धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के अंतर्गत अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज करने की शक्ति — केवल असाधारण परिस्थितियों में प्रयोग योग्य : कर्नाटक उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय
भूमिका:
भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code, 1973) का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्षता और न्याय सुनिश्चित करना है। इसी क्रम में धारा 391 CrPC अपीलीय न्यायालय को यह अधिकार प्रदान करती है कि वह किसी अपील के विचारण के दौरान आवश्यक समझे तो अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज करवा सकता है। परंतु यह शक्ति असीमित (absolute) नहीं है, बल्कि सीमित एवं विवेकाधीन (discretionary) है। हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय (Karnataka High Court) ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह दोहराया कि धारा 391 CrPC के अंतर्गत अतिरिक्त साक्ष्य केवल “दुर्लभ और असाधारण परिस्थितियों” में ही स्वीकार्य हैं, जब यह स्पष्ट हो कि पक्षकार ने पर्याप्त सावधानी बरती थी, फिर भी वह ट्रायल के दौरान साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाया।
मामले की पृष्ठभूमि:
वर्तमान मामला धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act, 1881) से संबंधित था, जिसमें आरोपी को चेक बाउंस के अपराध में दोषी ठहराया गया था।
विचारण के दौरान आरोपी ने धारा 91 CrPC के तहत कुछ दस्तावेजों को मंगाने के लिए आवेदन किया था, जिसे ट्रायल कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया। वह आदेश अंतिम हो गया क्योंकि आरोपी ने उस निर्णय को चुनौती नहीं दी।
बाद में, अपील की कार्यवाही के दौरान आरोपी ने धारा 391 CrPC के तहत फिर से उन्हीं दस्तावेजों को प्रस्तुत करने की अनुमति मांगी। उसका कहना था कि यह दस्तावेज़ न्याय के लिए आवश्यक हैं और उसके बचाव के अधिकार से जुड़े हैं।
किन्तु अभियोजन पक्ष ने इसका विरोध किया और कहा कि यह आवेदन केवल मुकदमे को लंबा करने का प्रयास है और आरोपी को पहले ही पर्याप्त अवसर प्रदान किया जा चुका था।
मुख्य विधिक प्रावधान:
- धारा 391(1) CrPC — अपीलीय न्यायालय यदि आवश्यक समझे तो स्वयं अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज कर सकता है या उसे निचली अदालत से दर्ज करवा सकता है।
- धारा 91 CrPC — किसी दस्तावेज़ या वस्तु को न्यायालय में प्रस्तुत करवाने का अधिकार देता है, यदि वह न्यायिक निर्णय के लिए आवश्यक हो।
- धारा 138, एन.आई. एक्ट — चेक अनादर (dishonour of cheque) से संबंधित अपराध और उसकी दण्डात्मक प्रक्रिया को निर्धारित करती है।
न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न:
- क्या अपीलीय न्यायालय धारा 391 CrPC के अंतर्गत किसी भी परिस्थिति में अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज कर सकता है?
- क्या आरोपी का आवेदन केवल मुकदमे की प्रक्रिया को लंबा करने का प्रयास था?
- क्या पहले से अस्वीकृत धारा 91 CrPC के आवेदन को धारा 391 CrPC के माध्यम से पुनर्जीवित किया जा सकता है?
