न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction of Courts) – CPC, 1908 के अंतर्गत
प्रस्तावना
न्यायपालिका किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का मुख्य स्तंभ होती है। न्यायालयों का कार्य केवल न्याय वितरण ही नहीं बल्कि विधि के शासन (Rule of Law) को बनाए रखना भी है। किन्तु किसी भी न्यायालय की शक्ति असीमित नहीं होती। प्रत्येक न्यायालय को केवल वही मामले सुनने और निर्णय करने का अधिकार होता है जो विधि द्वारा उसे प्रदान किया गया है। इस शक्ति या सीमा को ही “अधिकार क्षेत्र” (Jurisdiction) कहा जाता है।
दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code – CPC) भारतीय न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र और उनके संगठनात्मक ढाँचे को परिभाषित करती है। अधिकार क्षेत्र की अवधारणा यह सुनिश्चित करती है कि न्यायालय अपनी विधिक सीमा से बाहर जाकर कार्यवाही न करें, अन्यथा ऐसी कार्यवाही शून्य (void) हो जाएगी।
अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) की परिभाषा
“Jurisdiction” शब्द लैटिन शब्द ‘juris’ (law) + ‘dicere’ (to speak) से बना है, जिसका अर्थ है – “कानून बोलने या लागू करने का अधिकार”।
विद्वानों की परिभाषाएँ:
- ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार – Jurisdiction is the authority by which courts and judicial officers take cognizance of and decide cases.
अर्थात – न्यायालय को किसी मामले की सुनवाई और निर्णय करने का जो अधिकार प्राप्त है, वही अधिकार क्षेत्र है। - व्हिटकर बनाम विल्सन (1876) के अनुसार – अधिकार क्षेत्र वह शक्ति है जो किसी न्यायालय को विधि द्वारा प्रदान की जाती है ताकि वह किसी विवाद को सुने और उस पर बाध्यकारी निर्णय दे सके।
CPC के अंतर्गत अधिकार क्षेत्र का महत्व
दीवानी प्रक्रिया संहिता में अधिकार क्षेत्र का महत्व अत्यंत है, क्योंकि –
- यह तय करता है कि किस न्यायालय में वाद दायर किया जाएगा।
- न्यायालयों के बीच शक्ति का विभाजन सुनिश्चित करता है।
- पक्षकारों को अनावश्यक भ्रम और समय की बर्बादी से बचाता है।
- न्याय वितरण की प्रभावशीलता और निष्पक्षता बनाए रखता है।
यदि कोई वाद उस न्यायालय में दायर किया जाता है जिसे अधिकार क्षेत्र प्राप्त नहीं है, तो उसका निर्णय न्यायिक त्रुटि (coram non judice) कहलाता है और वह निर्णय शून्य माना जाता है।
अधिकार क्षेत्र के प्रकार
CPC, 1908 के अंतर्गत न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र मुख्यतः निम्नलिखित प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है –
- क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र (Territorial Jurisdiction)
- आर्थिक / मूल्याधारित अधिकार क्षेत्र (Pecuniary Jurisdiction)
- विषयगत अधिकार क्षेत्र (Subject-Matter Jurisdiction)
- प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र (Original and Appellate Jurisdiction)
- व्यक्तिगत अधिकार क्षेत्र (Personal Jurisdiction)
परन्तु परीक्षा के दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं – Territorial, Pecuniary और Subject-Matter Jurisdiction, जिनकी व्याख्या नीचे की जा रही है।
1. क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र (Territorial Jurisdiction)
