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“धारा 187 BNSS के अंतर्गत अंतरिम जमानत की अवधि ‘कैद अवधि’ में शामिल नहीं होगी: केरल उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय”

 Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023 (BNSS) की धारा 187 के अंतर्गत आने वाले “निर्धारित अवधि के पश्चात क़ैद” (स्टैट्यूटरी बेल / डिफॉल्ट बेल) के व्यवसाय, तथा यह विषय कि क्या “इंटरिम बेल पर रिहाई की अवधि” को ‘कैद अवधि’ के रूप में गिना जाना चाहिए या नहीं — इस पर Kerala High Court द्वारा दिया गया निर्णय एवं उसके विवेचनात्मक आयाम दिए गए हैं।


प्रस्तावना

भारतीय दण्ड प्रक्रिया-संहिता (Cr.P.C.) के अंतर्गत हमारी न्यायव्यवस्था में “निर्धारित अवधि में चार्जशीट न फाइल होने पर आरोपी को बेल का अधिकार” (default bail) की अवधारणा-विशेष स्थापित है। इसी क्रम में BNSS की धारा 187 ने अनुसंधान-निराकरण तथा गिरफ्तार आरोपी की हिरासत-काल को नियंत्रित करने वाले प्रावधान स्थापित किए हैं।
मामले के भावार्थ को समझने के लिए – कि क्या इंटरिम बेल पर छोड़े गए आरोपी की रिहाई की अवधि को ‘कैद’ (detention) में रखा जाना चाहिए या नहीं — हालिया केरल हाई-कोर्ट के निर्णय में महत्वपूर्ण दिशानिर्देश दिये गए हैं। उदाहरण स्वरूप, Mohammed Sajjid विषयक निर्णय में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि धारा 187(3) के अंतर्गत निर्धारित अवधि केवल हिरासत की अधिकतम अवधि है; इस विभाग में ‘इंटरिम बेल’ पर रिहा रहना ‘कैद’ अवधि में नहीं गिना जाएगा।
इसी तरह, K. Salma Jennath विषयक निर्णय में भी यही दृष्टिकोण सामने आया: “इंटरिम बेल पर रिहाई की अवधि” को हिरासत-काल (detention period) के वक्‍त में शामिल नहीं माना जा सकता।

इस लेख में हम क्रमशः — (1) धारा 187 BNSS का कानूनी स्वरूप तथा उद्देश्यों का अवलोकन, (2) कोर्ट द्वारा ‘कैद अवधि’ (‘detention period’) की व्याख्या व सीमाएं, (3) “इंटरिम बेल” एवं उसकी अवधि की स्थिति पर न्यायालय की दृष्टि, (4) केरल केवल विशेष रूप से निर्णय-विश्लेषण, (5) व्यावहारिक सुझाव तथा निष्कर्ष — प्रस्तुत करेंगे।


धारा 187 BNSS – उद्देश्यों एवं संरचना

धारा 187 BNSS शीर्षक “Procedure when investigation cannot be completed in twenty-four hours” है। इसके अंतर्गत प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं:

  • उप-धारा (1) मुख्य रूप से उस स्थिति से सम्बन्धित है जब कोई व्यक्ति गिरफ्त ार हो गया हो और यह प्रतीत होता हो कि जांच २४ घंटे में पूरी नहीं की जा सकती।
  • उप-धारा (2) के अंतर्गत, उस मैजिस्ट्रेट को, जिसे आरोपी अग्रेषित हुआ हो, विचार करके उस आरोपी को पुलिस हिरासत में १५ दिनों तक (पूरे में या विभाजित रूप से) अथवा अन्य निर्दिष्ट अवधि तक (प्रकरण के प्रकारानुसार) निरुद्ध रखने का अधिकार है।
  • उप-धारा (3) में विवेचन किया गया कि यदि “उचित कारण” मौजूद हो तो मैजिस्ट्रेट हिरासत अवधि आगे बढ़ा सकता है, परन्तु यह अवधि निम्नानुसार है:
    • (i) ९० दिन (ninety days) जहाँ अपराध दंडनीय हो मृत्यु, आजीवन कारावास, या दस वर्ष से अधिक कारावास से।
    • (ii) ६० दिन (sixty days) जहाँ अन्य सामान्य अपराध हों।
  • लेकिन यदि मामला Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985 (NDPS Act) की व्यावसायिक मात्रा से संबंधित हो, तो धारा 36A(4) के अंतर्गत यह अवधि ९० दिन से १८० दिन (one hundred eighty days) तक बढ़ाई जा सकती है।
  • उप-धारा (3) में यह स्पष्ट किया गया है कि “यदि उक्त अवधि (९०/६०/१८०) के समाप्ति पर भी जांच पूर्ण न हुई हो तो आरोपी को बेल पर रिहा किया जाना चाहिए, यदि वह बेल की शर्तें स्वीकार करने को तैयार हो।”

