“धारा 138 एन.आई. एक्ट में हस्ताक्षर विवाद की स्थिति में कोर्ट बैंक रिकॉर्ड से मिलान कर सकती है: सुप्रीम कोर्ट का अहम निर्णय”
भूमिका:
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Evidence Act), और Negotiable Instruments Act, 1881 के प्रावधानों के अंतर्गत चेक बाउंस मामलों में अक्सर आरोपी यह दावा करता है कि चेक पर किया गया हस्ताक्षर उसका नहीं है। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या अदालत चेक पर किए गए हस्ताक्षर की बैंक में जमा करवाए गए प्रमाणित सैंपल हस्ताक्षर से तुलना कर सकती है?
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही के एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि अदालतें इस प्रक्रिया को धारा 73 साक्ष्य अधिनियम, धारा 391 CrPC एवं धारा 482 CrPC के तहत वैध रूप से अपना सकती हैं।
मामले की पृष्ठभूमि:
अभियुक्त ने दावा किया कि जिस चेक पर हस्ताक्षर है, वह उसके द्वारा किया गया नहीं है, और यह नकली (forged) है। ऐसे में आरोपी ने अदालत से अनुरोध किया कि वह बैंक से उसके प्रमाणित सैंपल हस्ताक्षर की प्रति (certified copy of specimen signature) मंगाए, ताकि उस हस्ताक्षर की तुलना चेक पर किए गए हस्ताक्षर से की जा सके। इस पर निचली अदालत ने संदेह जताया कि क्या ऐसा करना उचित और वैधानिक है।
सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ:
- बैंक रिकॉर्ड से प्रमाणित हस्ताक्षर की प्रति लेना वैध:
अदालत ने माना कि जब आरोपी चेक पर हस्ताक्षर का विरोध करता है, तो बैंक से उसके सैंपल हस्ताक्षर की प्रमाणित प्रति मंगाकर उसका तुलनात्मक परीक्षण किया जा सकता है। यह प्रक्रिया आरोपी के रक्षा के अधिकार के अंतर्गत आती है। - धारा 73 – साक्ष्य अधिनियम:
अदालत को अधिकार है कि वह किसी भी दस्तावेज पर किए गए हस्ताक्षर की तुलना मौजूदा प्रमाणित हस्ताक्षरों से कर सकती है। यह विशेष रूप से तब लागू होता है जब दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर की प्रामाणिकता विवादित हो। - धारा 391 – CrPC:
उच्च न्यायालय अपील की प्रक्रिया के दौरान, न्याय की ends सुनिश्चित करने हेतु, अतिरिक्त साक्ष्य मंगाने की अनुमति दे सकता है। - धारा 482 – CrPC:
यह धारा उच्च न्यायालय को अपनी अंतर्निहित न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति देती है, ताकि न्याय की रक्षा हो सके और दुरुपयोग से बचा जा सके। - धारा 138 और 118 – एनआई एक्ट:
चेक बाउंस मामले में कानून यह मान कर चलता है कि चेक वैध है और उसके पीछे ऋण या देयता है, जब तक कि अभियुक्त विपरीत साक्ष्य पेश न करे। इसलिए अगर हस्ताक्षर को चुनौती दी जाती है, तो आरोपी को यह साबित करने का अवसर मिलना चाहिए कि हस्ताक्षर उसका नहीं है।
न्यायालय का निष्कर्ष:
“यदि अभियुक्त द्वारा चेक पर हस्ताक्षर को विवादित किया जाता है, तो अदालत उस हस्ताक्षर की सत्यता को जांचने के लिए बैंक रिकॉर्ड में उपलब्ध सैंपल हस्ताक्षरों से तुलना कर सकती है। यह प्रक्रिया वैधानिक है और आरोपी के न्यायसंगत बचाव का एक महत्वपूर्ण अंग है।“
निष्कर्ष:
इस निर्णय से न्यायालयों को यह स्पष्ट दिशा मिलती है कि वे साक्ष्य की वैधता की पुष्टि हेतु बैंक रिकॉर्ड का उपयोग कर सकते हैं, और आरोपियों को यह अवसर दिया जाना चाहिए कि वे स्वयं को फर्जीवाड़े से बचा सकें। यह निर्णय न केवल न्यायिक विवेक का उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि वित्तीय अपराधों के निवारण में भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।