क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र का अर्थ है – किसी न्यायालय की भौगोलिक सीमाएँ, जिनके भीतर वह वाद की सुनवाई कर सकता है। प्रत्येक न्यायालय को केवल अपनी क्षेत्रीय सीमा के भीतर उत्पन्न विवादों पर ही अधिकार होता है।
प्रावधान:
- CPC की धारा 15 से 20 में इस विषय का उल्लेख मिलता है।
- सामान्य नियम यह है कि वाद उसी न्यायालय में दायर किया जाएगा जहाँ –
- प्रतिवादी निवास करता है, या
- प्रतिवादी व्यवसाय करता है, या
- वाद का कारण उत्पन्न हुआ है।
उदाहरण:
यदि कोई अनुबंध दिल्ली में किया गया है और उसका उल्लंघन दिल्ली में हुआ है, तो सामान्यतः दिल्ली का न्यायालय ही क्षेत्रीय रूप से सक्षम होगा।
2. आर्थिक / मूल्याधारित अधिकार क्षेत्र (Pecuniary Jurisdiction)
Pecuniary Jurisdiction का अर्थ है – किसी न्यायालय का वह अधिकार जो वाद की राशि (suit valuation) या विवाद की संपत्ति के मूल्य पर आधारित होता है।
प्रावधान:
- CPC की धारा 15 कहती है कि वाद उसी न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए जो सबसे निम्न श्रेणी का है और उसे वाद सुनने का अधिकार है।
- अलग-अलग राज्यों में अधिसूचना द्वारा यह तय किया जाता है कि किस न्यायालय को किस सीमा तक की राशि वाले वादों का अधिकार होगा।
उदाहरण:
यदि किसी राज्य में सिविल जज जूनियर डिवीजन को 5 लाख रुपये तक के वाद सुनने का अधिकार है और उससे ऊपर के वाद सिविल जज सीनियर डिवीजन सुनेंगे, तो 10 लाख रुपये की राशि का वाद जूनियर डिवीजन में दायर नहीं किया जा सकता।
3. विषयगत अधिकार क्षेत्र (Subject-Matter Jurisdiction)
Subject-Matter Jurisdiction का अर्थ है – न्यायालय की वह शक्ति जो विवाद के विषय पर आधारित होती है। कुछ विशेष विषय ऐसे हैं जिन्हें केवल विशेष न्यायालय ही सुन सकते हैं, सामान्य सिविल न्यायालय नहीं।
प्रावधान:
- CPC की धारा 9 कहती है कि सिविल न्यायालय सभी प्रकार के दीवानी वादों की सुनवाई कर सकते हैं, सिवाय उन मामलों के जिनकी सुनवाई विधि द्वारा निषिद्ध है।
- उदाहरणस्वरूप –
- भूमि सुधार संबंधी विवाद – राजस्व न्यायालय सुनते हैं।
- औद्योगिक विवाद – औद्योगिक न्यायाधिकरण सुनते हैं।
- चुनाव संबंधी याचिकाएँ – चुनाव न्यायाधिकरण सुनता है।
उदाहरण:
यदि कोई पक्षकार श्रम विवाद (Industrial Dispute) को लेकर सिविल न्यायालय में वाद दायर करता है, तो वह न्यायालय विषयगत रूप से अक्षम (lack of subject-matter jurisdiction) होगा।
अधिकार क्षेत्र के बीच अंतर (Difference between Territorial, Pecuniary and Subject-Matter Jurisdiction)
क्रमांक | आधार | Territorial Jurisdiction | Pecuniary Jurisdiction | Subject-Matter Jurisdiction |
---|---|---|---|---|
1. | परिभाषा | न्यायालय की भौगोलिक सीमा जहाँ तक उसका अधिकार लागू होता है। | न्यायालय का अधिकार विवादित राशि या संपत्ति के मूल्य के आधार पर। | न्यायालय का अधिकार विवाद के विषय या प्रकृति के आधार पर। |
2. | CPC में उल्लेख | धारा 15–20 | धारा 15 | धारा 9 |
3. | निर्धारण का आधार | प्रतिवादी का निवास, व्यवसाय या वाद का कारण उत्पन्न होना। | वाद की धनराशि या संपत्ति का मूल्य। | विवाद का विषय विशेष (जैसे भूमि सुधार, औद्योगिक विवाद)। |
4. | उदाहरण | दिल्ली का न्यायालय मुंबई के विवाद पर अधिकार नहीं रखता। | 2 लाख का वाद उच्च न्यायालय में दायर नहीं किया जा सकता यदि निचली अदालत सक्षम है। | श्रम विवाद को सिविल न्यायालय नहीं सुन सकता। |
