शीर्षक: “धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत चेक बाउंस मामलों में सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णय: विधिक प्रक्रिया, अधिकार और दायित्वों की गहराई से व्याख्या”
परिचय
चेक बाउंस से संबंधित अपराध भारतीय परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत दंडनीय हैं। यह धारा भारतीय बैंकिंग और वाणिज्यिक व्यवस्था की निष्पक्षता व विश्वसनीयता बनाए रखने हेतु एक सशक्त उपकरण है। समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों ने न केवल इस धारा के दायरे को स्पष्ट किया है, बल्कि विभिन्न परिस्थितियों में इसके प्रयोग की दिशा भी प्रदान की है।
इस लेख में हम कुछ प्रमुख सुप्रीम कोर्ट निर्णयों की चर्चा करेंगे, जो पावर ऑफ अटॉर्नी, सिक्योरिटी चेक, लीगल नोटिस की सेवा, और प्रेसम्प्शन से जुड़े हैं, तथा न्यायिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं।
1. पावर ऑफ अटॉर्नी धारक द्वारा चेक बाउंस का वाद दायर करना
📌 प्रासंगिक निर्णय:
- G. Kamalakar v. M/s Surana Securities, 2014 AIR (SC) 630
- A.C. Narayanan v. State of Maharashtra, 2014 (11) SCC 790
- Vinita S. Rao v. M/s Essen Corp., 2015 CrLJ 147 (SC)
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि उपयुक्त प्राधिकरण (Power of Attorney) प्राप्त है, तो पावर ऑफ अटॉर्नी धारक चेक बाउंस का मुकदमा दायर कर सकता है। बशर्ते, वह सभी तथ्य स्वयं जानता हो और शिकायत में उल्लिखित सभी तथ्यों की जानकारी हो। यह अधिकार प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के अंतर्गत आता है।
2. सुरक्षा के रूप में दिए गए पोस्ट-डेटेड चेक की वैधता
📌 प्रासंगिक निर्णय:
- Don Ayengia v. State of Assam, 2016 CrLJ 1346 (SC)
- Sampelly S. Rao v. Indian Renewable Energy, 2016 (10) SCC 458
निष्कर्ष:
सुरक्षा (Security) के रूप में दिए गए पोस्ट-डेटेड चेक, यदि समझौते के अनुसार दायित्व पूरा नहीं किया गया, तो वह चेक वैध रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है, और यदि उसका भुगतान अस्वीकार किया गया तो धारा 138 के अंतर्गत मामला चलाया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि ऐसा चेक देने के पीछे एक वैध ऋण या देनदारी होती है, अतः धारा 139 के तहत कानूनी देनदारी की पूर्वधारणा (Presumption) लागू होगी। यह आरोपी पर निर्भर करता है कि वह इस धारणा को खंडित करे।
3. नोटिस की सेवा और “refused” या “house locked” की स्थिति में वैधता
📌 प्रासंगिक निर्णय:
- N. Parmeswaran v. G. Kannan, 2017 AIR (SC) 1681
- Subodh S. Salaskar v. Jaiprakash, 2008 CrLJ 3953 (SC)
निष्कर्ष:
यदि लीगल नोटिस रजिस्टर्ड पोस्ट द्वारा भेजा गया हो और डाक विभाग द्वारा वापस “refused / not available in the house / house locked / shop closed / addressee not in station” जैसे शब्दों के साथ लौटाया जाए, तो नोटिस की वैध सेवा मानी जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि:
- प्रतिवादी को नोटिस की जानकारी होने की संभावना पर्याप्त है।
- सेवा की वैधता हेतु 30 दिन की अवधि पर्याप्त मानी जानी चाहिए।
4. शिकायत में बैंक खाता संख्या और आरोपी का ईमेल आईडी देना
📌 प्रासंगिक दृष्टिकोण:
सुप्रीम कोर्ट ने यह सुझाव दिया है कि धारा 138 के अंतर्गत दर्ज हर शिकायत में, यदि संभव हो तो शिकायतकर्ता को अपना बैंक खाता नंबर और आरोपी का ईमेल आईडी प्रस्तुत करना चाहिए।
यह सुझाव क्यों महत्वपूर्ण है?
- नोटिस की सेवा को मजबूत बनाना
- इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्डिंग और संप्रेषण की पारदर्शिता
- मुकदमे के दायरे और तकनीकी मानकों की पूर्ति में सुविधा
न्यायिक सिद्धांतों का संक्षिप्त सारांश
मुद्दा | न्यायिक निष्कर्ष |
---|---|
पावर ऑफ अटॉर्नी धारक द्वारा वाद | वैध, यदि स्पष्ट प्राधिकरण और जानकारी हो |
पोस्ट-डेटेड सिक्योरिटी चेक | धारा 138 के अंतर्गत शामिल |
नोटिस की सेवा (Refused / Locked) | वैध सेवा मानी जाएगी |
Presumption of liability | धारा 139 लागू होती है, प्रतिवादी को खंडन करना होगा |
बैंक विवरण/ईमेल | देने की सिफारिश, पारदर्शिता हेतु सहायक |
निष्कर्ष
चेक बाउंस मामलों में भारतीय न्यायपालिका ने स्पष्ट दिशा-निर्देश और व्याख्या प्रदान की है जो न्याय, निष्पक्षता और व्यवसायिक लेन-देन की पारदर्शिता को सुनिश्चित करती है। सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय यह दर्शाते हैं कि:
- केवल तकनीकी आपत्तियाँ लेकर अभियोजन से बचा नहीं जा सकता;
- चेक का सुरक्षा के रूप में दिया जाना अभियुक्त को उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं करता;
- न्यायिक प्रक्रिया में साक्ष्य, सेवा, और प्रतिनिधित्व की भूमिका स्पष्ट रूप से परिभाषित की जा चुकी है।
“वाणिज्यिक व्यवस्था की रीढ़ चेक है, और चेक की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए धारा 138 एक आवश्यक विधिक कवच है।”