धारा 377 (2018 का फैसला): समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर समाज में समावेशिता की दिशा में ऐतिहासिक कदम
भूमिका
भारतीय समाज लंबे समय तक लिंग और यौनिकता से जुड़े मुद्दों पर रूढ़िवादी दृष्टिकोण अपनाता रहा है। विशेष रूप से भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377, जिसे ब्रिटिश काल में लागू किया गया था, समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखती थी। यह प्रावधान केवल कानूनी रूप से ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी LGBTQ+ समुदाय को हाशिये पर धकेलने का कारण बना।
6 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने Navtej Singh Johar v. Union of India मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सहमति से स्थापित वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। यह निर्णय मानवाधिकार, गरिमा और समानता की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हुआ।
धारा 377 का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- उत्पत्ति: धारा 377 को 1861 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय दंड संहिता में जोड़ा।
- प्रावधान: यह धारा “प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत यौन संबंध” को अपराध मानती थी, जिसमें समलैंगिक संबंध भी शामिल थे।
- दंड: दोषी पाए जाने पर आजीवन कारावास या 10 वर्ष तक की कैद और जुर्माना।
- समस्या:
- यह धारा LGBTQ+ समुदाय को अपराधी ठहराती थी।
- यौनिक पहचान के आधार पर भेदभाव को वैधता देती थी।
- निजी सहमति से बने संबंधों में भी राज्य का हस्तक्षेप।
समलैंगिकता और सामाजिक दृष्टिकोण
- भारतीय परंपरा में कामसूत्र और प्राचीन साहित्य में समलैंगिक संबंधों का उल्लेख है, लेकिन औपनिवेशिक काल में इन्हें नैतिक अपराध माना जाने लगा।
- आधुनिक काल में समाज में समलैंगिकता के प्रति पूर्वाग्रह, भेदभाव और हिंसा आम थी।
- LGBTQ+ व्यक्तियों को नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पारिवारिक जीवन में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता था।
धारा 377 के खिलाफ कानूनी संघर्ष
- नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार (2001–2009)
- नाज़ फाउंडेशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की मांग की।
- 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए धारा 377 को आंशिक रूप से असंवैधानिक घोषित किया।
- सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन (2013)
- सुप्रीम कोर्ट ने 2009 के फैसले को पलट दिया और कहा कि धारा 377 संवैधानिक है, इसे हटाने का अधिकार संसद के पास है।
- इस फैसले से LGBTQ+ समुदाय को भारी निराशा हुई।
- Navtej Singh Johar बनाम भारत संघ (2016–2018)
- कई प्रसिद्ध व्यक्तियों और कार्यकर्ताओं ने धारा 377 को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।
- 6 सितंबर 2018 को पांच जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि सहमति से बने वयस्कों के समलैंगिक संबंध अपराध नहीं हैं।
2018 के फैसले के मुख्य बिंदु
- संविधान पीठ: मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंगटन नारिमन, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा।
- मुख्य तर्क:
- अनुच्छेद 14 – कानून के समक्ष समानता।
- अनुच्छेद 15 – लिंग और यौनिकता के आधार पर भेदभाव का निषेध।
- अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, जिसमें निजता का अधिकार भी शामिल है।
- फैसले का सार:
- सहमति से बने वयस्कों के बीच यौन संबंध अपराध नहीं।
- LGBTQ+ व्यक्तियों को गरिमा के साथ जीने का अधिकार।
- पूर्वाग्रह और भेदभाव असंवैधानिक।
- यौनिक पहचान मानव का प्राकृतिक गुण है, इसे अपराध नहीं माना जा सकता।
निर्णय का सामाजिक और कानूनी प्रभाव
- सामाजिक स्वीकृति में वृद्धि – LGBTQ+ समुदाय के अस्तित्व और अधिकारों को मुख्यधारा में मान्यता मिली।
- मानवाधिकारों की मजबूती – निजता, स्वतंत्रता और समानता के अधिकार को विस्तार मिला।
- भेदभाव में कमी – हालांकि सामाजिक स्तर पर अभी भी चुनौतियां हैं, लेकिन कानूनी सुरक्षा मिलने से स्थिति बेहतर हुई।
- अंतरराष्ट्रीय छवि में सुधार – भारत उन देशों की श्रेणी में आ गया जहां समलैंगिकता अपराध नहीं है।
बची हुई चुनौतियां
- सामाजिक मानसिकता – ग्रामीण और पारंपरिक क्षेत्रों में अब भी समलैंगिकता को गलत समझा जाता है।
- कानूनी मान्यता की कमी – समलैंगिक विवाह, गोद लेने का अधिकार और सामाजिक सुरक्षा अभी भी कानूनी रूप से मान्य नहीं।
- भेदभाव और हिंसा – कई मामलों में कार्यस्थल, परिवार और समाज में अस्वीकार्यता बनी हुई है।
भविष्य की दिशा
2018 का फैसला LGBTQ+ अधिकारों की दिशा में पहला बड़ा कदम है, लेकिन पूर्ण समानता के लिए आगे और सुधार आवश्यक हैं:
- समलैंगिक विवाह की कानूनी मान्यता।
- भेदभाव-रोधी कानून का निर्माण।
- जागरूकता अभियान – स्कूल, कॉलेज और कार्यस्थलों पर यौनिक विविधता को स्वीकार करने की शिक्षा।
- मानसिक स्वास्थ्य सहायता – LGBTQ+ युवाओं के लिए विशेष हेल्पलाइन और परामर्श केंद्र।
निष्कर्ष
धारा 377 के 2018 के फैसले ने भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में मानवाधिकार और समानता के क्षेत्र में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ा। यह निर्णय सिर्फ एक कानूनी बदलाव नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति है, जिसने LGBTQ+ समुदाय को उनके अस्तित्व की मान्यता, गरिमा और स्वतंत्रता दी। हालांकि आगे की राह लंबी है, लेकिन यह फैसला इस दिशा में पहला और सबसे मजबूत कदम है, जो भारत को एक अधिक समावेशी और संवेदनशील समाज की ओर ले जाता है।