न्यायिक निर्णयों में ‘दया’ बनाम ‘न्याय’: किसका पलड़ा भारी?

न्यायिक निर्णयों में ‘दया’ बनाम ‘न्याय’: किसका पलड़ा भारी?

भारतीय न्याय प्रणाली का मूल उद्देश्य “न्याय का वितरण” है, लेकिन इसके रास्ते में कई बार “दया” की भावना हस्तक्षेप करती है। न्यायपालिका के समक्ष जब कोई गंभीर अपराधी खड़ा होता है, तो एक ओर कानूनी सिद्धांतों का पालन करना होता है और दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं, दया, सुधार की संभावना और सामाजिक प्रभावों पर विचार करना होता है। यह लेख उसी जटिल द्वंद्व — ‘दया’ बनाम ‘न्याय’ — को विस्तार से समझने का प्रयास करता है।

दया: न्याय से परे एक मानवीय दृष्टिकोण

दया एक मानवीय मूल्य है, जो अपराध के पीछे के सामाजिक और मानसिक कारकों को ध्यान में रखता है। कई बार न्यायालय यह मानते हैं कि एक अपराधी में सुधार की संभावना है या वह परिस्थितियों का शिकार था, न कि स्वेच्छिक अपराधी। विशेष रूप से किशोर अपराध, मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति या पहली बार अपराध करने वालों के मामलों में न्यायपालिका दया दिखाती है। यह दया, ‘पुनर्वास’ की अवधारणा के अंतर्गत आती है, जिसका उद्देश्य अपराधी को समाज की मुख्यधारा में लौटाना होता है।

न्याय: कानून का कठोर अनुपालन

न्याय का अर्थ होता है, कानून के अनुरूप उचित दंड या राहत प्रदान करना, भले ही उसमें कठोरता क्यों न हो। पीड़ितों को न्याय तभी मिलता है जब दोषी को दंडित किया जाता है। यदि न्यायपालिका हर मामले में दया दिखाने लगे, तो यह पीड़ित के अधिकारों का उल्लंघन होगा और कानून के प्रति जनता का विश्वास कमजोर होगा। न्याय का पलड़ा तब भारी होता है, जब अपराध अत्यंत गंभीर हो — जैसे हत्या, बलात्कार, आतंकवाद या भ्रष्टाचार।

सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि

सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में यह स्पष्ट किया है कि दया के नाम पर न्याय से समझौता नहीं किया जा सकता। Machhi Singh v. State of Punjab (1983) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब अपराध बर्बर और समाज को झकझोरने वाला हो, तब दया दिखाना गलत संदेश देता है। वहीं, Kehar Singh v. Union of India (1989) में कोर्ट ने राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान देने के अधिकार को भी सीमित नहीं किया, यह कहते हुए कि यह ‘दया’ के संवैधानिक सिद्धांत का हिस्सा है।

दया और न्याय के बीच संतुलन

कई बार न्यायिक निर्णय दोनों तत्वों का संतुलन साधते हैं — जैसे कि आजीवन कारावास देकर मृत्युदंड से बचाना। यह न तो पूर्ण न्याय होता है और न ही केवल दया। पुनः अपराध करने की संभावना, अपराध की प्रकृति, पीड़ित की स्थिति और समाज पर प्रभाव जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए न्यायपालिका संतुलन साधती है।

चुनौतियां और आलोचनाएं

जब न्यायालय दया के आधार पर दोषियों को कम दंड देते हैं, तब जनता में रोष पैदा होता है। लोग इसे ‘न्याय का मज़ाक’ मानते हैं। दूसरी ओर, अगर न्याय बहुत कठोर हो, तो यह मानवाधिकारों के उल्लंघन जैसा प्रतीत हो सकता है। इस द्वंद्व का हल तब संभव है जब न्यायिक व्यवस्था संवेदनशीलता के साथ कानून का पालन करे।

निष्कर्ष

‘दया’ और ‘न्याय’ दोनों ही न्यायिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं। परंतु, इनका अनुपात हर मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना होता है कि दया के नाम पर अपराधी को गलत तरीके से राहत न मिले और न्याय के नाम पर मानवीय मूल्यों की बलि न चढ़े। अंततः, न्याय का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि समाज में संतुलन और विश्वास बनाए रखना भी है। इसी संतुलन में निहित है एक परिपक्व और प्रगतिशील न्याय प्रणाली का भविष्य।