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धारा 7 IBC में प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ ‘घातक नहीं’: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय—दोष सुधार योग्य, याचिका खारिज करना उचित नहीं

धारा 7 IBC में प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ ‘घातक नहीं’: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय—दोष सुधार योग्य, याचिका खारिज करना उचित नहीं

प्रस्तावना

      भारतीय दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code – IBC) में धारा 7 के तहत वित्तीय ऋणदाता द्वारा दायर आवेदन देश की दिवाला प्रक्रिया का केंद्रीय स्तंभ है। यह आवेदन किसी कॉरपोरेट देनदार के खिलाफ दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू करने का पहला औपचारिक कदम होता है। व्यावहारिक तौर पर, वित्तीय ऋणदाताओं द्वारा दायर हजारों आवेदनों में अक्सर विभिन्न प्रकार की प्रक्रियात्मक कमियाँ पाई जाती हैं—जैसे कि गलत प्रारूप में हलफ़नामा, अधूरे दस्तावेज़, गलत सत्यापन, कुछ कॉलम का रिक्त रह जाना, अथवा ऋण विवरण की अधूरी प्रविष्टि। कई बार NCLT इन कमियों को आधार बनाकर धारा 7 के आवेदन को प्रारंभिक चरण में ही खारिज कर देता है।

        इसी परिप्रेक्ष्य में, सुप्रीम कोर्ट ने 24 नवंबर को एक अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि धारा 7 का आवेदन मात्र प्रक्रियात्मक दोषों के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसी कमियाँ curable यानी सुधार योग्य होती हैं। न्यायालय ने यह भी दोहराया कि IBC एक आर्थिक कानून है जिसका उद्देश्य दिवाला समाधान है, न कि ऋणदाता और देनदार के बीच तकनीकी विवादों को बढ़ाना। अतः प्रक्रिया संबंधी त्रुटियों को वाद के निर्णायक आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

       यह निर्णय न केवल NCLT और NCLAT की कार्यशैली को प्रभावित करेगा, बल्कि ऋणदाताओं के लिए भी बड़ी राहत लेकर आया है, क्योंकि अब प्रक्रियात्मक भूलें आवेदन की ‘मौत’ नहीं होंगी। नीचे इस निर्णय का विस्तृत विश्लेषण, इसका कानूनी प्रभाव और IBC के व्यापक ढांचे में इसकी महत्ता पर विस्तृत चर्चा प्रस्तुत है।


1. मामला क्या था?—संक्षिप्त तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

         इस मामले में वित्तीय ऋणदाता ने IBC की धारा 7 के तहत एक आवेदन NCLT में दायर किया था। आवेदन के साथ संलग्न हलफ़नामे (affidavit) में तकनीकी दोष था—

  • हलफ़नामा अपेक्षित प्रारूप में नहीं था,
  • कुछ स्थानों पर सत्यापन अधूरा था,
  • और आवेदन में कुछ दस्तावेज़ों का क्रम भी त्रुटिपूर्ण था।

        NCLT ने बिना मूल विवाद की जांच किए, केवल इन प्रक्रियात्मक कमियों के आधार पर आवेदन खारिज कर दिया। ऋणदाता ने इस निष्कासन के खिलाफ NCLAT का दरवाज़ा खटखटाया, परंतु वहीं भी उसे राहत नहीं मिली। अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा।


2. सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट संदेश—IBC में प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ ‘Curable’ हैं

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—

“IBC एक आर्थिक कानून है। इसका उद्देश्य समाधान (resolution) सुनिश्चित करना है, न कि तकनीकी त्रुटियों के आधार पर आवेदनों का दमन।”

न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि—

“यदि धारा 7 के आवेदन में कोई प्रक्रियात्मक कमी है, जैसे कि defective affidavit, तो उसे सुधार का अवसर दिए बिना आवेदन खारिज करना न्यायसंगत नहीं है।”

यह टिप्पणी IBC की शुरुआत से लेकर अब तक के सबसे व्यावहारिक और उदार दृष्टिकोण में से एक है।


3. सुप्रीम कोर्ट ने किन सिद्धांतों पर जोर दिया?

