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“न्यायालय ने कहा: कानून सुरक्षा के लिए है, प्रतिशोध के लिए नहीं — झूठे दहेज उत्पीड़न मामलों पर टिप्पणी”

पत्नी के प्रति क्रूरता के मामले में ससुराल पक्ष को राहत — पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने धारा 406 व 498-A के तहत दर्ज एफआईआर रद्द की”


भूमिका

भारतीय समाज में विवाह एक पवित्र संस्था मानी जाती है, लेकिन जब इस संस्था के भीतर असहमति, अविश्वास या झूठे आरोपों की दीवार खड़ी हो जाती है, तो यह न केवल पति-पत्नी के बीच के रिश्ते को बल्कि उनके परिवारों को भी प्रभावित करती है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A और 406 का उद्देश्य महिलाओं को दहेज उत्पीड़न या क्रूरता से बचाना है, परंतु समय-समय पर इन धाराओं का दुरुपयोग भी सामने आया है। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण मिसाल प्रस्तुत करता है, जहाँ अदालत ने पाया कि पति के परिजनों के विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष आरोप नहीं था और एफआईआर केवल सामान्य व अस्पष्ट आरोपों पर आधारित थी।


मामले की पृष्ठभूमि

इस प्रकरण में शिकायतकर्ता पत्नी ने अपने पति और उसके परिवार के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A (पत्नी के प्रति क्रूरता) और धारा 406 (विश्वासभंग के अपराध) के तहत मामला दर्ज कराया था। आरोप लगाया गया कि विवाह के पश्चात ससुराल पक्ष ने दहेज की मांग की, मानसिक उत्पीड़न किया और उसके गहने व उपहार वस्तुएँ वापस नहीं कीं।

हालाँकि, अदालत के समक्ष यह तथ्य प्रस्तुत किया गया कि पति और पत्नी कुछ समय तक भारत में रहे थे और उस अवधि में किसी भी प्रकार का matrimonial dispute या विवाद दर्ज नहीं हुआ था। इसके बाद दोनों विदेश चले गए, जहाँ उनका संबंध खराब हुआ। पत्नी ने भारत लौटने के बाद अपने पति और ससुराल पक्ष के सभी सदस्यों — जिनमें देवर, देवरानी, सास-ससुर तक शामिल थे — के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई।


मुख्य तर्क और प्रतिवाद

याचिकाकर्ताओं (ससुराल पक्ष) का तर्क:

  1. शिकायत में लगाए गए आरोप सामान्य हैं, किसी विशेष घटना या तारीख का उल्लेख नहीं है।
  2. शिकायतकर्ता के साथ कोई विवाद भारत में नहीं हुआ, अतः यह मामला भारत के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।
  3. एफआईआर केवल पति पर लगाए जाने वाले आरोपों को अनुचित रूप से पूरे परिवार पर थोपने का प्रयास है।
  4. कई परिजन विदेश में रहते हैं या अलग शहरों में रहते हैं, इसलिए उनके विरुद्ध अभियोजन का कोई औचित्य नहीं है।

राज्य एवं शिकायतकर्ता का पक्ष:

  1. आरोप गंभीर हैं और जांच के बाद ही सत्यता का निर्धारण हो सकता है।
  2. पुलिस को जांच का अवसर दिया जाना चाहिए ताकि साक्ष्य एकत्रित हो सकें।
  3. एफआईआर को इस चरण में रद्द करना न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप होगा।

अदालत का अवलोकन

माननीय पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने मामले का गहन परीक्षण किया और कहा कि—

  • एफआईआर में लगाए गए आरोप अत्यंत सामान्य और अस्पष्ट हैं।
  • शिकायत में कहीं यह नहीं दर्शाया गया कि भारत में रहते समय पति या उसके परिजनों ने कोई ऐसा कार्य किया जो क्रूरता या विश्वासभंग की श्रेणी में आता हो।
  • यह पाया गया कि अधिकांश आरोप विदेश में घटित घटनाओं से संबंधित हैं, अतः भारत के न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में इनकी सुनवाई नहीं की जा सकती।
  • अदालत ने यह भी कहा कि किसी परिवार के सभी सदस्यों को केवल इसलिए अभियुक्त नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वे पति के रिश्तेदार हैं।

