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धारा 319 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अतिरिक्त आरोपी सम्मन करने की शक्ति : सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण

धारा 319 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अतिरिक्त आरोपी सम्मन करने की शक्ति : सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) न्यायिक कार्यवाही के लिए व्यापक ढांचा प्रदान करती है। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अपराध का संज्ञान लेने के बाद न केवल आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर मिले बल्कि पीड़ित और समाज को भी न्याय प्राप्त हो। इसी क्रम में धारा 319 CrPC एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है, जिसके माध्यम से न्यायालय यह सुनिश्चित कर सकता है कि कोई भी वास्तविक दोषी व्यक्ति केवल इस आधार पर बच न पाए कि उसका नाम पुलिस की प्रारंभिक चार्जशीट में शामिल नहीं किया गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक निर्णयों में स्पष्ट किया है कि यदि कोई व्यक्ति एफआईआर (First Information Report) में नामित है, परंतु जाँच के दौरान पुलिस ने उसे पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में चार्जशीट (Charge Sheet) में सम्मिलित नहीं किया, तब भी ट्रायल कोर्ट को यह अधिकार है कि वह उसे आरोपी के रूप में बुलाए और मुकदमे में सम्मिलित करे, यदि कार्यवाही के दौरान उसके खिलाफ पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत होती है। यह सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि अपराध में शामिल प्रत्येक दोषी को न्याय के दायरे में लाया जाना चाहिए।


धारा 319 CrPC का प्रावधान

धारा 319 CrPC कहती है :
“यदि किसी अपराध की सुनवाई या जाँच के दौरान, न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति, जो पहले से आरोपी नहीं है, ने अपराध किया है, तो न्यायालय उसे भी अभियोजन में सम्मिलित कर सकता है और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है।”

इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं –

  1. न्यायालय की यह शक्ति केवल पुलिस चार्जशीट तक सीमित नहीं है।
  2. यदि कार्यवाही के दौरान प्रत्यक्षदर्शी गवाही, दस्तावेजी साक्ष्य या अन्य सामग्री से किसी व्यक्ति की संलिप्तता सामने आती है, तो उसे आरोपी के रूप में जोड़ा जा सकता है।

उद्देश्य

धारा 319 CrPC का उद्देश्य न्याय को पूर्ण करना है। न्यायालय का काम केवल उन्हीं आरोपियों तक सीमित नहीं है जिन्हें पुलिस ने चार्जशीट में शामिल किया है, बल्कि उन सभी व्यक्तियों को दंड प्रक्रिया में सम्मिलित करना है जिनके विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। यदि कोई वास्तविक दोषी केवल चार्जशीट से नाम छूट जाने के कारण बच जाए तो यह न्याय के सिद्धांत के विपरीत होगा।


सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख अवलोकन

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में धारा 319 CrPC की व्याख्या की है। इनसे कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत उभरकर सामने आते हैं –

  1. एफआईआर में नामित व्यक्ति को भी सम्मन किया जा सकता है – यदि चार्जशीट में नाम नहीं है लेकिन एफआईआर में उसका नाम दर्ज है और मुकदमे के दौरान गवाह उसकी संलिप्तता दर्शाते हैं, तो न्यायालय उसे आरोपी बना सकता है।
  2. केवल गंभीर साक्ष्य पर्याप्त नहीं, बल्कि प्रथम दृष्टया अपराध का संकेत आवश्यक है – अदालत को यह देखना होगा कि प्रस्तुत सामग्री इतनी मजबूत है कि प्रथम दृष्टया यह माना जा सके कि व्यक्ति अपराध में शामिल था।
  3. न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति – यह शक्ति स्वतः प्रयोग नहीं होगी, बल्कि न्यायालय को तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर विवेकपूर्ण निर्णय लेना होगा।
  4. पुलिस रिपोर्ट पर निर्भरता आवश्यक नहीं – अदालत केवल पुलिस की रिपोर्ट पर आश्रित नहीं है। यदि गवाहों की गवाही या अन्य साक्ष्य से संलिप्तता सामने आती है, तो अदालत कार्रवाई कर सकती है।
  5. न्याय के हित में अपरिहार्य – इस शक्ति का प्रयोग न्यायिक विवेक और सावधानी से किया जाना चाहिए ताकि निर्दोष व्यक्ति को झूठा न फंसाया जाए, साथ ही कोई वास्तविक अपराधी न्याय से बच न सके।

महत्वपूर्ण निर्णय

(1) हिम्मत सिंह बनाम राज्य (2009)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 319 CrPC का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अपराध में शामिल सभी व्यक्तियों को न्यायिक प्रक्रिया में शामिल किया जाए, भले ही पुलिस ने उन्हें चार्जशीट में न रखा हो।

(2) हरदयाल सिंह बनाम राज्य (2010)

कोर्ट ने माना कि यदि गवाहों की गवाही से स्पष्ट हो कि किसी व्यक्ति ने अपराध किया है, तो ट्रायल कोर्ट को उसे अभियोजन में सम्मिलित करने का पूरा अधिकार है।

(3) सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम दृष्टिकोण

हाल के निर्णयों (2023–2024) में भी सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि चार्जशीट में नाम न होने के बावजूद आरोपी को सम्मन किया जा सकता है, यदि कार्यवाही के दौरान पर्याप्त साक्ष्य सामने आए। यह शक्ति केवल औपचारिक नहीं है, बल्कि न्यायालय पर यह दायित्व भी है कि वह इसे प्रयोग कर वास्तविक दोषियों को न्याय के कटघरे में खड़ा करे।


व्यावहारिक महत्व

धारा 319 CrPC का प्रयोग विशेष रूप से उन मामलों में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है जहाँ –

  • जाँच में लापरवाही या पक्षपात हुआ हो।
  • पुलिस ने प्रभावशाली व्यक्तियों का नाम चार्जशीट से हटा दिया हो।
  • मुकदमे के दौरान नए तथ्य या गवाह सामने आए हों।

इससे पीड़ित और समाज को विश्वास मिलता है कि न्यायालय केवल पुलिस की जाँच पर आश्रित नहीं है, बल्कि स्वतंत्र रूप से साक्ष्य के आधार पर दोषियों को न्याय के दायरे में लाता है।


निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दंड प्रक्रिया में न्यायालय की सक्रिय भूमिका को रेखांकित करता है। धारा 319 CrPC केवल एक औपचारिक प्रावधान नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण साधन है कि कोई भी दोषी व्यक्ति कानून के शिकंजे से बाहर न रह पाए।

एफआईआर में नामित व्यक्ति का चार्जशीट से बाहर रहना उसे दोषमुक्त नहीं करता। यदि कार्यवाही के दौरान उसकी संलिप्तता साबित होती है, तो अदालत उसे सम्मन कर सकती है और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। यह प्रावधान न्यायिक प्रणाली को और अधिक प्रभावी बनाता है तथा अपराधियों को बच निकलने से रोकता है।

इस प्रकार, धारा 319 CrPC न्याय को व्यापक और संपूर्ण रूप में लागू करने का माध्यम है, जिसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि “कोई भी निर्दोष व्यक्ति दंडित न हो और कोई भी अपराधी दंड से बच न सके।”