5. | स्थानांतरण | उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थानांतरण संभव। | अपील के समय पुनर्मूल्यांकन संभव। | इसे किसी अन्य न्यायालय को सौंपा नहीं जा सकता; केवल विशेष न्यायालय ही सुन सकता है। |
न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से संबंधित प्रमुख न्यायिक निर्णय
- Kiran Singh v. Chaman Paswan (1954 AIR 340 SC)
– सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि न्यायालय अधिकार क्षेत्र के बिना कोई निर्णय देता है, तो वह शून्य और शून्यात्मक (null and void) होगा। - Hiralal Patni v. Kali Nath (AIR 1962 SC 199)
– यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया कि अधिकार क्षेत्र की कमी को आपत्ति स्वरूप प्रारंभिक स्तर पर ही उठाना आवश्यक है। - Official Trustee v. Sachindra Nath (AIR 1969 SC 823)
– यह माना गया कि न्यायालय केवल वही मामले सुन सकता है जिन्हें विधि द्वारा उसके अंतर्गत रखा गया हो।
निष्कर्ष
न्यायालय का अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 की आत्मा है। यह न केवल न्यायालयों की शक्तियों को सीमित करता है बल्कि न्यायिक प्रणाली में अनुशासन और संतुलन भी सुनिश्चित करता है।
- Territorial Jurisdiction न्यायालय की भौगोलिक सीमा तय करता है।
- Pecuniary Jurisdiction विवादित राशि या संपत्ति के मूल्य पर आधारित है।
- Subject-Matter Jurisdiction विवाद की प्रकृति और विषय से संबंधित है।
यदि कोई वाद ऐसे न्यायालय में दायर किया जाता है जिसे अधिकार क्षेत्र नहीं है, तो उसकी पूरी कार्यवाही शून्य मानी जाती है। अतः किसी भी वाद की सुनवाई से पूर्व न्यायालय का यह दायित्व है कि वह अपने अधिकार क्षेत्र की पुष्टि करे।
इस प्रकार, अधिकार क्षेत्र की अवधारणा न्यायिक प्रणाली की वैधता, दक्षता और निष्पक्षता की आधारशिला है।
न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction of Courts) – Q&A शैली
प्रश्न 1. अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अधिकार क्षेत्र का अर्थ है – किसी न्यायालय की वह विधिक शक्ति जिसके अंतर्गत वह किसी वाद की सुनवाई कर सके और उस पर बाध्यकारी निर्णय दे सके।
- Black’s Law Dictionary – “Jurisdiction is the authority by which courts take cognizance of and decide cases.”
प्रश्न 2. CPC, 1908 में अधिकार क्षेत्र का महत्व क्यों है?
उत्तर:
- यह तय करता है कि वाद किस न्यायालय में दायर होगा।
- न्यायालयों के बीच शक्तियों का विभाजन करता है।
- न्यायिक प्रक्रिया को अनुशासित और प्रभावी बनाता है।
- अधिकार क्षेत्र के बिना दिया गया निर्णय शून्य (null and void) होता है।
प्रश्न 3. CPC के अंतर्गत अधिकार क्षेत्र के प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
मुख्य प्रकार –
- Territorial Jurisdiction (क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र)
- Pecuniary Jurisdiction (आर्थिक/मूल्याधारित अधिकार क्षेत्र)
- Subject-Matter Jurisdiction (विषयगत अधिकार क्षेत्र)
अन्य प्रकार – Original/Appellate jurisdiction, Personal jurisdiction इत्यादि।
प्रश्न 4. क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र (Territorial Jurisdiction) क्या है?