(A) Substantive justice over technical justice

IBC की प्रकृति में आर्थिक न्याय निहित है। न्यायालय ने कहा कि form (प्रपत्र) से अधिक महत्वपूर्ण substance (सामग्री/मुख्य अधिकार) है। यदि ऋण और चूक (default) स्पष्ट हैं, तो हलफ़नामे की तकनीकी कमी आवेदन को अस्वीकार करने का कारण नहीं हो सकती।

(B) Defects are curable, not fatal

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार—

  • defective affidavit,
  • incomplete documents,
  • wrong serial numbering,
  • गलत तारीख,
  • सत्यापन की कमी—
    ये सभी दोष सुधारे जा सकते हैं, और इनके लिए उचित समय दिया जाना चाहिए।

(C) Natural Justice—सुनवाई का अधिकार

यदि आवेदन में कमी है तो NCLT को—

  1. नोटिस देकर
  2. सुधार का अवसर देते हुए
  3. समय निर्दिष्ट करते हुए

आवेदक को गलती सुधारने के लिए कहना चाहिए।

(D) IBC को ‘procedural terrorism’ का क्षेत्र नहीं बनने देना चाहिए

कोर्ट ने साफ किया कि दिवाला कानून को ऐसी जगह नहीं बनाया जा सकता जहां छोटी-छोटी प्रक्रियात्मक गलतियों के कारण आर्थिक विवादों का समाधान ही अवरुद्ध हो जाए।


4. धारा 7 के उद्देश्यों का न्यायालय ने पुनः स्मरण कराया

IBC की धारा 7 का उद्देश्य है—

  1. वित्तीय ऋणदाता को त्वरित राहत देना,
  2. समयबद्ध समाधान लागू करना,
  3. कॉरपोरेट देनदार को पुनर्जीवित करना,
  4. आर्थिक परिसंपत्तियों के मूल्य को सुरक्षित रखना,
  5. ऋण के डिफॉल्ट की समय पर पहचान करना।

यदि केवल प्रक्रियात्मक त्रुटियों के कारण आवेदन हटाया जाता है, तो यह धारा 7 के उद्देश्यों को ही हानि पहुँचाता है।


5. सुप्रीम कोर्ट ने किन पूर्व निर्णयों पर भरोसा किया?

(i) Swiss Ribbons Pvt. Ltd. v. Union of India (2019)

इस निर्णय में अदालत ने कहा था कि collateral purpose कभी भी IBC का उद्देश्य नहीं हो सकता और तकनीकी त्रुटियों को मुख्य विवाद का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।

(ii) Innoventive Industries v. ICICI Bank (2017)

इस मामले में धारा 7 में “ऋण + चूक” को मुख्य तत्व बताया गया। प्रक्रियात्मक औपचारिकताएँ द्वितीयक हैं।

(iii) Surendra Trading Co. v. Juggilal Kamalapat (2017)

यहाँ भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि फॉर्मेट की कमियाँ सुधार योग्य हैं।

इन सभी सिद्धांतों का उपयोग करते हुए अदालत ने धारा 7 की प्रकृति को substantive और प्रक्रियात्मक जरूरतों को ancillary बताया।


6. NCLT और NCLAT की त्रुटि—सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—

  • NCLT को धारा 7 आवेदन को ‘non-maintainable’ घोषित करने से पहले सुधार का अवसर देना चाहिए था।
  • NCLT की भूमिका दिवाला समाधान प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की है, न कि उसे तकनीकी आधार पर रोक देने की।
  • NCLAT ने भी रिकॉर्ड की वास्तविकताओं पर ध्यान दिए बिना आदेश को सही ठहराकर गलती की।

इस प्रकार दोनों ट्रिब्यूनलों का दृष्टिकोण “hyper-technical” कहा गया।


7. निर्णय का दिवाला कानून पर व्यापक प्रभाव

(A) ऋणदाताओं को राहत

अब हलफ़नामे की गलतियों, अधूरे कागज़ों या गलत सत्यापन के कारण वित्तीय ऋणदाता का आवेदन नहीं हटेगा।

