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निर्देशात्मक सिद्धांतों (Directive Principles of State Policy) की अवधारणा और उनका मौलिक अधिकारों से संबंध

निर्देशात्मक सिद्धांतों (Directive Principles of State Policy) की अवधारणा और उनका मौलिक अधिकारों से संबंध

भारतीय संविधान विश्व के सबसे विस्तृत और विशिष्ट संविधानों में से एक है, जिसमें न केवल नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की गारंटी दी गई है, बल्कि राज्य को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करने हेतु कुछ दिशानिर्देश भी प्रदान किए गए हैं। मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) और राज्य के नीति निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Policy) संविधान की आत्मा माने जाते हैं। एक ओर मौलिक अधिकार नागरिकों की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर नीति निर्देशक तत्व सामाजिक और आर्थिक न्याय पर आधारित कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

इस उत्तर में हम निर्देशात्मक सिद्धांतों की अवधारणा, उनकी प्रकृति और उद्देश्य, और मौलिक अधिकारों से उनके संबंध पर विस्तृत चर्चा करेंगे।


निर्देशात्मक सिद्धांतों की अवधारणा

संविधान का भाग IV (अनुच्छेद 36 से 51) राज्य के नीति निर्देशक तत्वों से संबंधित है। ये सिद्धांत सीधे किसी न्यायालय में प्रवर्तनीय (Enforceable) नहीं हैं, अर्थात् नागरिक इनके उल्लंघन के लिए अदालत में नहीं जा सकते। फिर भी ये देश के शासन की मूलभूत नीति और दिशा तय करते हैं।

अनुच्छेद 37 स्पष्ट करता है कि:

  • नीति निर्देशक तत्व न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं।
  • फिर भी ये राज्य पर शासन की नीतियों के निर्माण में “मौलिक” (Fundamental) हैं।

उत्पत्ति और स्रोत

निर्देशात्मक सिद्धांतों की प्रेरणा आयरलैंड के संविधान से ली गई है, जबकि इनके कुछ प्रावधान ब्रिटेन और अमेरिका की सामाजिक-आर्थिक अवधारणाओं से भी प्रभावित हैं।


उद्देश्य और महत्व

निर्देशात्मक सिद्धांतों का मुख्य उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक न्याय स्थापित करना और एक कल्याणकारी राज्य का निर्माण करना है।

मुख्य उद्देश्यों में शामिल हैं:

  1. कल्याणकारी राज्य की स्थापना – राज्य को ऐसे प्रावधान बनाने हेतु निर्देशित करना, जिससे सभी नागरिकों का जीवन स्तर बेहतर हो।
  2. सामाजिक और आर्थिक न्याय – समाज से असमानता, शोषण और भेदभाव को समाप्त कर न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करना।
  3. समान अवसर – सभी नागरिकों को शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य के समान अवसर उपलब्ध कराना।
  4. सामाजिक सुरक्षा – मजदूरों, किसानों और कमजोर वर्गों की सुरक्षा और हितों की रक्षा।
  5. अंतर्राष्ट्रीय शांति और भाईचारा – भारत को वैश्विक शांति, सहयोग और मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध करना।

निर्देशात्मक सिद्धांतों के प्रकार

संविधान विशेषज्ञों ने इन्हें मुख्यतः तीन वर्गों में विभाजित किया है:

1. सामाजिक और आर्थिक न्याय से संबंधित सिद्धांत

  • अनुच्छेद 38: सामाजिक व्यवस्था में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को सुनिश्चित करना।
  • अनुच्छेद 39: नागरिकों को पर्याप्त आजीविका, समान वेतन, समान अवसर, शोषण से बचाव।
  • अनुच्छेद 41: बेरोजगारों, वृद्धों, विकलांगों के लिए सामाजिक सुरक्षा।
  • अनुच्छेद 42: मातृत्व लाभ और मानवीय कार्य परिस्थितियाँ।
  • अनुच्छेद 43: मजदूरों को जीविका योग्य वेतन।

2. गांधीवादी सिद्धांत

  • अनुच्छेद 40: पंचायत राज की स्थापना।
  • अनुच्छेद 43: कुटीर उद्योगों का संवर्धन।
  • अनुच्छेद 46: अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़े वर्गों की उन्नति।
  • अनुच्छेद 47: मद्य निषेध और स्वास्थ्य संवर्धन।

3. उदारवादी और अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत

  • अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता।
  • अनुच्छेद 45: नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा।
  • अनुच्छेद 48: पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण।
  • अनुच्छेद 51: अंतर्राष्ट्रीय शांति और मानवाधिकारों का संवर्धन।

निर्देशात्मक सिद्धांतों और मौलिक अधिकारों का संबंध

भारतीय संविधान ने मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया है।

1. मौलिक अधिकार और उनकी प्रकृति

  • संविधान का भाग III (अनुच्छेद 12 से 35) नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है।
  • ये अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं।
  • मौलिक अधिकार मुख्यतः व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता की गारंटी देते हैं।

2. मौलिक अधिकार बनाम नीति निर्देशक तत्व

  • प्रारंभिक दिनों में मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों के बीच टकराव देखा गया।
  • न्यायपालिका ने कई मामलों में यह कहा कि यदि दोनों के बीच संघर्ष हो, तो मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता दी जाएगी।

न्यायालयीन व्याख्या और महत्वपूर्ण मामले

1. चंपकम दोराईराजन मामला (1951)

  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार सर्वोपरि हैं और यदि नीति निर्देशक तत्व उनसे टकराते हैं तो मौलिक अधिकार को प्रधानता दी जाएगी।
  • इस निर्णय के बाद संविधान में पहला संशोधन (1951) किया गया, जिससे अनुच्छेद 15(4) जोड़ा गया।

2. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती।
  • इस निर्णय से मौलिक अधिकारों की सर्वोच्चता पुनः स्थापित हुई।

3. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)

  • सुप्रीम कोर्ट ने “मूल संरचना सिद्धांत” प्रतिपादित किया।
  • कहा गया कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व दोनों ही संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं।
  • इनके बीच सामंजस्य आवश्यक है।

4. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980)

  • कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
  • किसी एक को पूरी तरह से दूसरे पर वरीयता नहीं दी जा सकती।

दोनों के बीच सामंजस्य का प्रयास

  • मौलिक अधिकार व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करते हैं।
  • निर्देशात्मक सिद्धांत समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों के उत्थान पर बल देते हैं।
  • संविधान निर्माताओं का उद्देश्य था कि दोनों मिलकर “समानता, स्वतंत्रता और न्याय” पर आधारित लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य का निर्माण करें।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

  • मौलिक अधिकार व्यक्ति को स्वतंत्रता और समानता की गारंटी देते हैं।
  • नीति निर्देशक तत्व राज्य को यह निर्देशित करते हैं कि वह ऐसी नीतियाँ बनाए जिससे सभी को सामाजिक और आर्थिक न्याय मिल सके।

इस प्रकार, मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों में किसी प्रकार का विरोध नहीं है, बल्कि दोनों परस्पर पूरक और सहायक हैं।
संविधान की मूल भावना यह है कि नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा करते हुए एक न्यायपूर्ण, समतामूलक और कल्याणकारी समाज का निर्माण किया जाए।