शीर्षक:
“न्यायिक प्रक्रियाओं का मकसद न्याय है, न कि दंडः राजस्थान हाई कोर्ट ने वकील की लापरवाही से हुई अपील खारिजी को निरस्त किया”
भूमिका:
भारतीय न्याय प्रणाली की आत्मा “न्याय” है, और तकनीकी प्रक्रियाएं केवल उस तक पहुँचने का माध्यम। राजस्थान हाई कोर्ट ने इसी सिद्धांत को पुनः पुष्ट करते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि किसी पक्षकार को उसके वकील की लापरवाही के कारण सजा नहीं भुगतनी चाहिए। यह फैसला एक ऐसे मामले में आया जिसमें अपीलकर्ता के वकील की गैरहाज़िरी के चलते धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act) के अंतर्गत दोषसिद्धि के विरुद्ध की गई अपील खारिज कर दी गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि:
- अपीलकर्ता को धारा 138 एन.आई. एक्ट (चेक बाउंस) के तहत दोषी ठहराया गया था।
- दोषसिद्धि के विरुद्ध सत्र न्यायालय में अपील दायर की गई, परंतु अपीलकर्ता के वकील की गैरहाज़िरी के कारण अपील को बिना गुण-दोष की सुनवाई के खारिज कर दिया गया।
- साथ ही, गिरफ्तारी वारंट भी जारी कर दिया गया।
- अपीलकर्ता ने राजस्थान हाई कोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन याचिका दायर कर चुनौती दी कि अपील को केवल अनुपस्थिति के आधार पर खारिज करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।
कोर्ट का निर्णय:
- न्यायालय ने सत्र न्यायालय के आदेश को “यांत्रिक और सतही” (mechanical and cursory) करार दिया।
- कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अपील को केवल गैर-हाजिरी के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि उसे गुण-दोष के आधार पर तय किया जाना चाहिए।
- कोर्ट ने कहा कि –
“वकील की लापरवाही का खामियाज़ा पक्षकार को नहीं भुगतना चाहिए।”
- कोर्ट ने कहा कि यह आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है और इसलिए निरस्त किया जाता है।
- मामला वापस अपील न्यायालय को सौंप दिया गया, ताकि दोषसिद्धि पर विधिक और उचित सुनवाई हो सके।
प्रासंगिक विधिक प्रावधान:
- धारा 5, लिमिटेशन एक्ट – देरी को न्यायोचित ठहराने की गुंजाइश।
- धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम – चेक बाउंस की सजा।
- सीआरपीसी धारा 385 और 386 – अपीलीय प्रक्रिया और अपीलों पर निर्णय देने की प्रक्रिया।
- प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत – बिना सुनवाई के सजा नहीं दी जा सकती (audi alteram partem)।
महत्व और प्रभाव:
- यह निर्णय न्यायालयों की मानव-केंद्रित और न्याय-प्रेरित सोच को रेखांकित करता है।
- यह स्पष्ट करता है कि न्याय तकनीकी त्रुटियों से ऊपर है, और गुण-दोष पर आधारित निर्णय ही सच्चा न्याय है।
- इससे भविष्य में अदालतों को यह मार्गदर्शन मिलेगा कि मूल्यांकन न्याय के आधार पर हो, न कि वकील की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर।
- यह उन हजारों मामलों के लिए एक मिसाल बनेगा जहाँ न्यायिक चूक या प्रतिनिधित्व की असफलता के कारण पक्षकार पीड़ित होते हैं।
निष्कर्ष:
राजस्थान हाई कोर्ट का यह निर्णय हमें यह याद दिलाता है कि न्याय की आत्मा कानून के अक्षरों से कहीं बड़ी होती है। जब प्रक्रिया न्याय को दबाने लगे, तब न्यायिक विवेक ही उस प्रक्रिया को सुधारने का मार्ग प्रशस्त करता है। यह निर्णय केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरे विधिक तंत्र की मर्यादा और उद्देश्य के लिए एक प्रेरणा है।