इस प्रकार, धारा 187 BNSS का मूल उद्देश्य है – गिरफ्त ारी के बाद प्रारम्भिक च­ैक-शिट प्रस्तुत न हो पाने की स्थिति में ‘रिक्त’ हिरासत अवधि को सीमित करना तथा जांच एजेन्सियों द्वारा असीमित नियोजन के दबाव से बचाना। इस तरह यह ‘स्टैट्यूटरी बेल’ (default bail) का आधार भी बनती है।


हिरासत-काल (Detention Period) की व्याख्या – मानक एवं सीमाएँ

यह जानना महत्वपूर्ण है कि धारा 187(3) में जिस ‘अधिकतम अवधि’ का उल्लेख है, वह हिरासत की अधिकतम अवधि (मैक्सिमम रिमांड) को सीमित करती है, न कि सीधे “चार्जशीट फाइलिंग का समय-सीमा” (filing of final report) को। इस दृष्टि से, न्यायालयों ने यह निर्धारित किया है कि यह अवधि हिरासत में रहने वाले आरोपी के लिए एक अपरिहार्य सीमा है — इस अवधि समाप्ति पर अगर जांच पूरी न हुई है, तो आरोपी को बेल पर रिहा करना अनिवार्य हो जाता है।
उदाहरणार्थ, केरल हाई-कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि धारा 187(3) “कोई समय-सीमा नहीं देती कि जांच या फाइनल रिपोर्ट कितनी जल्दी दाखिल होनी है; वह केवल हिरासत पूर्व अधिकतम अवधि तय करती है।”

इसका मतलब यह हुआ कि यदि अधिकतम अवधि (६०/९०/१८० दिन) बीत गई हो और आरोपी बेल देने के लिए तैयार हो, तो उसे रिहा किया जाना चाहिए — अन्यथा हिरासत आगे चलना अनै वैधानिक हो जाती है।
यहाँ एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि ‘हिरासत की अवधि’ में क्या-क्या शामिल होगा — क्या अदालत में “इंटरिम बेल” पर रिहाई का समय, या गिरफ्तारी से बेल तक का समय, ‘हिरासत’ माना जाएगा या नहीं? इस प्रश्न पर न्यायालयों ने विवेचनात्मक दृष्टिकोण दिया है।


“इंटरिम बेल” की अवधारणा एवं उसकी अवधि – क्या वह हिरासत-काल में शामिल?

“इंटरिम बेल” से तात्पर्य उस बेल से है जिसे नियमित न्यायिक सुनवाई तक (या विशेष शर्तों के साथ) अस्थाई रूप से जारी किया जाता है — जैसे कि अभियुक्त को तय शर्तों पर छोड़ देना, जबकि मुख्य मुकदमा या सुनवाई जारी है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब आरोपी को इंटरिम बेल पर छोड़ा गया हो, तो क्या उस रिहाई से पहले बिताई गई ‘इंटरिम बेल-सी अवधि’ को हिरासत-काल (detention) की अवधि के रूप में गिना जाना चाहिए या नहीं?

केरल हाई-कोर्ट ने इस संबंध में स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि इंटरिम बेल पर रिहाई की अवधि ‘कैद’ या ‘हिरासत’ अवधि नहीं मानी जाएगी
मुख्य बिंदु निम्न हैं:

  • अभियुक्त की हिरासत समाप्त हो जाती है जब वह कोर्ट द्वारा बेल पर छोड़ा जाता है — उस क्षण से उसकी ‘कैद अवधि’ समाप्त मानी जाती है।
  • इसके बाद चाहे वह बेल पर हो या स्थगित रिहाई (interim release) पर हो, उस समय को ‘अवकाश’ या ‘हिरासत से बाहर’ माना जाना चाहिए, न कि हिरासत-काल में।
  • इसलिए, जब धारा 187(3) में उक्त ‘६०/९०/१८० दिन’ की अवधि की गणना होगी, तो उस अवधि में इंटरिम बेल-पर छोड़े जाने की अवधि शामिल नहीं होगी।