उत्तर:
- यह न्यायालय की भौगोलिक सीमा से संबंधित है।
- CPC की धारा 15 से 20 में इसका प्रावधान है।
- वाद सामान्यतः वहीं दायर होगा –
- जहाँ प्रतिवादी निवास करता है,
- या व्यवसाय करता है,
- या जहाँ वाद का कारण उत्पन्न हुआ।
उदाहरण: दिल्ली में अनुबंध का उल्लंघन हुआ है तो दिल्ली न्यायालय सक्षम होगा।
प्रश्न 5. आर्थिक अधिकार क्षेत्र (Pecuniary Jurisdiction) क्या है?
उत्तर:
- यह विवाद की धनराशि या संपत्ति के मूल्य पर आधारित है।
- CPC की धारा 15 – वाद उसी सबसे निम्न न्यायालय में दायर होगा जिसे सुनने का अधिकार है।
उदाहरण: यदि किसी राज्य में जूनियर डिवीजन को 5 लाख तक के वाद सुनने का अधिकार है तो 10 लाख का वाद वहीं दायर नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 6. विषयगत अधिकार क्षेत्र (Subject-Matter Jurisdiction) क्या है?
उत्तर:
- यह विवाद के विषय पर आधारित है।
- CPC की धारा 9 कहती है – सिविल न्यायालय सभी दीवानी वाद सुन सकते हैं, सिवाय उन मामलों के जिन्हें विधि द्वारा निषिद्ध किया गया हो।
उदाहरण:
- श्रम विवाद → औद्योगिक न्यायाधिकरण।
- भूमि सुधार विवाद → राजस्व न्यायालय।
प्रश्न 7. Territorial, Pecuniary और Subject-Matter Jurisdiction में अंतर बताइए।
उत्तर (तालिका):
आधार | Territorial | Pecuniary | Subject-Matter |
---|---|---|---|
परिभाषा | भौगोलिक सीमा | विवादित राशि या संपत्ति का मूल्य | विवाद के विषय/प्रकृति पर आधारित |
CPC धारा | 15–20 | 15 | 9 |
आधार | निवास, व्यवसाय, वाद का कारण | धनराशि या संपत्ति का मूल्य | विशेष विषय जैसे भूमि, श्रम, चुनाव |
उदाहरण | दिल्ली कोर्ट मुंबई विवाद नहीं सुन सकता | 2 लाख का वाद उच्च न्यायालय में दायर नहीं | श्रम विवाद सिविल कोर्ट में नहीं चलेगा |
प्रश्न 8. न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर प्रमुख न्यायिक निर्णय कौन से हैं?
उत्तर:
- Kiran Singh v. Chaman Paswan (1954) – अधिकार क्षेत्र के बिना निर्णय शून्य होता है।
- Hiralal Patni v. Kali Nath (1962) – अधिकार क्षेत्र पर आपत्ति प्रारंभिक स्तर पर उठाई जानी चाहिए।
- Official Trustee v. Sachindra Nath (1969) – न्यायालय केवल उन्हीं मामलों की सुनवाई करेगा जिनकी अनुमति विधि ने दी है।
प्रश्न 9. यदि न्यायालय अधिकार क्षेत्र के बिना निर्णय देता है तो उसका क्या प्रभाव होगा?
उत्तर:
- ऐसा निर्णय शून्य (null and void) माना जाएगा।
- इसे coram non judice (अधिकार क्षेत्र से बाहर दिया गया निर्णय) कहा जाता है।
- इसका कोई विधिक मूल्य नहीं होता।
प्रश्न 10. निष्कर्ष लिखिए।
उत्तर:
न्यायालय का अधिकार क्षेत्र CPC की आधारशिला है।
- Territorial jurisdiction न्यायालय की भौगोलिक सीमा तय करता है।
- Pecuniary jurisdiction विवाद की राशि पर आधारित है।
- Subject-matter jurisdiction विवाद की प्रकृति पर आधारित है।
अधिकार क्षेत्र की अनुपस्थिति में दिया गया निर्णय शून्य होता है। इसलिए किसी भी वाद की वैधता का पहला चरण है – न्यायालय का अधिकार क्षेत्र सुनिश्चित करना।