“निगरानी या अनुमोदन: Vantara-प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप और संवैधानिक आयाम”
प्रस्तावना
वर्तमान समय में जब पर्यावरण, पशु अधिकार और वन्य जीवन संवर्धन की मांग व्यापक हो रही है, तब भारत में एक अत्यंत विवादास्पद मामला सुप्रीम कोर्ट की जानकारी में आया है — CR Jaya Sukin व अन्य बनाम Union of India (Vantara/Centre run by Reliance Foundation)। इस मामले में अभ्यावेदक ने यह आरोप लगाया कि Vantara (Greens Zoological Rescue and Rehabilitation Centre), जो गुजरात के जामनगर में Reliance Foundation द्वारा संचालित है, वहाँ जानवरों की अवैध तस्करी, अनुचित अधिग्रहण, वन्यजीव कानूनों का उल्लंघन तथा बेजबाब तक उपयोग किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक विशेष जांच दल (SIT) गठित किया, और प्रारंभिक आदेश में यह देखा गया कि Vantara द्वारा किए गए अधिग्रहण पहले दृष्टि से (prima facie) नियामक तंत्र के दायरे में आते हैं।
नीचे विस्तार से विषय का ऐतिहासिक, विधिक एवं संवैधानिक विश्लेषण प्रस्तुत है, तथा यह अनुमान लगाने का प्रयास है कि इस मुकदमे का भविष्य कोर्ट किस दिशा में ले सकती है।
1. विषय का पृष्ठभूमि और तथ्यों का सार
- Vantara (Greens Zoological Rescue and Rehabilitation Centre)
Vantara, Reliance Foundation की पहल है, जिसका उद्देश्य जानवरों की “राहत, देखभाल और पुनर्वास” करना है। यह जामनगर, गुजरात में स्थित है।
इसे बड़े पैमाने पर पशु सुरक्षा–संस्था के रूप में पेश किया गया है, और मीडिया रिपोर्ट्स में यह दावा किया गया है कि इसमें कई विदेशी और देशी प्रजातियों के जानवर हैं। - अभियोग और PIL (Public Interest Litigation)
CR Jaya Sukin नामक अधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दर्ज कर विभिन्न आरोप लगाए कि:- Vantara द्वारा जानवरों, विशेष रूप से हाथियों, की अवैध आयात या अधिग्रहण की गई है,
- वाइल्डलाइफ (Protection) Act, 1972, CITES संधि, और अन्य अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन हुआ है,
- वन्यजीवों की देखभाल, पशु कल्याण, मृत्यु दर, स्वास्थ्य प्रबंधन आदि में अनियमितताएँ हैं,
- Vantara को “private collection” या वैभव्य नियंत्रण परियोजना (vanity collection) के रूप में उपयोग किया गया हो,
- वित्तीय अनियमितताएँ, पानी के उपयोग, कार्बन क्रेडिट आदि में हेरफेर हो सकती है।
- सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया एवं SIT गठन
— याचिका को पहले दृष्टि से (prima facie) गंभीर आरोपों से भरी पाई गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी दी कि इस तरह की याचिकाएँ बिना ठोस अनुसंधान सामग्री के सामान्यतः तुरंत खारिज की जानी चाहिए।
— किन्तु, यह देखते हुए कि याचिका में यह आरोप लगाया गया है कि सरकारी अथॉरिटीज़ और अन्य न्यायालय अपने दायित्वों को ठीक से निभा नहीं रहे हैं, शीर्ष अदालत ने “न्याय के हित में” स्वतंत्र तथ्य परीक्षण करने हेतु SIT गठित करने का निर्णय लिया।
— SIT का नेतृत्व पूर्व न्यायाधीश Justice Jasti Chelameswar को किया गया। अन्य सदस्य न्यायाधीश Raghavendra Chauhan, पूर्व मुंबई पुलिस आयुक्त Hemant Nagrale और IRS अधिकारी Anish Gupta होंगे।
— अदालत ने निर्देश दिया कि SIT 12 सितंबर, 2025 तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे, और योग्यता के आधार पर अगली सुनवाई 15 सितंबर, 2025 को हो।
— सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यह आदेश केवल तथ्यान्वेषण हेतु है और इस आदेश से किसी भी पक्ष, statutory body या Vantara की कार्यप्रणाली पर पहले से संदेह नहीं किया गया है।
