शीर्षक: धारा 223, भारतीय न्याय संहिता (BNSS), 2023 के अंतर्गत प्राक-ज्ञान (Pre-Cognizance) चरण में आरोपी को अपनी प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने की अनुमति: सत्र न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट की सीमाएं और विवेकाधिकार
भूमिका
न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता, निष्पक्षता और अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा भारतीय विधि प्रणाली के मूल स्तंभ हैं। भारतीय न्याय संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita – BNSS) की धारा 223 एक ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र को नियंत्रित करती है जहाँ न्यायालयों को यह निर्णय लेना होता है कि क्या किसी अभियुक्त को प्राक-ज्ञान (pre-cognizance) चरण में ही अपनी प्रतिरक्षा (defence) प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। यह लेख इस प्रश्न की गहराई से पड़ताल करता है कि किस सीमा तक सत्र न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को ऐसा करने की शक्ति है, और इसके कानूनी प्रभाव क्या हैं।
धारा 223, BNSS की संक्षिप्त व्याख्या
धारा 223 का मूल उद्देश्य न्यायालय को यह शक्ति प्रदान करना है कि वह किसी आरोपी को अभियोजन की प्रक्रिया में प्रारंभिक स्तर पर ही यह अवसर दे सके कि वह अपनी निर्दोषता या प्रतिरक्षा को स्पष्ट कर सके, यदि न्यायालय को ऐसा करने का पर्याप्त कारण प्रतीत होता है।
यह प्रावधान पूर्ववर्ती दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 210 या 239 के न्यायिक सिद्धांतों के समानांतर माना जा सकता है, परंतु BNSS में इसे व्यापक और स्पष्ट रूप में दर्शाया गया है।
प्राक-ज्ञान (Pre-Cognizance) चरण का अर्थ
प्राक-ज्ञान चरण वह समय होता है जब:
- पुलिस रिपोर्ट (FIR) दर्ज हो चुकी होती है,
- जाँच चल रही होती है या पुलिस द्वारा रिपोर्ट दायर की जानी होती है,
- परंतु न्यायालय द्वारा उस अपराध पर “ज्ञान” (cognizance) नहीं लिया गया होता।
इस चरण में न्यायालय की भूमिका सीमित होती है, क्योंकि वह अभी तक अभियोजन की विधिवत सुनवाई आरंभ नहीं करता है।
सत्र न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की भूमिका और विवेकाधिकार
1. विधिक विवेक (Judicial Discretion)
धारा 223 के अंतर्गत, न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि वह यह मूल्यांकन करे कि क्या आरोपी को प्रारंभिक स्तर पर अपनी प्रतिरक्षा रखने की अनुमति देना उचित होगा। यह अधिकार अनिवार्य नहीं बल्कि वैकल्पिक (discretionary) है। इसका अर्थ है कि हर आरोपी को स्वतः यह अधिकार नहीं मिलता, बल्कि न्यायालय स्थिति विशेष में यह निर्णय लेता है।
2. न्यायिक सीमाएँ
न्यायालय को इस अधिकार का प्रयोग करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना होता है:
- क्या आरोपी के पास प्रस्तुत करने के लिए प्राथमिक और निर्णायक दस्तावेज़ या तथ्य हैं जो जांच को प्रभावित कर सकते हैं?
- क्या प्रतिरक्षा का प्रस्तुतिकरण केवल जांच को बाधित करने या विलंबित करने का प्रयास है?
- क्या ऐसे तथ्यों का स्पष्ट रूप से FIR या प्रारंभिक रिपोर्ट में उल्लेख नहीं है, और वे आरोपी के पक्ष में निर्णायक हो सकते हैं?
3. पूर्व जांच में हस्तक्षेप की सीमा
सत्र न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट इस चरण में जांच में हस्तक्षेप नहीं कर सकते, परंतु यदि आरोपी कोई ऐसा तथ्य प्रस्तुत करता है जो जांच के दायरे से बाहर है या झूठे आरोप की ओर संकेत करता है, तो न्यायालय उस पर विचार कर सकता है।
प्रासंगिक न्यायिक दृष्टांत
1. State of Haryana v. Bhajan Lal (1992 AIR 604)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायालय को यह अधिकार है कि वह दुर्भावनापूर्ण या मनमाने ढंग से दर्ज किए गए मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है।
2. Zandu Pharmaceutical Works Ltd. v. Mohd. Sharaful Haque (2005)
अदालत ने कहा कि यदि कोई आरोपी पहले ही ऐसी सामग्री प्रस्तुत करता है जिससे यह साबित होता हो कि वह अपराध में शामिल नहीं है, तो न्यायालय प्राथमिकी को रद्द करने पर विचार कर सकता है।
3. Niranjan Singh Karam Singh v. Jitendra Bhimraj Bijaya (1990 SCR Supl. (1) 633)
यह स्पष्ट किया गया कि जब तक जांच पूरी नहीं होती और आरोपपत्र दाखिल नहीं होता, तब तक आरोपी को स्वतः अपनी प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है, जब तक न्यायालय ऐसा करने की अनुमति न दे।
संभाव्य परिदृश्य जहाँ न्यायालय अनुमति दे सकता है
- दस्तावेज़ी प्रमाण पहले से उपलब्ध हों – जैसे कि कॉल रिकॉर्ड, लोकेशन डाटा, सीसीटीवी फुटेज जो आरोपी की निर्दोषता दिखाते हों।
- मामले में स्पष्ट पूर्वाग्रह या दुर्भावना हो – राजनीतिक कारणों से झूठी FIR दर्ज होना।
- आरोपी कोई संवैधानिक अधिकारी या विशिष्ट स्थिति वाला हो, और उसकी गतिविधियों का रिकॉर्ड पहले से न्यायालय के समक्ष हो।
अति शीघ्र प्रतिरक्षा देने के दुष्परिणाम
हालांकि यह अधिकार आरोपी के हित में है, लेकिन यदि इसे अनियंत्रित रूप से लागू किया जाए तो:
- जांच प्रक्रिया बाधित हो सकती है।
- अभियोजन पक्ष को अपने आरोप स्थापित करने का समय नहीं मिलेगा।
- आरोपी इसका दुरुपयोग कर जांच में हस्तक्षेप कर सकता है।
इसलिए इस अधिकार को अत्यंत संयम और विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 223 न्यायिक विवेक और अभियुक्त के अधिकारों के बीच एक संतुलन बनाती है। सत्र न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को यह अधिकार तो प्राप्त है कि वे आरोपी को प्राक-ज्ञान चरण में प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने की अनुमति दें, परंतु यह अधिकार सीमित और नियंत्रित है।
इसका प्रयोग विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए, जहाँ आरोपी के पास स्पष्ट और निर्णायक सामग्री हो, और न्यायालय को यह प्रतीत हो कि ऐसा करने से न केवल न्यायिक समय की बचत होगी बल्कि न्याय की अभिव्यक्ति भी अधिक स्पष्ट रूप से हो सकेगी।
अतः धारा 223 आरोपी को प्रारंभिक स्तर पर न्याय प्राप्ति का एक अवसर तो देती है, किंतु इसकी अनुमति देना न्यायालय का एक विवेकाधिकार है, न कि आरोपी का स्वाभाविक या स्वतः प्राप्त अधिकार।