शीर्षक: “धारा 313 CrPC व धारा 351 BNSS के अनुपालन पर उच्च न्यायालयों की ज़िम्मेदारी: सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी व दिशा-निर्देश”
परिचय:
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 313 और नवीनतम भारतीय न्याय संहिता, 2023 (Bharatiya Nyaya Sanhita – BNSS) की धारा 351 का अनुपालन न केवल अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांत का आधार भी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में इस बात पर बल दिया कि उच्च न्यायालयों को शीघ्रता से यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इन धाराओं का पूर्ण अनुपालन हो, अन्यथा दोषसिद्धियों को निरस्त (acquittal) करना पड़ सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि:
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अपील पर सुनवाई करते हुए यह अवलोकन किया कि ट्रायल कोर्ट द्वारा धारा 313 CrPC के तहत अभियुक्त का बयान ठीक से दर्ज न करना या सतही रूप से दर्ज करना, संपूर्ण प्रक्रिया को दोषपूर्ण बना देता है। यह अभियुक्त के आत्म-स्पष्टीकरण के अधिकार का हनन है।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उच्च न्यायालयों को निचली अदालतों की ओर से धारा 313 CrPC और BNSS की धारा 351 के अनुपालन में की गई चूक की गहन जांच करनी चाहिए। यदि ये चूकें गंभीर हैं, तो अभियोजन की वैधता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है।
धारा 313 CrPC और धारा 351 BNSS का महत्व:
CrPC की धारा 313:
- यह धारा अभियुक्त को यह अवसर देती है कि वह मुकदमे के दौरान आए सभी साक्ष्यों पर अपनी प्रतिक्रिया और स्पष्टीकरण दे सके।
- यह निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांत (Principle of Fair Trial) का एक अनिवार्य भाग है।
- इसके तहत अभियुक्त के निजी बयान दर्ज किए जाते हैं, ताकि वह अपनी स्थिति स्पष्ट कर सके।
BNSS की धारा 351 (जो CrPC की धारा 313 का ही परिष्कृत रूप है):
- BNSS में इसी अधिकार को दोहराया गया है और अधिक सुसंगत प्रक्रिया प्रदान की गई है।
- इसमें बयानों की रिकॉर्डिंग, प्रश्नों की स्पष्टता, और अभियुक्त को समय देने की प्रक्रिया को अधिक सख्त बनाया गया है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और निर्देश:
सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि:
- अभियुक्त को अपने खिलाफ लगे आरोपों और साक्ष्यों का स्पष्ट रूप से उत्तर देने का मौका मिलना चाहिए।
- यदि इस प्रक्रिया में कोई चूक होती है — जैसे अभियुक्त को समझाए बिना प्रश्न पूछना, अधूरे या सामान्य प्रश्न पूछना, या उत्तर दर्ज न करना — तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता) का उल्लंघन माना जाएगा।
- अदालतों को केवल औपचारिकता के रूप में धारा 313 के तहत प्रश्न नहीं पूछने चाहिए, बल्कि प्रत्येक साक्ष्य बिंदु पर अभियुक्त का स्पष्ट उत्तर प्राप्त करना अनिवार्य है।
अधीनस्थ न्यायालयों की त्रुटियाँ और उनकी प्रतिक्रिया:
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि:
- निचली अदालतें कई बार औपचारिक सवालों के जरिए प्रक्रिया पूरी कर देती हैं, जिससे अभियुक्त को असली बचाव का मौका नहीं मिलता।
- इस तरह की प्रक्रिया पारदर्शिता और न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि धारा 313 या 351 का पालन नहीं किया गया है और यह साबित होता है कि इससे अभियुक्त को पूर्वाग्रह हुआ है, तो दोषसिद्धि रद्द की जा सकती है।
उच्च न्यायालयों की भूमिका और दायित्व:
- शीघ्र समीक्षा सुनिश्चित करें:
अपील या पुनरीक्षण याचिकाओं में यह देखा जाए कि क्या ट्रायल कोर्ट ने धारा 313 या धारा 351 का सही अनुपालन किया। - जवाबदेही तय करें:
यदि अनुपालन में चूक पाई जाती है, तो यह देखा जाए कि क्या यह चूक अभियुक्त को पूर्वाग्रहित करती है, और यदि हाँ, तो दोषसिद्धि को निरस्त किया जाए। - अधीनस्थ न्यायालयों को प्रशिक्षण और निर्देश जारी करें:
ताकि वे जान सकें कि CrPC/BNSS की इन धाराओं का सही अनुपालन कैसे किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:
धारा 313 CrPC और धारा 351 BNSS केवल तकनीकी औपचारिकताएँ नहीं हैं, बल्कि यह अभियुक्त के लिए आखिरी अवसर होते हैं जब वह अपने खिलाफ लगे आरोपों पर सीधे रूप से अदालत के सामने अपनी बात रख सकता है। यदि इस प्रक्रिया को हल्के में लिया जाए, तो पूरा मुकदमा पक्षपातपूर्ण बन सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी केवल एक तकनीकी निर्देश नहीं, बल्कि भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की मूल आत्मा की रक्षा का आह्वान है। उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों को यह समझना होगा कि न्याय केवल सजा देना नहीं, बल्कि निष्पक्षता, सुनवाई और मानवाधिकारों की रक्षा के साथ संतुलन बनाए रखना है।
“न्याय तब पूर्ण होता है जब न केवल गवाह बोले, बल्कि अभियुक्त को भी सुनने का पूरा अवसर मिले।”
— सुप्रीम कोर्ट, भारत