— यह भी कहा गया कि प्रारंभिक याचिका में प्रस्तुत किए गए आरोप “विहीन” (unsupported) पाए गए हैं, और इस आधार पर सामान्यत: उन्हें तुरंत खारिज करना चाहिए था। - न्यायालय की एक टिप्पणी: अधिग्रहण नियमों के अंतर्गत “prima facie” अनुमेयता
सर्वोच्च न्यायालय ने यह मान लिया कि Vantara द्वारा किए गए जानवरों के अधिग्रहण “प्रथम दृष्टि” (prima facie) नियामक तंत्र — जैसे कि वन्यजीव सुरक्षा कानून, आयात-निर्यात नियम, पशु कल्याण संहिताएँ — के अंतर्गत आ सकते हैं। अर्थात्, अदालत ने कटाक्ष किया कि आरोपियों द्वारा प्रस्तुत तथ्य पर्याप्त न लगने पर, अदालत तुरंत निष्कर्ष नहीं दे सकती। यह एक अपेक्षित न्यायिक विवेक (judicial prudence) है, ताकि पक्षों को सुनने और तथ्य जुटाने का अवसर मिले।
2. पिछले निर्णयों का सन्दर्भ — ‘Wildlife Rescue & Rehabilitation Centre vs Union of India’
CR Jaya Sukin प्रकरण से पहले, सुप्रीम कोर्ट ने Wildlife Rescue and Rehabilitation Centre & Ors v. Union of India (WP (C) 743/2014) नामक एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था, जिसमें कैद जीवों, विशेषकर हाथी और पर्यटन उद्योग में उनका उपयोग, नियम एवं संवैधानिक पहलुओं पर विचार किया गया।
कुछ महत्वपूर्ण बिंदु:
- कोर्ट ने यह माना कि हाथी जैसे संवेदनशील (Schedule I) जीवों का निजी स्वामित्व, उपयोग, हस्तांतरण आदि सभी वन्यजीव सुरक्षा कानून, Performing Animals Registration Rules (PARR), और पशु क्रूरता (Prevention of Cruelty to Animals Act) के दायरे में आते हैं।
- AWBI (Animal Welfare Board of India) की एक रिपोर्ट में 10 प्राथमिक उल्लंघनों का उल्लेख किया गया — जैसे कि वैध स्वामित्व प्रमाण पत्र न होना, परिवहन अनुमति न होना, PARR पंजीकरण न होना, देखभाल एवं चिकित्सा व्यवस्था की कमी, क्रूर पद्धतियों का उपयोग आदि।
- कोर्ट ने राज्यों को निर्देश दिया कि वे सभी हाथियों की सूची तैयार करें, उन पर स्वामित्व प्रमाणपत्रों की वैधता जाँचे, और यदि आवश्यक हो तो उन्हें ज़ब्त कर पुनर्वास केंद्रों को भेजा जाए।
- कोर्ट ने Kerala की “amnesty scheme” (जिसमें पुराने समय से पाले गए हाथियों को स्वामित्व प्रमाण देने की सुविधा) को चुनौती दी और उसे रुकाने के निर्देश दिये, pending अंतर्विरोध निर्णय।
- सुप्रीम कोर्ट ने यह अनुशंसा की कि निजी हाथियों को यात्रा, प्रदर्शन या व्यवसायिक उपयोग से रोकने और उन्हें बेहतर देखभाल एवं पुनर्वास सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
इस निर्णय का सीधा महत्व यह है कि हे उठाए गए कई सिद्धांत और निर्देश — जैसे स्वामित्व प्रमाणपत्र, पंजीकरण, क्रूरता नियंत्रण — CR Jaya Sukin प्रकरण के लिए प्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
3. प्रमुख संवैधानिक और विधिक प्रश्न
CR Jaya Sukin प्रकरण में, निम्न मुख्य प्रश्न न्यायालय के समक्ष आए होंगे:
- क्या निजी संस्था (Reliance Foundation / Vantara) किसी जानवर — विशेष रूप से हाथी — को अधिग्रहित या प्रतिबंधित रूप से रखना वैध है?
— यदि यह वैध है, तो किन शर्तों पर?
— यदि अवैध है, तो अदालत के समक्ष उसे कैसे नियंत्रित किया जाए? - क्या Vantara द्वारा अधिग्रहण किये गए जानवरों की विदेशी या देशांतर्गत हस्तांतरण (import / export / interstate transfer) में CITES और अन्य अंतर्राष्ट्रीय/राष्ट्रीय प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है?
— यदि हाँ, तो उसकी उत्तरदायित्व कौन उठाए? - क्या पशु कल्याण (Animal Welfare) और चिकित्सा देखभाल, मृत्यु प्रमाण, पर्यावरण अनुकूलता आदि संबंधी मानदंडों का उल्लंघन हुआ है?
