शीर्षक:
धारा 138 परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के अंतर्गत “विष्णु मित्तल बनाम शक्ति ट्रेडिंग कंपनी” में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय और उसकी विधिक व्याख्या
परिचय:
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 भारत में चेक बाउंस के मामलों से संबंधित एक महत्वपूर्ण और प्रभावी विधिक प्रावधान है। यह धारा उस स्थिति में लागू होती है जब कोई व्यक्ति जानबूझकर या बिना उचित कारण के, चेक द्वारा दी गई राशि का भुगतान करने में विफल रहता है। इस धारा के अंतर्गत न्यायालयिक कार्यवाही तभी शुरू की जा सकती है जब कुछ अनिवार्य विधिक शर्तें पूरी हो जाती हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने “विष्णु मित्तल बनाम शक्ति ट्रेडिंग कंपनी” के मामले में इस बात को स्पष्ट किया कि धारा 138 के अंतर्गत अपराध की उत्पत्ति चेक बाउंस होने की तिथि से नहीं होती, बल्कि डिमांड नोटिस की प्राप्ति के बाद 15 दिन बीतने पर होती है, यदि उस अवधि में भुगतान नहीं किया गया हो। यह निर्णय कानून की प्रक्रिया को और अधिक न्यायसंगत तथा संतुलित बनाता है।
मामले की पृष्ठभूमि:
विष्णु मित्तल के विरुद्ध धारा 138 के अंतर्गत कार्यवाही शुरू की गई थी। विवाद का मूल प्रश्न यह था कि किस समय से “cause of action” (कारण उत्पन्न) होता है:
- क्या वह चेक बाउंस होने की तिथि है?
- या फिर वह दिन जब भुगतान के लिए नोटिस दिया गया और 15 दिन बीत गए?
उत्तर स्पष्ट करने के लिए मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा, जहाँ इस प्रश्न का गहन विधिक विश्लेषण किया गया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि —
- धारा 138 की प्रक्रिया एक त्रि-स्तरीय प्रणाली है:
- पहला चरण: चेक का बैंक द्वारा अनादर (Dishonour)।
- दूसरा चरण: डिमांड नोटिस भेजा जाना – चेक बाउंस की सूचना प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर।
- तीसरा चरण: नोटिस मिलने के 15 दिनों के भीतर भुगतान न होना।
- यदि इन तीनों चरणों में अंतिम चरण पूरा हो जाता है, यानी 15 दिन की अवधि बीत जाती है और भुगतान नहीं किया जाता, तभी अपराध पूर्ण होता है और शिकायत दर्ज करने का आधार उत्पन्न होता है।
- इस प्रकार, चेक बाउंस होते ही व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती। उसे एक अवसर दिया जाना अनिवार्य है कि वह तय समय के भीतर भुगतान करे। यदि वह ऐसा नहीं करता, तभी अपराध माना जाएगा।
कानूनी सिद्धांत और औचित्य:
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी दोहराया कि धारा 138 “दंडात्मक प्रकृति” की है, अतः इसका उपयोग अत्यंत सावधानी से किया जाना चाहिए। यह न्यायिक सिद्धांत भी स्थापित किया गया कि किसी व्यक्ति को दंडित करने से पहले उसे सुधार या भुगतान का अवसर देना विधिक सिद्धांतों के अनुरूप है।
यह निर्णय “प्राकृतिक न्याय” (Natural Justice) के सिद्धांत को बल देता है – “Audi Alteram Partem” अर्थात “दूसरी पक्ष को भी सुना जाए”।
इस निर्णय का व्यापक प्रभाव:
- चेक बाउंस मामलों में विधिक प्रक्रिया की स्पष्टता बढ़ी है।
- शिकायतकर्ताओं को भी यह जानना आवश्यक है कि वे कब कार्यवाही शुरू कर सकते हैं।
- आरोपी पक्ष को एक वैधानिक अवसर मिलता है कि वह भुगतान कर विवाद का समाधान कर ले।
- अदालतों में अनावश्यक मुकदमों की भरमार को रोका जा सकता है, क्योंकि कई मामलों में नोटिस मिलते ही भुगतान कर दिया जाता है।
अन्य संबंधित न्यायिक निर्णय:
यह निर्णय उन अनेक निर्णयों की श्रंखला में आता है, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने धारा 138 की प्रक्रिया को संतुलित और न्यायपूर्ण बनाए रखने का प्रयास किया है। इससे पहले Kusum Ingots & Alloys Ltd. बनाम Pennar Peterson Securities Ltd. और Krishna Janardhan Bhat बनाम Dattatraya Hegde जैसे मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी प्रकार की व्याख्याएं की थीं।
निष्कर्ष:
“विष्णु मित्तल बनाम शक्ति ट्रेडिंग कंपनी” का निर्णय न केवल चेक बाउंस से संबंधित मामलों की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि न्यायिक कार्रवाई तभी शुरू हो जब सभी आवश्यक चरण पूरे हो चुके हों। यह निर्णय विधिक प्रक्रिया की पारदर्शिता, निष्पक्षता और संतुलन का उत्कृष्ट उदाहरण है। इससे सभी पक्षों को – शिकायतकर्ता और आरोपी दोनों को – समान अवसर मिलता है, जो किसी भी लोकतांत्रिक विधि प्रणाली की आधारशिला है।
यह न्यायिक निर्णय आने वाले वर्षों में चेक बाउंस से जुड़े मुकदमों में मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करेगा।