उदाहरण केरल हाई-कोर्ट में — के Salma Jennath एवं Mohammed Sajjid के मामले — में न्यायाधीश ने कहा कि “इंटरिम बेल पर रिहाई की अवधि को हिरासत-काल से नहीं जोड़ा जा सकता”।
इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी बताया कि धारा 10 (General Clauses Act, 1897) के तहत छुट्टियों की अवधि को समय-सीमा बढ़ाने की प्रभावशीलता इस मामले में लागू नहीं होती क्योंकि धारा 187(3) ने फाइलिंग के समय-सीमा को नहीं, बल्कि हिरासत की अवधि को निर्धारित किया है।

इसलिए व्यावहारिक रूप से यह स्पष्ट हुआ कि यदि अभियुक्त को अंतरिम बेल मिली हो, तो उस बेल मिलने के बाद का समय ‘कैद अवधि’ से अंका नहीं जाएगा — और यदि बाकी हिरासत-काल की अवधि समाप्त हो चुकी हो और बेल-शर्तें पूरी हों, तो स्टैट्यूटरी बेल की मांग मान्यता पाएगी।


केरल हाई-कोर्ट के निस्‍चयनात्मक निर्णय एवं विवेचन

1. Mohammed Sajjid का मामला

– आरोपी धारा 22(b) NDPS Act अंतर्गत था, जिसमें अधिकतम सजा “दस वर्ष तक का कारावास” थी।
– केरल हाई-कोर्ट ने यह माना कि चूंकि यहाँ न्यूनतम सजा ‘दस वर्ष’ निर्धारित नहीं थी, इसलिए धारा 187(3)(ii) (६० दिन की अवधि) लागू होगी न कि ९० दिन की।
– अदालत ने यह कहा कि आरोपी इंटरिम बेल पर था, और उसके बाद अभियुक्त ने बेल-शर्तें स्वीकार की, अतः हिरासत-काल समाप्त हो चुकी थी और उसे स्टैट्यूटरी बेल मिलनी चाहिए।

2. K. Salma Jennath का मामला

– इस मामले में विशेष रूप से “इंटरिम बेल पर रिहाई को हिरासत-काल में नहीं गिनने” की बात स्पष्ट हुई।
– न्यायालय ने यह भी जोर दिया कि धारा 10 General Clauses Act लागू नहीं होती क्योंकि धारा 187(3) जांच-समय नहीं फाइलिंग-समय को सीमित करती है।

3. अन्य दृष्टांत एवं सिद्धांत

  • न्यायालय ने माना कि स्टैट्यूटरी बेल का अधिकार मूल रूप से इस बात पर आधारित है कि हिरासत-काल निर्धारित अवधि से आगे न चले। यह अधिकार व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रावधान (धारा 21, संविधान) से जुड़ा हुआ है।
  • साथ ही, केरल हाई-कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मैजिस्ट्रेट को हिरासत authorised करते समय यह सुनिश्चित करना होगा कि अधिकतम अवधि पार न हो जाए; यदि पार हो जाती है तो हिरासत आगे बढ़ाना विरुद्ध होगा।

विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण

(अ) सिद्धांत-विपरीत चिंताएँ

  1. इंटरिम बेल पर रहने की अवधि को न गिनने का अर्थ
    – एक ओर यह दृष्टिकोण आरोपी की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है — क्योंकि यदि बेल मिलने का समय हिरासत-काल में गिना जाना हो तो बेल मिलने में देरी उसे अधिकार से वंचित कर सकती थी।
    – दूसरी ओर, यह प्रायोगिक रूप से जटिल स्थिति उत्पन्न कर सकता है जहाँ अभियुक्त को बेल पर छोड़ने के बाद ट्रायल तक लंबा समय बीत जाए, और फिर उसे “हिरासत-काल” समाप्त न माना जाए।
  2. हिरासत-काल की ‘गणना’ का तथ्यात्मक निर्धारण
    – हिरासत के आरम्भ-बिंदु (arrest, remand order, कोर्ट-आदेश) एवं समाप्ति-बिंदु (बेल आदेश, रिहाई) का निर्धारण प्रैक्टिस में विवादित हो सकता है।
    – इंटरिम बेल मिलने के बाद यदि आरोपी को फिर से हिरासत में लिया जाए, तो उस अवधि को कैसे गिनें — पूर्व बेल के बाद की अवधि, पुनः हिरासत आदि के प्रश्न उठते हैं।
  3. जांच/फाइनल रिपोर्ट प्रस्तुत न होने की स्थिति में अभियुक्त को कितना सक्रिय रहना चाहिए
    – बेल मिलने के बाद अभियुक्त को शर्तों में सहमत रहना, जाँच में सहयोग देना, उपस्थित रहना आदि अपेक्षित हैं। यदि वह इनका उल्लंघन करता है तो बेल कैंसिलेशन और पुनः हिरासत संभव है।