— यदि हाँ, तो किन उपायों से उसे ठीक किया जाए? - क्या Vantara को “private collection / vanity zoological project” के रूप में उपयोग किया गया है?
— यदि हाँ, तो क्या इसे कानून की कसौटी पर खारिज किया जाना चाहिए? - क्या वित्तीय अनियमितताएँ (जल उपयोग, कार्बन क्रेडिट, धन शोधन आदि) इस परियोजना में शामिल हैं और यदि हाँ, तो उनकी न्यायसंगत जाँच कैसे हो?
- न्यायालय की शक्तियाँ: सुप्रीम कोर्ट इस प्रकार की याचिकाओं पर किस हद तक हस्तक्षेप कर सकती है — और क्या वह SIT गठन कर सकती है?
— क्या यह न्यायालय की पारंपरिक “वाक्य-जांच” (judicial review) की सीमा से बाहर नहीं है? - यदि SIT अपना तथ्यात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत करे कि नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ है, क्या याचिकाएँ समाप्त हो जाएँगी, या आगे पूर्ण न्यायालयीय विवेचना होगी?
इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए न्यायालय को संवैधानिक, पर्यावरणीय, पशु अधिकार एवं सार्वजनिक हित के दृष्टिकोणों को समेकित करना होगा।
4. सुप्रीम कोर्ट का तात्कालिक निर्णय — विश्लेषण
निम्न बिंदुओं में, मैं सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (आदेश) का विश्लेषण प्रस्तुत करता हूँ:
- याचिका की प्रारंभिक टिप्पणी: allegations केवल आरोप, समर्थनशील सामग्री अनुपस्थित
अदालत ने कहा कि याचिका केवल आरोपों का संग्रह थी, जिसमें अधिकांश तथ्यों को संबोधित करने वाली “प्रमाण सामग्री” (documentation, रिपोर्ट, विशेषज्ञ रपट आदि) प्रस्तुत नहीं की गई थी। इस आधार पर अदालत ने यह संकेत दिया कि साधारणतः ऐसी याचिकाएँ तुरंत खारिज की जानी चाहिए।
— यह टिप्पणी न्यायालय की सावधानी को दर्शाती है कि वह बिना तथ्यों के अनुमान नहीं लगाएगी। - “न्याय के हित में” विशेष जांच दल (SIT) गठन
अदालत ने इस मामले में यह कहा कि यद्यपि याचिका में समर्थ प्रमाण नहीं हैं, तथापि यह आरोप लगाया गया है कि नियमित संस्थाएँ अपना काम नहीं कर रहीं या विवेचना नहीं करतीं। इसलिए, अदालत ने公平 निर्णय सुनिश्चित करने हेतु एक SIT गठित करने का निर्देश दिया।
— इसका महत्त्व यह है कि अदालत ने यह दिखाया कि न्याय सुनिश्चित करना ही सर्वोच्च प्राथमिकता है, भले ही प्रारंभिक सामग्री सीमित हो।
— इस कदम से यह स्पष्ट होता है कि न्यायालय पक्षपक्षता न करते हुए तथ्यों को स्वयं जाँचेगी। - छवि की संधि: आदेश का दायरा सीमित करना
अदालत ने विशेष रूप से यह स्पष्ट किया कि यह SIT गठन “fact-finding exercise” (तथ्य खोज–अन्वेषण) है, और इस आदेश से किसी पक्ष, statutory authority या Vantara को पूर्वग्रहीत नहीं जाना जाना चाहिए। किसी भी दोष की अवधारणा इस आदेश द्वारा तय नहीं की गई।
— यह न्यायालय की विवेकशीलता को दर्शाता है कि वह निष्पक्ष एवं संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहती है।
— इस कदम से यह सुनिश्चित किया गया कि किसी की प्रतिष्ठा या कार्यप्रणाली पर बिना जांच के दोषारोपण न हो। - निर्देश एवं समयसीमा
— SIT को 12 सितंबर, 2025 तक रिपोर्ट देने का निर्देश दिया गया।
— अगली सुनवाई 15 सितंबर, 2025 को निर्धारित की गई।
— अदालत ने अन्य संबंधित अधिकारियों — जैसे Central Zoo Authority, CITES Authority, MOEF, राज्य वन विभाग आदि — को SIT की सहायता करने का निर्देश दिया। - पर्याप्तता और सीमाएँ
