“न्यायिक परिपक्वता और बच्चों की अभिरक्षा: बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका केवल असाधारण परिस्थितियों में”

“न्यायिक परिपक्वता और बच्चों की अभिरक्षा: बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका केवल असाधारण परिस्थितियों में”
(Pinki Rani v. State of Haryana & Others, 2025 PbHr CRWP-4478-2025)


📌 विषय प्रवेश (Introduction):

बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका (Writ of Habeas Corpus) भारतीय संविधान का एक मौलिक उपकरण है जिसका प्रयोग अवैध हिरासत से व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने हेतु किया जाता है। जब यह याचिका नाबालिग बच्चों की अभिरक्षा (custody) के संदर्भ में दाखिल की जाती है, तब न्यायालय इस अधिकार का प्रयोग बहुत ही सावधानीपूर्वक करता है।

इस निर्णय में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका पारिवारिक विवादों में ‘सामान्य उपाय’ के स्थान पर नहीं लाई जा सकती।


📜 केस की पृष्ठभूमि (Background of the Case):

  • वादिनी Pinki Rani ने हबीयस कॉर्पस की याचिका दायर की थी, जिसमें दावा किया गया कि उसके नाबालिग बच्चे की अवैध अभिरक्षा उसके पति या ससुराल पक्ष द्वारा की गई है।
  • उन्होंने न्यायालय से अनुरोध किया कि बच्चे को उसके पास वापस लाया जाए क्योंकि उसकी हिरासत अवैध और अनुचित है।

⚖️ न्यायालय का निर्णय (Court’s Decision):

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिंदु रखे:

  1. हबीयस कॉर्पस एक विशिष्ट (prerogative) उपाय है, जिसका उपयोग केवल तब होता है जब किसी व्यक्ति (यहाँ, नाबालिग बच्चे) को स्पष्ट रूप से अवैध या अनधिकृत रूप से हिरासत में रखा गया हो
  2. पारिवारिक विवादों या अभिरक्षा के दावों में, यदि मामला दीवानी या पारिवारिक न्यायालय के अधीन लाया जा सकता है, तो हबीयस कॉर्पस याचिका विकल्प नहीं बन सकती।
  3. इस मामले में कोई स्पष्ट अवैधता या असंवैधानिक हिरासत सिद्ध नहीं हो पाई।
  4. न्यायालय ने यह दोहराया कि बाल हित सर्वोपरि है, परंतु इसका मूल्यांकन पारिवारिक न्यायालय द्वारा साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए।

🧠 विधिक विश्लेषण (Legal Analysis):

  • बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus under Article 226/32) का मूल उद्देश्य किसी व्यक्ति को अवैध रूप से रोके जाने से मुक्त कराना है।
  • Minor custody के मामलों में यह उपाय केवल तभी स्वीकार्य होता है जब:
    ✅ हिरासत स्पष्ट रूप से गैरकानूनी हो
    ✅ या बच्चा जबरदस्ती या धोखे से दूर किया गया हो
    ❌ न कि महज़ माता-पिता के बीच विवाद के कारण
  • यह याचिका Ordinary civil remedies जैसे Guardians and Wards Act, 1890 या Hindu Minority and Guardianship Act, 1956 के स्थान पर प्रयुक्त नहीं की जा सकती।

📚 संबंधित न्याय दृष्टांत (Precedents):

  1. Tejaswini Gaud v. Shekhar Jagdish Prasad Tewari, (2019) 7 SCC 42:
    • Supreme Court ने कहा कि बच्चे की हिरासत से संबंधित हबीयस कॉर्पस याचिका तभी स्वीकार्य होगी जब हिरासत स्पष्ट रूप से गैरकानूनी हो।
  2. Roxann Sharma v. Arun Sharma, (2015) 8 SCC 318:
    • बच्चे का सर्वोत्तम हित प्राथमिक है, लेकिन इसका निर्धारण उचित न्यायिक प्रक्रिया द्वारा किया जाना चाहिए।

📌 निष्कर्ष (Conclusion):

Pinki Rani v. State of Haryana का निर्णय एक महत्वपूर्ण संदेश देता है:
बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका बच्चों की अभिरक्षा के मामलों में केवल “असाधारण परिस्थितियों” में ही उपयुक्त होती है।
❌ यदि हिरासत दीवानी या वैधानिक रूप से विवादित हो, और उसमें अवैधता सिद्ध नहीं हो, तो उच्च न्यायालय इस याचिका को नहीं स्वीकार करेगा।
⚖️ न्यायालय का ध्यान इस बात पर केंद्रित होता है कि क्या बच्चा सुरक्षित है और उसका हित कहाँ सर्वोपरि है।


💡 व्यावहारिक शिक्षा (Practical Takeaways):

  • यदि आप बच्चे की अभिरक्षा चाहते हैं, तो Family Court या Guardianship Court का सहारा लें।
  • हबीयस कॉर्पस की याचिका तभी दायर करें जब बच्चे को स्पष्ट रूप से अवैध हिरासत में रखा गया हो, जैसे— अपहरण, जबरन अलगाव, या माता-पिता की अनुमति के बिना छुपाया जाना।
  • बच्चों की अभिरक्षा से जुड़ी हर याचिका में “Best Interest of the Child” सर्वोपरि होता है।