(ब) उद्देश्य-अनुकूलता

– हिरासत-काल को सीमित करना न्यायशास्त्रीय रूप से भी समुचित है — क्योंकि स्वतंत्रता का ह्रास तत्काल प्रभावी है। स्टैट्यूटरी बेल इस दृष्टि से एक संवैधानिक नियंत्रण-यंत्र है।
– इंटरिम बेल को हिरासत-काल से अलग रखना इस दृष्टिकोण को बल देता है कि once released, accused is no longer under detention — यही न्यायशास्त्रीय मर्यादा सुरक्षित करती है।
– इससे पुलिस/प्रोसीक्यूशन द्वारा हिरासत का समय अनिश्चित काल तक खींचने का प्रयास कम होगा।

(स) व्यावहारिक सुझाव

  1. अभियुक्त या उसके पक्षकार को ध्यान देना चाहिए कि बेल आवेदन करते समय यह स्पष्ट किया जाए कि इंटरिम बेल से हिरासत समाप्त हुई थी या नहीं, ताकि बाद में अवधि-गणना में विवाद न हो।
  2. कोर्ट को भी बेल आदेश में स्पष्ट लिखना चाहिए “इंटरिम बेल दिनांक … से जारी” और बेल के अन्त समय का उल्लेख हो ताकि हिरासत-काल की गिनती सुगम हो सके।
  3. जांच-एजेंसी को सजग रहना चाहिए कि यदि हिरासत-काल (६०/९०/१८० दिन) समाप्ति के करीब है, तो या तो फाइनल रिपोर्ट दाखिल करें या समय-विस्तार हेतु प्रयुक्त विधि अपनाएं; न तो हिरासत अवैध हो।
  4. यदि अभियुक्त ने इंटरिम बेल प्राप्त की है, तो वे बेल की शर्तों का पालन करते रहें — ताकि बेल निरस्त न हो और पुनः हिरासत-काल शुरू न हो जाए।
  5. अभ्यर्थियों को नए BNSS के प्रावधानों से अवगत रहना चाहिए, क्योंकि Cr.P.C. की पुरानी धारा 167 की तुलना में कुछ वोट-विवाद हैं — उदाहरणस्वरूप “दस वर्ष या अधिक” की व्याख्या।

निष्कर्ष

संक्षिप्त रूप से —
– धारा 187 BNSS के अंतर्गत ‘हिरासत-काल’ को मैजिस्ट्रेट द्वारा अधिकतम ६०/९०/१८० दिनों तक सीमित किया गया है; यह अवधि जांच पूरा न होने पर बेल का अधिकार स्थापित करती है।
– “इंटरिम बेल पर रिहाई की अवधि” को हिरासत-काल में शामिल नहीं माना जाना चाहिए — ऐसा केरल हाई-कोर्ट ने स्पष्ट किया है।
– इसलिए, यदि आरोपी को इंटरिम बेल मिली हो और उस बेल से हिरासत समाप्त हो चुकी हो, तो बाद की अवधि ‘कैद’ नहीं मानी जाएगी, और यदि मैक्सिमम हिरासत-काल समाप्त हो गया हो, आरोपी को स्टैट्यूटरी बेल का अधिकार स्वतः उपलब्ध होगा।
– यह व्यवस्था आरोपी-स्वतंत्रता तथा न्याय-प्रक्रिया की गति-उचितता के बीच संतुलन स्थापित करती है।
– हालांकि, प्रैक्टिकल रूप से अभियुक्त, कोर्ट और जाँच-एजेंसी को इस व्यवस्था को सही तरह से लागू करने हेतु सजग रहना चाहिए।