैं जब निर्णय उनके पक्ष में नहीं आता? इसके लिये कुछ कारण व विश्लेषण निम्नलिखित हैं:
- आदेश-निराशा
जब कोई वादी अपने पक्ष में निर्णय नहीं पाता, तो अक्सर उसे लगता है कि न्याय नहीं हुआ। इसी निराशा में न्यायाधीश पर पूर्वाग्रह या अन्य अनुचित धारणाएँ लगाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। - मीडिया एवं सोशल-मीडिया प्रभाव
आज का युग ऐसे याचिका-पत्रों को मीडिया में फैलने का अवसर देता है। “मीडिया ट्रायल” की प्रवृत्ति और सोशल-मीडिया पर वायरल होने की संभावना वादियों को आरोप लगाने के लिये प्रेरित करती है। - अनुभव की कमी / अधिवक्ताओं की उत्तेजना
कभी-कभी अधिवक्ताओं द्वारा याचिकाएँ तैयार करते समय ‘सिर्फ जोरदार आरोप लगाना’ फोकस बन जाता है बजाय ठोस तर्क एवं साक्ष्य प्रस्तुत करने के। यह प्रक्रिया न्याय-उपाय के दृष्टिकोण से भी उचित नहीं। - न्यायिक निर्णयों के प्रति असंतुष्टि का खुलासा तरीका
सामना करने वाले पक्ष को लगता है- यदि न्यायाधीश उनके पक्ष में न आए, तो आरोप लगाना ही शेष रास्ता रह गया है। यह एक तरह से निष्क्रिय प्रतिकार का माध्यम बन जाता है। - सिस्टमिक भरोसा-घाटा
यदि वादी-समाज में यह धारणा बन जाए कि न्यायाधीश किसी तरह पक्षपाती हैं या निर्देशित हैं, तो आरोप लगाना-लगाना आसान हो जाता है। इससे एक चक्र बन जाता है- आरोप → विश्वास-घाटा → नए आरोप।
संभावित दुष्प्रभाव
इस तरह की प्रवृत्ति के अनेक नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं:
- न्यायपालिकामाथा का ह्रास: न्यायाधीश-विरोधी आरोपों से उनकी निष्ठा एवं निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं, और न्यायपालिका का सार्वजनिक सम्मान गिर सकता है।
- भ्रांतिप्रसार और झूठे दावा: आधार हीन और अत्यधिक आरोप वादियों को अस्वास्थ्यकर विश्वास दे सकते हैं कि हर असमर्थ निर्णय बाद में ‘रद्द’ किया जा सकता है।
- अधिवक्ता-दायित्व का उल्लंघन: अगर अधिवक्ता केवल आरोप लगाते रहेंगे, ठोस तर्क नहीं रखेंगे, तो उनकी पेशेवर गरिमा प्रभावित हो सकती है।
- न्याय प्रक्रिया का विलंब: आरोपों एवं प्रतिरूपों-पर आधारित याचिकाएँ मुद्दों को विचलित कर सकती हैं, मुख्य तथ्य-सुनवाई से ध्यान भटका सकती हैं।
- पक्षपाती प्रतिकार का रास्ता: यदि आरोप लगाने का चलन बढ़ेगा, तो न्यायाधीशों पर ‘भय’ भी बढ़ सकता है कि निर्णय के बाद उन्हें प्रतिकूल प्रतिक्रिया का सामना करना पड़े-जिससे निष्पक्ष निर्णय-प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है।
भविष्य-का दायित्व एवं सुधार-मंच
इस मामले से यह निष्कर्ष निकलता है कि न्यायप्रणाली, अधिवक्ता-समुदाय और वादी-समाज सभी को मिलकर इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करना होगा। इसके लिये कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं:
- अधिवक्ताओं के लिए शिक्षा एवं जागरूकता
अधिवक्ता-बोर्ड्स या बार एसोसिएशन्स को इस दिशा में प्रशिक्षण तथा वर्कशॉप आयोजित करनी चाहिए, जिसमें वाद अभिव्यक्ति-शैली, आरोप लगाने की सीमा एवं पेशेवर दायित्वों पर बल हो। - याचिकाएँ तैयार करते समय सावधानी
वादी और अधिवक्ता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी न्यायाधीश पर आरोप लगाने से पहले पर्याप्त तर्क, साक्ष्य और न्याय-संख्या (judicial precedent) तैयार हो। आरोप मात्र निराकरण को स्थगित नहीं कर सकते। - न्यायपालिकाओं का उत्तरदायित्व
न्यायाधीशों को भी यह स्पष्ट करना चाहिए कि पब्लिक-ट्रस्ट (public trust) बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। यदि न्यायाधीश द्वारा ऐसी माफी स्वीकार की जाती है, जैसा इस मामले में हुआ, तो यह संकेत है कि न्यायपालिका खुली है लेकिन साथ ही-साथ अपेक्षा है कि आरोप-पत्र ठोस हों। - माध्यमों की भूमिका
मीडिया तथा सोशल-मीडिया प्लेटफॉर्म्स को यह समझना होगा कि न्याय-संस्था के विरुद्ध आरोपों को sensationalise करना-पब्लिश करना कितना खतरनाक हो सकता है। वे जिम्मेदार रिपोर्टिंग द्वारा इस प्रवृत्ति को नियंत्रित कर सकते हैं। - निगरानी एवं नियम-निर्धारण
बार Councils और न्यायपालिका मिलकर यह तय कर सकते हैं कि ऐसे मामले जहाँ आरोप-पत्र “स्कैंडलस” हों, उन्हें शीघ्र देखते हुए आवश्यक कार्रवाई हो, ताकि ऐसी प्रवृत्ति को रोकने का संदेश मिले।
निष्कर्ष
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह स्पष्ट निर्देश है- उत्तराधिकारी निर्णय न मिलने पर न्यायाधीश पर सीधे अपमानजनक, आरोपपूर्ण याचिकाएँ दाखिल करना न केवल अनुचित है बल्कि न्यायप्रणाली की आत्मा के विरुद्ध भी है। इस प्रवृत्ति को “मजबूती से अस्वीकार” किया जाना चाहिए।
हमारे वकील-समुदाय, न्यायिक संस्थान तथा न्याय के साधक-सर्वराहक मिलकर यह सुनिश्चित करें कि न्याय केवल दिया ही नहीं जाए, बल्कि प्रतिष्ठित तरीके से दिया जाए—जहाँ आरोप-पत्रों का आधार हो, तर्क हो, टिकाऊ साक्ष्य हो, और सबसे महत्वपूर्ण—मानव गरिमा, न्यायाधीश की गरिमा एवं न्यायिक प्रक्रिया की गरिमा बनी रहे।