शीर्षक:
“नाबालिगों में गर्भपात की कानूनी जटिलताएँ: भारतीय कानून, न्यायिक दृष्टिकोण और व्यावहारिक चुनौतियाँ”
भूमिका
नाबालिग गर्भधारण का मामला केवल एक चिकित्सीय समस्या नहीं है, बल्कि यह कानूनी, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जटिलताओं का मिश्रण है। भारत में, अधिकांश नाबालिग गर्भधारण बलात्कार, यौन शोषण या बाल विवाह का परिणाम होते हैं। ऐसे मामलों में गर्भपात का निर्णय नाबालिग की आयु, अभिभावक की सहमति, कानून की समयसीमा, और मेडिकल रिपोर्ट पर निर्भर करता है।
भारतीय कानून, विशेष रूप से मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (संशोधित 2021), नाबालिग गर्भवती लड़कियों को गर्भपात की अनुमति देता है, लेकिन इसके साथ कई प्रक्रियात्मक और कानूनी अड़चनें जुड़ी हुई हैं। इस लेख में हम नाबालिगों में गर्भपात के कानूनी ढाँचे, न्यायिक दृष्टिकोण और सुधार की आवश्यकता पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
1. कानूनी ढाँचा
1.1 मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट, 1971
- धारा 3(4)(a) – यदि गर्भवती महिला नाबालिग (18 वर्ष से कम) है, तो गर्भपात के लिए अभिभावक/अभिभावकों की लिखित सहमति अनिवार्य है।
- 24 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति (विशेष परिस्थितियों में, जैसे बलात्कार या भ्रूण में गंभीर विकृति)।
- 20 सप्ताह तक – एक पंजीकृत चिकित्सा प्रैक्टिशनर (RMP) की राय पर्याप्त।
- 20-24 सप्ताह – दो RMP की राय आवश्यक।
- समयसीमा पार होने पर – मेडिकल बोर्ड और न्यायालय की अनुमति अनिवार्य।
1.2 पॉक्सो एक्ट, 2012 (POCSO Act)
- 18 वर्ष से कम के साथ किसी भी तरह का यौन संबंध सहमति से भी अपराध माना जाता है।
- यदि गर्भवती लड़की नाबालिग है, तो डॉक्टर को गर्भपात की प्रक्रिया शुरू करने से पहले पुलिस को सूचना देना अनिवार्य है।
- यह अनिवार्यता पीड़िता और उसके परिवार के लिए अक्सर गोपनीयता और सामाजिक कलंक का कारण बनती है।
1.3 भारतीय दंड संहिता (IPC)
- धारा 312-316 IPC – गर्भपात को अपराध मानती हैं, लेकिन मां की जान बचाने के लिए किया गया गर्भपात अपवाद है।
- नाबालिग के मामले में गर्भपात का कानूनी आधार प्रायः MTP Act और POCSO Act का संयुक्त उपयोग होता है।
2. न्यायिक दृष्टिकोण
- Murugan Nayakkar v. Union of India (2017)
- सुप्रीम कोर्ट ने 13 वर्षीय बलात्कार पीड़िता को 32 सप्ताह की गर्भावस्था में भी गर्भपात की अनुमति दी, क्योंकि गर्भ को जारी रखना पीड़िता के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था।
- X v. Union of India (2022)
- कोर्ट ने नाबालिग बलात्कार पीड़िता के लिए समयसीमा में लचीलापन दिखाया और यह माना कि ‘समय सीमा’ के कठोर पालन से पीड़िता के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं।
- Re: Minor Girl (Kerala HC, 2021)
- हाई कोर्ट ने कहा कि नाबालिग पीड़िता के मामले में अभिभावक की सहमति के साथ ही मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए।
3. व्यावहारिक चुनौतियाँ
3.1 अभिभावक की सहमति की अनिवार्यता
- कई बार गर्भधारण घर के भीतर यौन शोषण का परिणाम होता है। ऐसे में पीड़िता के लिए अभिभावक की सहमति लेना कठिन हो जाता है।
3.2 POCSO रिपोर्टिंग का दबाव
- डॉक्टर के लिए पुलिस को सूचना देना कानूनी रूप से अनिवार्य है, लेकिन इससे पीड़िता और परिवार में भय और सामाजिक दबाव पैदा होता है।
3.3 समयसीमा पार होना
- नाबालिग को अक्सर गर्भावस्था का देर से पता चलता है, जिससे 24 सप्ताह की सीमा पार हो सकती है और मामला कोर्ट में जाना पड़ता है।
3.4 गोपनीयता का उल्लंघन
- स्कूल, अस्पताल और पुलिस में गोपनीयता के उल्लंघन से सामाजिक कलंक और मानसिक आघात बढ़ता है।
4. अंतरराष्ट्रीय तुलना
- यूके – नाबालिग अपनी ‘परिपक्वता’ (Gillick competence) सिद्ध करके बिना अभिभावक की सहमति गर्भपात करा सकती है।
- कनाडा – कोई न्यूनतम आयु सीमा नहीं, बल्कि डॉक्टर तय करता है कि लड़की निर्णय लेने में सक्षम है या नहीं।
- भारत – अभिभावक की सहमति अनिवार्य, जिससे कई मामलों में पीड़िता के अधिकार सीमित हो जाते हैं।
5. सुधार की दिशा
- अभिभावक सहमति में लचीलापन – यदि अभिभावक ही आरोपी हों या सहमति न दें, तो कोर्ट या चाइल्ड वेलफेयर कमेटी से अनुमति ली जा सके।
- POCSO रिपोर्टिंग के साथ संवेदनशील दृष्टिकोण – पुलिस और डॉक्टर को प्रशिक्षित किया जाए ताकि प्रक्रिया पीड़िता के लिए कम तनावपूर्ण हो।
- मेडिकल बोर्ड की त्वरित उपलब्धता – हर जिला अस्पताल में आपातकालीन मेडिकल बोर्ड का गठन।
- गोपनीयता कानून का सख्त पालन – पहचान उजागर करने पर सख्त दंड।
- जागरूकता अभियान – नाबालिगों और उनके अभिभावकों को गर्भपात के कानूनी विकल्पों और समयसीमा के बारे में समय पर जानकारी।
निष्कर्ष
नाबालिगों में गर्भपात के मामले मानवाधिकार, स्वास्थ्य और कानून के त्रिकोण पर खड़े होते हैं। भारत का कानून बलात्कार और गंभीर स्वास्थ्य जोखिम में गर्भपात की अनुमति देता है, लेकिन अभिभावक की सहमति, POCSO रिपोर्टिंग, और समयसीमा जैसी बाधाएँ कई बार पीड़िता के हित में लचीलापन मांगती हैं। सुधार का उद्देश्य यह होना चाहिए कि नाबालिग की गरिमा, गोपनीयता और स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता पर हों, और कानून संवेदनशीलता के साथ न्याय दे।