(B) NCLT के लिए दिशानिर्देश

  • आवेदनों को सुधार के लिए वापस भेजा जाएगा।
  • समयसीमा निर्धारित होगी।
  • Non-curable defect और curable defect में भेद स्पष्ट होगा।

(C) दिवाला प्रक्रिया की गति बढ़ेगी

पहले तकनीकी आधार पर खारिज होने वाले अनेक मामलों में

  • नई फाइलिंग,
  • अपील,
  • और अनावश्यक देरी होती थी।

अब यह समस्या समाप्त होगी।

(D) IBC में ‘Substantive Justice’ के सिद्धांत की पुनः प्रतिष्ठा

यह निर्णय IBC के उद्देश्यों को मजबूत करेगा और व्यावहारिकता को बढ़ाएगा।


8. निर्णय के बाद व्यावहारिक मार्गदर्शन (Practitioners Guide)

वित्तीय ऋणदाताओं को ध्यान रखना चाहिए:

  1. IBC फ़ॉर्म-1 पूरी तरह भरा हो।
  2. आवश्यक दस्तावेज़ संलग्न हों।
  3. हलफ़नामे को सही प्रारूप में सत्यापित किया जाए।

लेकिन यदि गलती रह भी जाए—

अब घबराने की जरूरत नहीं।

NCLT को पहले नोटिस देकर कमी सुधारने का अवसर अवश्य देना होगा।

कॉरपोरेट देनदारों को भी सावधान रहना होगा

वे अब केवल प्रक्रियात्मक दोषों के आधार पर धारा 7 आवेदन को रोक नहीं सकेंगे।


9. यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है?—नीति और व्यवहार पर प्रभाव

(i) IBC का उद्देश्य ‘Resolution’ है, न कि ‘Rejection’

प्रक्रियात्मक त्रुटियों के आधार पर याचिकाओं को खारिज करना IBC के दर्शन के विपरीत था।

(ii) न्यायिक समय और आर्थिक संसाधनों की बचत

बार-बार नए आवेदन दायर करने की जरूरत नहीं पड़ेगी—
इससे न्यायालयों का बोझ भी कम होगा।

(iii) देश की दिवाला प्रणाली की विश्वसनीयता बढ़ेगी

विदेशी निवेशकों और वित्तीय संस्थानों को संदेश जाएगा कि भारतीय दिवाला प्रक्रिया

  • तकनीकी उलझनों में नहीं फँसती,
  • बल्कि आर्थिक वास्तविकताओं को प्राथमिकता देती है।

(iv) Loan Recovery Ecosystem को मजबूती

सुधार योग्य दोष अब वसूली को नहीं रोकेंगे।


10. निष्कर्ष—प्रक्रियात्मक न्याय से अधिक महत्वपूर्ण आर्थिक न्याय

        सुप्रीम कोर्ट का 24 नवंबर का यह निर्णय IBC की व्याख्या को नई दिशा देता है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि धारा 7 आवेदन का मूल उद्देश्य चूक (default) का निर्धारण है, न कि हलफ़नामे का प्रारूप जांचना।

ऐसे में यह कहना उचित होगा कि—

“IBC में प्रक्रियात्मक कमियाँ मृत्यु-दोष (fatal) नहीं, बल्कि उपचार योग्य (curable) हैं।”

         यह न्यायिक घोषणा दिवाला कानून को तकनीकी पेचीदगियों से मुक्त कर एक अधिक न्यायसंगत, व्यावहारिक और आर्थिक रूप से सक्षम कानून के रूप में प्रस्तुत करती है। साथ ही यह तय करती है कि छोटे-से प्रारूपिक दोष से आर्थिक न्याय का पहिया नहीं रुकेगा।

        इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर IBC के मूल दर्शन—समाधान, दक्षता और आर्थिक स्थिरता—को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है।