न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय:
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विस्तृत रूप से यह स्पष्ट किया कि धारा 391 के अंतर्गत दी गई शक्ति साधारण रूप से प्रयोग नहीं की जा सकती। यह केवल न्याय के हित में अत्यंत आवश्यक होने पर ही प्रयोग की जानी चाहिए।
न्यायालय ने कहा —
“धारा 391 CrPC का उद्देश्य न्याय की सहायता करना है, न कि मुकदमे की प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से लंबा करना।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि किसी पक्षकार ने ट्रायल के दौरान पर्याप्त अवसरों के बावजूद साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया, तो अपील में उसे फिर से वह अवसर नहीं दिया जा सकता।
इस मामले में, याचिकाकर्ता ने ट्रायल के दौरान धारा 91 CrPC के तहत दस्तावेज मंगाने का प्रयास किया था, जो अस्वीकार कर दिया गया और अंतिम हो गया। अब अपील में वही दस्तावेज़ धारा 391 CrPC के माध्यम से पुनः मंगाने का प्रयास न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग (abuse of process of law) माना गया।
न्यायालय का निष्कर्ष:
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय के आदेश को सही ठहराते हुए कहा कि:
- अतिरिक्त साक्ष्य तभी स्वीकार किए जा सकते हैं जब यह न्याय के लिए अत्यावश्यक हो।
- धारा 391 CrPC कोई अधिकार (right) नहीं है, बल्कि विवेकाधीन शक्ति (discretionary power) है, जो अपीलीय न्यायालय न्याय के हित में उपयोग कर सकता है।
- यदि ट्रायल के दौरान पर्याप्त सावधानी नहीं बरती गई हो, तो बाद में उसका लाभ नहीं दिया जा सकता।
- इस मामले में आरोपी का आवेदन मात्र मुकदमे की कार्यवाही को लंबा करने के लिए किया गया था। अतः इसे अस्वीकृत करना उचित था।
विधिक सिद्धांत और न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- “न्यायिक विवेक का प्रयोग” (Judicial Discretion):
धारा 391 CrPC का प्रयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब यह स्पष्ट हो कि बिना अतिरिक्त साक्ष्य के न्याय नहीं हो सकता। यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है कि वह कब इसे आवश्यक समझे। - “न्याय के उद्देश्य से प्रयोग, न कि प्रक्रिया के दुरुपयोग के लिए” (For Justice, Not Delay):
यदि कोई पक्ष केवल मुकदमे को लंबा करने या दोषसिद्धि से बचने के लिए इस प्रावधान का उपयोग करे, तो न्यायालय को ऐसा आवेदन अस्वीकार करना चाहिए। - “पहले अवसर पर पर्याप्त सावधानी” (Due Diligence Requirement):
यदि किसी पक्ष ने ट्रायल के दौरान अपने बचाव के लिए आवश्यक प्रयास नहीं किए, तो अपील में उसे दूसरा मौका नहीं दिया जा सकता।
महत्वपूर्ण न्यायिक उद्धरण:
न्यायालय ने Zahira Habibulla Sheikh v. State of Gujarat (2004) मामले का हवाला देते हुए कहा कि:
“धारा 391 का उद्देश्य न्याय में सच्चाई की खोज है, न कि प्रक्रिया की पुनरावृत्ति।”
इसी प्रकार Rajeshwar Prasad Misra v. State of West Bengal (1965) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि यह शक्ति “rare and exceptional circumstances” में ही प्रयोग की जानी चाहिए।
व्यवहारिक प्रभाव (Practical Implication):
- वकीलों के लिए:
उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि साक्ष्य प्रस्तुत करने के सभी अवसर ट्रायल के दौरान ही प्रयोग करें। अपील में अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। - न्यायालयों के लिए:
उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि धारा 391 का उपयोग केवल तभी किया जाए जब न्यायिक आवश्यकता वास्तव में हो, न कि प्रक्रिया में देरी के लिए। - मुकदमेबाज पक्षों के लिए:
यह निर्णय यह संदेश देता है कि किसी भी मुकदमे में प्रारंभिक चरण में ही अपने सभी प्रमाण एवं दस्तावेज प्रस्तुत कर देना चाहिए, अन्यथा बाद में अवसर नहीं मिलेगा।
निष्कर्ष:
कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण दिशा देता है। यह स्पष्ट करता है कि धारा 391 CrPC के अंतर्गत अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज करने की शक्ति कोई स्वाभाविक या निरपेक्ष अधिकार नहीं है, बल्कि यह केवल न्याय के हित में प्रयोग होने वाली एक असाधारण शक्ति है।
इस निर्णय से यह सिद्धांत दृढ़ होता है कि न्यायालयों को “न्याय के संतुलन” (Balance of Justice) को ध्यान में रखकर ही इस शक्ति का प्रयोग करना चाहिए — न तो किसी निर्दोष को अन्याय का शिकार बनने दिया जाए, और न ही किसी दोषी को प्रक्रिया का दुरुपयोग करने दिया जाए।