न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक अतिक्रमणः लोकतंत्र में न्यायपालिका की सीमाएं और संभावनाएं
भूमिका:
भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभ — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — संविधान द्वारा परिभाषित शक्तियों और सीमाओं के भीतर कार्य करते हैं। किंतु जब न्यायपालिका, विशेष रूप से उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है, तब यह बहस उठती है कि क्या यह “न्यायिक सक्रियता” है या “न्यायिक अतिक्रमण”? इस लेख में हम इस जटिल विषय की वैधानिक, नैतिक और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से विवेचना करेंगे।
न्यायिक सक्रियता की अवधारणा:
न्यायिक सक्रियता का तात्पर्य है न्यायपालिका द्वारा संविधान की भावना के अनुरूप सामाजिक न्याय, पर्यावरणीय संरक्षण, मानवाधिकारों की रक्षा और कार्यपालिका की निष्क्रियता के विरुद्ध निर्णय देना। यह विधायिका की चूक की भरपाई का एक संवैधानिक तरीका है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय जैसे – विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, हुसैनआरा खातून बनाम बिहार राज्य, मनु शर्मा केस, आदि न्यायिक सक्रियता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
न्यायिक अतिक्रमण की आशंका:
जब न्यायपालिका नीति-निर्माण या प्रशासनिक कार्यों में सीधे हस्तक्षेप करने लगे, तब उसे न्यायिक अतिक्रमण कहा जाता है। उदाहरणतः – न्यायपालिका द्वारा शिक्षा के पाठ्यक्रम तय करना, पर्यावरणीय नियामक संस्थाएं गठित करना या कार्यकारी आदेशों को पुनः निर्मित करना — ये सब अतिक्रमण की श्रेणी में आ सकते हैं।
संविधानिक दृष्टिकोण:
संविधान का अनुच्छेद 32 और 226 नागरिकों को मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय की शरण लेने की अनुमति देता है। यह न्यायपालिका को सशक्त बनाता है कि वह नागरिक हित में कार्य करे। लेकिन अनुच्छेद 50 में शक्ति पृथक्करण की अवधारणा भी स्पष्ट की गई है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी अंग अपनी सीमा न लांघे।
न्यायिक सक्रियता के लाभ:
- जनहित याचिकाओं (PILs) के माध्यम से गरीबों और वंचितों की आवाज़ को न्यायपालिका ने स्वर दिया।
- कार्यपालिका की निष्क्रियता और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का प्रभावी माध्यम।
- पर्यावरण संरक्षण, महिला अधिकार, बाल श्रम, जेल सुधार जैसे क्षेत्रों में क्रांतिकारी निर्णय।
न्यायिक अतिक्रमण के खतरे:
- लोकतंत्र में शक्ति संतुलन को खतरा।
- कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका सीमित होना।
- न्यायपालिका की वैधानिक वैधता पर प्रश्न।
- नीति निर्माण और संसाधन आवंटन जैसे कार्य, न्यायिक कौशल के दायरे से बाहर माने जाते हैं।
प्रसिद्ध उदाहरण:
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को निरस्त करने का निर्णय न्यायिक सक्रियता का एक बड़ा उदाहरण था, जिसे कुछ विशेषज्ञों ने न्यायिक अतिक्रमण भी कहा।
- सबरिमाला मंदिर मामला में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति ने धार्मिक स्वतंत्रता बनाम लैंगिक समानता की बहस को जन्म दिया।
संतुलन की आवश्यकता:
सभी संवैधानिक संस्थाओं को एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र का सम्मान करना चाहिए। न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह संविधान की रक्षा करे, लेकिन उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि वह नीति निर्माण या प्रशासनिक कार्यों में अकारण हस्तक्षेप न करे। न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) और न्यायिक सक्रियता के बीच सूक्ष्म अंतर को समझना अति आवश्यक है।
निष्कर्ष:
न्यायिक सक्रियता भारतीय लोकतंत्र के लिए एक मजबूत स्तंभ है, किंतु यह सीमाओं के भीतर रहनी चाहिए। न्यायपालिका को जनहित में कार्य करते हुए संविधान की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। यदि न्यायिक सक्रियता सीमाओं को पार करती है, तो यह न्यायिक अतिक्रमण बन जाती है जो लोकतंत्र के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है।