कानूनी विश्लेषण

भारतीय दंड संहिता की धारा 498-A का उद्देश्य है—पति या उसके परिजनों द्वारा किसी महिला के प्रति शारीरिक या मानसिक क्रूरता से संरक्षण प्रदान करना। परंतु यह धारा कई मामलों में “परिवार को दबाव में लाने” के हथियार के रूप में भी प्रयुक्त होती रही है।

धारा 406 विश्वासभंग के अपराध से संबंधित है, जिसमें यह साबित करना आवश्यक होता है कि आरोपी को किसी वस्तु या संपत्ति का “विश्वासपूर्वक सुपुर्द” किया गया था और उसने उसे अनुचित रूप से उपयोग किया या वापस नहीं किया।

इस मामले में न तो ऐसा कोई ठोस साक्ष्य प्रस्तुत किया गया, न ही यह दिखाया गया कि ससुराल पक्ष के किसी सदस्य ने विश्वास का उल्लंघन किया हो।


पूर्ववर्ती न्यायिक निर्णयों का संदर्भ

अदालत ने अपने निर्णय में कहकशां कौसर बनाम स्टेट ऑफ बिहार (2022) और कंवलजीत सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (2021) जैसे निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि—

“सिर्फ पति के परिवार के सभी सदस्यों को एफआईआर में शामिल करना, बिना किसी विशिष्ट आरोप के, न्याय का दुरुपयोग है।”

इस सिद्धांत को पुनः लागू करते हुए अदालत ने कहा कि जब तक किसी व्यक्ति की भूमिका स्पष्ट रूप से न दिखाई दे, तब तक उसे अभियुक्त बनाना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग (Abuse of Process of Law) है।


निर्णय

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि—

  • शिकायत में कोई ठोस आरोप या विशिष्ट घटना नहीं बताई गई थी।
  • विवाह के दौरान भारत में कोई विवाद या उत्पीड़न नहीं हुआ था।
  • आरोप केवल अंतरराष्ट्रीय विवाह विवाद के कारण उत्पन्न हुए हैं, जो भारत के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।

इन कारणों से अदालत ने पति के परिजनों के विरुद्ध दर्ज एफआईआर को धारा 482 सीआरपीसी के तहत रद्द (Quash) कर दिया। हालांकि, अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यदि भविष्य में कोई ठोस साक्ष्य सामने आता है, तो शिकायतकर्ता उचित कानूनी उपाय अपना सकती है।


न्यायिक दृष्टिकोण का महत्व

यह निर्णय केवल इस मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि उन सभी मामलों के लिए मार्गदर्शक है, जहाँ पति के परिवार को बिना स्पष्ट भूमिका के अभियुक्त बना दिया जाता है। अदालत ने यह पुनः स्पष्ट किया कि—

“कानूनी प्रावधानों का उद्देश्य सुरक्षा है, प्रतिशोध नहीं।”

498-A जैसे कानून तभी प्रभावी रह सकते हैं जब उनका संतुलित और न्यायसंगत प्रयोग किया जाए। इस निर्णय ने यह संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया है।


निष्कर्ष

यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के उस संवेदनशील दृष्टिकोण को दर्शाता है जो वास्तविक पीड़ितों की सुरक्षा और झूठे मुकदमों से निर्दोषों की रक्षा — दोनों के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास करता है।

जहाँ एक ओर अदालत ने महिला संरक्षण के अधिकार को मान्यता दी, वहीं दूसरी ओर यह भी कहा कि “हर आरोप न्यायोचित नहीं होता”। झूठे आरोप न केवल निर्दोष व्यक्तियों की प्रतिष्ठा नष्ट करते हैं बल्कि कानून की विश्वसनीयता को भी कमजोर करते हैं।

अतः यह निर्णय इस सिद्धांत को पुष्ट करता है कि कानून का प्रयोग न्याय के लिए होना चाहिए, प्रतिशोध के लिए नहीं।


🔹न्यायालय: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय
🔹अधिनियम: भारतीय दंड संहिता, 1860 — धारा 406 एवं 498-A
🔹प्रावधान: धारा 482, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (एफआईआर रद्द करने की शक्ति)
🔹महत्व: झूठे दहेज उत्पीड़न मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की दिशा में महत्वपूर्ण निर्णय।