— आदेश ने यह स्पष्ट किया कि इस प्रारंभिक चरण में कोर्ट ने किसी पक्ष को दोषी नहीं ठहराया।
— अदालत ने यह निर्णय नहीं किया कि Vantara का पूरा मॉडल वैध है या नहीं — यह निर्णय SIT रिपोर्ट और आगे की सुनवाई पर निर्भर करेगा।
5. महत्व, चुनौतियाँ और संभावित परिणाम
नीचे इस मुकदमे की व्यापक प्रासंगिकता, चुनौतियाँ और संभावित परिणामों पर विचार किया गया है:
5.1 महत्व और सार्वजनिक हित
- पशु अधिकार और वन्यजीव संरक्षण के लिए मिसाल
यदि सुप्रीम कोर्ट या SIT यह तय करती है कि Vantara या ऐसी अन्य परियोजनाएँ नियमों का उल्लंघन कर रही हैं, तो यह एक दूरगामी सन्देश होगा कि बड़े कॉर्पोरेट्स भी पर्यावरण एवं पशु कल्याण कानूनों के बंधन में हैं। - निगरानी तंत्र की पुनर्स्थापना
यह मामला यह दर्शाता है कि कभी-कभी सरकारी संस्थाएँ या कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ पक्षपाती या सुस्त हो सकती हैं। न्यायालय के हस्तक्षेप से यह प्रणाली पुनर्स्थापित हो सकती है। - खुलेआम परियोजनाओं पर सवाल
Vantara जैसे बड़े प्रोजेक्टों के पीछे वित्तीय हित, प्रतिष्ठा, विज्ञापन प्रभाव आदि जुड़े हो सकते हैं। सार्वजनिक और न्यायालयीय निगरानी महत्वपूर्ण हो जाती है।
5.2 चुनौतियाँ एवं अवरोध
- समय की अपर्याप्तता
SIT को केवल कुछ हफ्तों की समयसीमा दी गई है (12 सितंबर तक रिपोर्ट). इतने कम समय में व्यापक तथ्य–साक्ष्य, अंतरराष्ट्रीय लेन-देन, चिकित्सा डेटा, import/export details आदि खंगालना कठिन होगा। - गोपनीयता एवं व्यावसायिक संवेदनशीलता
Vantara और उसके सहायक पक्ष कई डेटा गोपनीय रख सकते हैं (जैसे आयात अनुज्ञप्ति, वित्तीय रिकॉर्ड). उनकी सहमति और खुलासा बाधा बन सकती है। - प्रमाण जुटाने की जटिलता
विदेशी स्रोतों से आए जानवरों के प्रमाण पत्र, CITES दस्तावेज आदि खंगालना मुश्किल हो सकता है। यदि अन्तरराष्ट्रीय साझेदारों या देशों के रिकॉर्ड उपलब्ध न हों, तो साक्ष्य निर्माण कठिन होगा। - विरोध और कानूनी मुक़ाबले
Vantara या अन्य पक्ष इस आदेश को चुनौती दे सकते हैं — उदाहरण स्वरूप, यह कह सकते हैं कि न्यायालय ने जांच दल का निर्माण किया जो कि कार्यपालिका व नियामक क्षेत्र में हस्तक्षेप है। - न्यायालय की सीमाएँ
न्यायालय स्वयं रहकर “पशु कल्याण विशेषज्ञ नहीं” है — उसके पास चिकित्सा या जैविक विशेषज्ञता नहीं। इसलिए शीर्ष कोर्ट को विशेषज्ञ रपटों, न्यायालयीन विशेषज्ञों और SIT की निष्कर्षों पर निर्भर रहना पड़ेगा।
5.3 संभावित परिणाम और दिशा
नीचे कुछ संभावित नतीजे और दिशा दिए हैं:
| संभावित निष्कर्ष / निर्णय | उसके प्रभाव / तात्पर्य |
|---|---|
| SIT रिपोर्ट: उल्लंघन नहीं पाया गया | याचिकाएँ खारिज हो सकती हैं, Vantara का संचालन वैध मान लिया जाएगा (कम से कम न्यायालयीन दृष्टिकोण से)। |
| SIT रिपोर्ट: कुछ उल्लंघन पाए गए (औपचारिक, दस्तावेज़ संबंधी, पशु कल्याण, वित्तीय) | कोर्ट सुधारात्मक आदेश जारी कर सकती है — जैसे ज़ब्त करना, पुनर्वास आदेश, परिवर्तित संचालन, ऑडिट, निगरानी उपाय। |
| SIT रिपोर्ट: गंभीर उल्लंघन, अवैध आयात/तस्करी, वित्तीय गड़बड़ी | कोर्ट बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप कर सकती है — Vantara को बंद करना, पक्षकारों पर दंड देना, अनुपालन योजना पेश करना। |
