“निर्माण की वैधता तय करने का अधिकार अदालत का है, डीएम का नहीं”: इलाहाबाद उच्च न्यायालय का अहम निर्णय

शीर्षक: “निर्माण की वैधता तय करने का अधिकार अदालत का है, डीएम का नहीं”: इलाहाबाद उच्च न्यायालय का अहम निर्णय

प्रस्तावना:
भारतीय लोकतंत्र का आधार संवैधानिक मर्यादाएं और शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है। हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इसी संवैधानिक संतुलन को स्पष्ट किया है। अदालत ने कहा कि किसी निर्माण की वैधता निर्धारित करना न्यायपालिका का अधिकार है, न कि जिला प्रशासन का। इसके साथ ही न्यायालय ने मैनपुरी जिले के जिलाधिकारी (डीएम) से स्पष्टीकरण तलब करते हुए संबंधित निर्माण कार्य पर स्थगन (रोक) लगा दी है।


प्रकरण की पृष्ठभूमि:
मामला उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले का है, जहाँ एक निर्माण को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ। स्थानीय प्रशासन द्वारा उस निर्माण को अवैध बताकर कार्रवाई की गई थी। इस संबंध में एक जनहित याचिका (PIL) इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर की गई, जिसमें सवाल उठाया गया कि क्या बिना अदालत की अनुमति के डीएम को यह अधिकार है कि वह किसी निर्माण को अवैध ठहराकर कार्रवाई करे।


अदालत की टिप्पणी और आदेश:
न्यायमूर्ति की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि –

“निर्माण वैध है या नहीं, यह निर्णय लेने का अधिकार केवल न्यायालय को है, न कि जिलाधिकारी को।”

अदालत ने इस टिप्पणी के साथ निर्माण कार्य पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी और डीएम मैनपुरी से विस्तृत स्पष्टीकरण मांगा है कि उन्होंने किस अधिकार के तहत निर्माण को अवैध घोषित कर कार्रवाई की।


संविधान के सिद्धांतों की रक्षा:
यह निर्णय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत न्यायालयों को प्रदत्त शक्तियों की पुनः पुष्टि करता है, जिसमें न्यायालय किसी सरकारी अधिकारी या संस्था द्वारा किए गए अनुचित या अधिकार क्षेत्र से बाहर के कार्यों की समीक्षा कर सकता है। यह आदेश शासन की कार्यपालिका शाखा को यह स्पष्ट संकेत देता है कि उनके अधिकार सीमित हैं और उन्हें न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना होगा।


प्रशासनिक मनमानी पर अंकुश:
अक्सर देखा गया है कि स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी बिना न्यायालय की प्रक्रिया के सीधे निर्माण कार्यों को रोक देते हैं या गिराने का आदेश जारी करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय ऐसे सभी मामलों में न्यायिक संतुलन और वैधानिक प्रक्रिया के महत्व को रेखांकित करता है।


न्यायिक प्रक्रिया का महत्व:
न्यायपालिका का यह रुख दर्शाता है कि कोई भी नागरिक या संस्था तब तक दोषी नहीं मानी जा सकती जब तक कि अदालत वैधानिक प्रक्रिया के तहत ऐसा न ठहराए। यह फैसला आम जनता को भी यह भरोसा दिलाता है कि उनके अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय सदैव तत्पर है।


निष्कर्ष:
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय संविधान में निहित शक्तियों के संतुलन, कार्यपालिका की सीमाओं, और न्यायिक प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्धता का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह न केवल प्रशासनिक मनमानी पर रोक लगाने का कार्य करता है, बल्कि विधिसम्मत शासन के सिद्धांत को भी बल देता है।