“नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 दीवानी न्याय व्यवस्था की प्रभावशीलता का मेरुदंड है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।

“नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 दीवानी न्याय व्यवस्था की प्रभावशीलता का मेरुदंड है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।

परिचय (Introduction):

किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में न्याय प्राप्ति का अधिकार मौलिक होता है। भारत में, जहां संविधान नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता की गारंटी देता है, वहां इन अधिकारों को व्यवहार में लाने के लिए प्रक्रियात्मक विधियों की आवश्यकता होती है। नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code – CPC) इसी आवश्यकता की पूर्ति करती है। यह भारतीय न्याय प्रणाली का एक ऐसा विधिक उपकरण है जो दीवानी मुकदमों की संपूर्ण कार्यवाही को निर्धारित करता है।


नागरिक प्रक्रिया संहिता की भूमिका:

1. न्यायिक अनुशासन का निर्माण:

CPC न्यायालयों के अधिकार, शक्तियाँ, अधिकार क्षेत्र और दायरे को स्पष्ट रूप से परिभाषित करती है, जिससे न्यायिक अनुशासन और संरचना का विकास होता है।

2. मुकदमे की प्रारंभ से निर्णय तक की प्रक्रिया:

CPC वाद दायर करने से लेकर अंतिम डिक्री के निष्पादन तक की प्रत्येक प्रक्रिया को क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करती है, जिससे पक्षकारों को न्यायिक कार्यवाही समझने और अपनाने में सुविधा होती है।

3. निष्पक्षता और प्राकृतिक न्याय:

CPC के सिद्धांत ‘प्रत्येक पक्ष को सुनने का अवसर देना (Audi Alteram Partem)’ और ‘पूर्व निर्णय बाध्यकारी होता है (Res Judicata)’ निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करते हैं।


मुख्य विशेषताएं जो इसे दीवानी प्रक्रिया की रीढ़ बनाती हैं:

(क) सार्वभौमिकता और लचीलापन:

  • यह भारत के सभी राज्यों में समान रूप से लागू होती है (कुछ अपवादों को छोड़कर)।
  • समयानुसार इसमें संशोधन कर इसे आधुनिक आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया गया है।

(ख) संरचित प्रक्रिया:

  • वाद कैसे दायर हो, पक्षकारों को कैसे सम्मन भेजा जाए, साक्ष्य कैसे लिए जाएं, निर्णय कैसे दिया जाए — ये सभी प्रावधान स्पष्ट रूप से दिए गए हैं।

(ग) अपील और पुनरीक्षण की व्यवस्था:

  • यदि किसी पक्ष को निचली अदालत के निर्णय पर आपत्ति है, तो वह उच्चतर अदालत में अपील, पुनरीक्षण या पुनर्विचार कर सकता है। यह न्याय के द्वार को खुला रखता है।

(घ) निष्पादन (Execution) का विस्तृत तंत्र:

  • आदेश 21 में डिक्री के निष्पादन की विस्तृत प्रक्रिया दी गई है, जिससे न्याय केवल कागजों तक सीमित न रहे, बल्कि व्यवहार में परिणत हो।

प्रमुख उदाहरण और केस लॉ:

  • Satyadhyan Ghosal v. Deorajin Debi (AIR 1960 SC 941):
    Res Judicata के सिद्धांत की व्याख्या – न्यायिक अनुशासन का आधार।
  • T. Arivandandam v. T.V. Satyapal (1977 AIR 2421):
    निराधार और परेशान करने वाले मुकदमों को प्रारंभ में ही खारिज करने की CPC की शक्ति पर बल दिया गया।
  • Salem Advocate Bar Association v. Union of India (2005):
    CPC में हुए 2002 के संशोधनों को न्यायालय ने संवैधानिक माना और वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) की दिशा में CPC के विस्तार को उचित ठहराया।

चुनौतियाँ और सुधार की दिशा:

1. मुकदमों की दीर्घता:

  • CPC की प्रक्रिया में अनेक चरण होते हैं, जिससे न्याय में विलंब होता है।

2. प्रक्रियात्मक दुरुपयोग:

  • कई बार पक्षकार तकनीकी प्रक्रियाओं का दुरुपयोग कर कार्यवाही को खींचते हैं।

3. तकनीकी जटिलताएं:

  • आम नागरिकों के लिए इसकी भाषा और प्रक्रिया समझना कठिन हो सकता है।

समाधान:

  • ई-कोर्ट, ई-फाइलिंग, ADR, समयबद्ध सुनवाई जैसे उपायों से इन चुनौतियों को दूर किया जा रहा है।

निष्कर्ष (Conclusion):

नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 भारतीय न्याय व्यवस्था की प्रक्रियात्मक आत्मा है। यह केवल एक विधिक दस्तावेज नहीं, बल्कि न्याय की प्राप्ति की दिशा में मार्गदर्शक प्रकाश है। इसकी स्पष्टता, निष्पक्षता और कार्यात्मक संरचना इसे दीवानी कानूनों की प्रभावशीलता का मेरुदंड बनाती है। हालांकि इसमें कुछ सुधार की आवश्यकता है, फिर भी यह भारतीय लोकतंत्र में नागरिकों को न्याय दिलाने की प्रक्रिया को स्थायित्व और विश्वसनीयता प्रदान करता है।