| कोर्ट यह आदेश दे सकती है कि भविष्य में इस तरह की याचिकाएँ विशेष मानदंडों पर पेश की जाएँ — यानी पहले संज्ञानात्मक रपट ले कर। | यह न्यायालयीय प्रक्रिया को स्थायित्व और पारदर्शिता दे सकती है। |
मैं अनुमान लगाऊँ तो यह संभावना अधिक है कि सुप्रीम कोर्ट एक संशोधित संचालन–मानदंड / सुधारात्मक आदेश जारी करेगी, जहाँ Vantara को निश्चित मानदंडों, रिपोर्टिंग, नियमित निरीक्षण की शर्तों पर संचालित किया जाएगा।
6. मेरे विचार एवं संवैधानिक संतुलन
इस मामले में मैं निम्न कुछ विचार प्रस्तुत करना चाहूँगा:
- न्यायालय को अपने सीमित संसाधनों के अधीन रहना होगा
सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह तकनीकी, लगभग वैज्ञानिक विषयों को स्वयं तय न करने की कोशिश करे, बल्कि विशेष विशेषज्ञों या SIT को भरोसा करे, और उन पर अपनी न्यायालयीन समीक्षा लागू करे। - संतुलन बनाना: संरक्षण बनाम नवाचार
यदि Vantara जैसी परियोजनाएँ वास्तव में जिम्मेदार, पारदर्शी और नियामक अनुपालन में हों, तो उन्हें पूरी तरह निषिद्ध करना भी न्याय नहीं है। बल्कि उन्हें बेहतर निगरानी और जवाबदेही देना चाहिए। - पारदर्शिता व खुलापन आवश्यक
Vantara सहित अन्य बड़े वन्यजीव परियोजनाओं को अपनी ऑडिट रिपोर्ट, आयात / स्वामित्व प्रमाणपत्र, वित्तीय विवरण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना चाहिए। इससे न्यायालय, पर्यावरण संगठनों और जनता को आश्वासन मिलेगा। - नियमों का समेकन और सुदृढता
भारतीय वन्यजीव कानून, पशु कल्याण कानून और CITES अनुपालन प्रावधानों में कभी-कभी जटिल और असंगत विषय होते हैं। न्यायालय और संसद को इस दिशा में सुधार करना चाहिए ताकि ऐसी परियोजनाएँ स्पष्ट नियमों के मार्गदर्शन में हो सकें। - दीर्घकालीन निगरानी तंत्र
यदि कोर्ट Vantara को कार्य करने की अनुमति देती है, तो एक निरंतर, स्वतंत्र पर्यवेक्षक दल (monitoring authority) या पर्यावरण न्यायाधिकरण की स्थापना होनी चाहिए जो नियमित निरीक्षण और सार्वजनिक रिपोर्टिंग सुनिश्चित करे।
7. निष्कर्ष
CR Jaya Sukin व अन्य बनाम Union of India (Vantara प्रकरण) भारत में एक मील का पत्थर हो सकता है — न केवल वन्यजीव संरक्षण कानूनों और न्यायालयीय हस्तक्षेप की सीमाओं की कसौटी पर, बल्कि यह दिखाएगा कि कैसे बड़े सामाजिक–पर्यावरणीय विवादों में न्यायालय निष्पक्ष और संतुलित भूमिका निभा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में प्रथम दृष्टि से यह माना है कि Vantara द्वारा किए गए अधिग्रहण, “prima facie” रूप से नियमों के दायरे में आ सकते हैं, और बिना तथ्य परीक्षण के दोषारोपण नहीं किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण में न्यायालय ने संतुलन का रास्ता अपनाया — आरोपों को देखा और साथ ही तथ्य जुटाने की व्यवस्था की।
आगे का निर्णय पूरी तरह से SIT की निष्कर्ष रिपोर्ट, पक्षों की दलीलों और न्यायालयीय विवेचना पर निर्भर होगा। मुझे उम्मीद है कि अदालत इस मामले में व्यापक रूप से न्याय करेगी — संरक्षण एवं विकास के बीच, न्याय और स्वायत्तता के बीच संतुलन बनाकर।
यदि चाहें, तो मैं आपको भविष्य के सुनवाई प्रस्ताव, संभावित दलील-संरचनाएँ और कानूनी रणनीति भी तैयार कर सकता हूँ — बताइए, आगे करना है?