धारा 138 एनआई एक्ट: 20,000 रुपये से अधिक नकद ऋण के ‘अनस्पष्टीकृत’ होने पर चेक बाउंस मामला अस्वीकार्य नहीं — सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट का निर्णय रद्द किया
प्रस्तावना
भारतीय दंड विधान के आर्थिक अपराधों में चेक dishonour का मामला अत्यंत सामान्य है, और नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 ऐसे मामलों का प्रमुख आधार है। वर्षों से न्यायालयों ने इस धारा की व्याख्या करते हुए अनेक बार स्पष्ट किया है कि चेक एक कानूनी दायित्व को दर्शाता है और इसके dishonour होने पर विधिक दंड का प्रावधान है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए केरल हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें कहा गया था कि 20,000 रुपये से अधिक की ‘अनस्पष्टीकृत नकद राशि’ के आधार पर चेक बाउंस मामला बनाए ही नहीं रखा जा सकता। यह निर्णय धारा 138 के उद्देश्यों, ऋण के स्वरूप और लेनदेन की वास्तविकता को लेकर महत्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान करता है।
मामले का पृष्ठभूमि
इस प्रकरण में वादी (कंप्लेनेंट) ने आरोप लगाया था कि उसने आरोपी को नगद रूप में 2 लाख रुपये का ऋण दिया था। इस ऋण के बदले आरोपी ने एक चेक जारी किया जो बैंक में प्रस्तुत करने पर ‘अपर्याप्त धनराशि’ (insufficient funds) के आधार पर dishonour हो गया। इसके बाद वादी ने धारा 138 एनआई एक्ट के तहत शिकायत दर्ज कर दी।
ट्रायल कोर्ट ने उपलब्ध सबूतों को देखते हुए आरोपी को दोषी ठहराया। लेकिन आरोपी ने इस निर्णय के खिलाफ केरल हाईकोर्ट में अपील दायर की। हाईकोर्ट ने आरोपी का तर्क स्वीकार करते हुए कहा कि वादी द्वारा ऋण की राशि का स्रोत स्पष्ट नहीं किया गया, और 20,000 रुपये से अधिक का नगद लेनदेन आयकर अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन है। अतः ऐसा ऋण ‘अवैध’ माना जाएगा और इस आधार पर दर्ज चेक बाउंस की शिकायत ‘कायम’ ही नहीं रह सकती।
केरल हाईकोर्ट का निर्णय
हाईकोर्ट ने मुख्य रूप से दो आधारों पर शिकायत को अस्वीकार कर दिया:
- नकद ऋण 20,000 रुपये से अधिक था, अतः आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन है।
- जब मूल ऋण ही ‘अवैध’ है, तो उसके आधार पर जारी चेक के dishonour पर धारा 138 के तहत कोई अपराध नहीं बनता।
हाईकोर्ट ने कहा कि वादी यह बताने में विफल रहा कि उसके पास इतनी बड़ी नकद राशि कहां से आई।
सुप्रीम कोर्ट में अपील
वादी ने सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने पूरे प्रकरण की विस्तृत समीक्षा करते हुए पाया कि हाईकोर्ट का दृष्टिकोण कानून के अनुरूप नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को दोषमुक्त करने के आदेश को उलटते हुए केस को कानूनी रूप से टिकाऊ माना।
सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में निम्न महत्वपूर्ण अवलोकन और निर्णय दिए:
1. आयकर अधिनियम का उल्लंघन करने से चेक बाउंस मामला स्वतः अमान्य नहीं होता
न्यायालय ने कहा कि धारा 269SS का उद्देश्य ‘काला धन’ रोकना है, न कि वैध लेनदेन को अवैध घोषित करना। यह प्रावधान केवल आयकर विभाग द्वारा दंडात्मक कार्रवाई का आधार बन सकता है — लेकिन यह किसी निजी ऋण को अवैध नहीं बनाता।
अतः यदि कोई व्यक्ति 20,000 रुपये से अधिक नगद उधार देता है, तो यह आयकर कानून के संदर्भ में अलग मुद्दा है; यह नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के तहत चेक बाउंस की कार्रवाई को प्रभावित नहीं कर सकता।
2. चेक को ‘कानूनी देनदारी’ का presumption प्राप्त है
एनआई एक्ट की धारा 139 के अनुसार, यह अनुमानित (presumptive) माना जाता है कि:
- चेक वैध कानूनी दायित्व या ऋण के निर्वहन के लिए जारी किया गया।
इस presumption को आरोपी को rebut करना होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपी इस presumption को कमजोर करने में विफल रहा।
3. नगद ऋण का स्रोत स्पष्ट रूप से बताना वादी का बाध्यकारी दायित्व नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:
- हर व्यक्ति के पास एक खास रकम का स्रोत बताने का कानूनी दायित्व नहीं है।
- केवल इसलिए कि राशि के स्रोत का विवरण नहीं दिया गया, लेनदेन को अवैध नहीं माना जा सकता।
न्यायालय ने हाईकोर्ट की इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि वादी ‘ऋण देने की क्षमता’ सिद्ध नहीं कर सका।
4. ऋण की ‘कानूनी प्रवर्तनीयता’ स्थापित थी
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि:
- वादी और आरोपी के बीच ऋण लेनदेन का prima facie प्रमाण मौजूद है।
- आरोपी यह साबित नहीं कर सका कि चेक किसी ‘सुरक्षा’ या ‘अमान्य लेनदेन’ के लिए दिया गया था।
- चेक का dishonour होना धारा 138 के तहत अपराध है।
5. यह मामला High Court द्वारा गलत दृष्टिकोण अपनाने का उदाहरण
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने:
- आयकर प्रावधानों की गलत व्याख्या की,
- एनआई एक्ट के presumption सिद्धांत का सही प्रयोग नहीं किया,
- आरोपी को अनुचित लाभ दे दिया।
इसलिए निर्णय को पूर्णतः रद्द (set aside) कर दिया गया।
निर्णय का महत्व और कानूनी प्रभाव
यह निर्णय कई स्तरों पर महत्वपूर्ण है:
1. चेक बाउंस मामलों में बड़े पैमाने पर स्पष्टता
अब यह स्पष्ट है कि:
- ऋण का स्रोत बताने में विफलता
- या आयकर अधिनियम के लेनदेन नियमों का उल्लंघन
से चेक बाउंस मामला खारिज नहीं किया जा सकता।
2. धारा 138 में ‘कानूनी दायित्व’ की अवधारणा मजबूत
सुप्रीम कोर्ट ने जोर दिया कि चेक एक अत्यंत मजबूत साक्ष्य है, और इसके पीछे कानूनी presumption को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
3. लाखों मामलों पर प्रभाव
देश में चेक dishonour के 20 लाख से अधिक मामले लंबित हैं।
यह निर्णय उन सभी मामलों में लागू होगा जहाँ वादी को ‘capacity to lend’ या ‘source of funds’ बताने पर अनावश्यक दबाव डाला जाता था।
4. नकद लेनदेन पर आयकर कानून में अलग कार्रवाई संभव
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया:
- आयकर प्रावधानों के उल्लंघन पर आयकर विभाग कार्रवाई कर सकता है,
- लेकिन इससे चेक बाउंस अपराध पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
अदालत की अंतिम टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 138 एक “penal provision with compensatory nature” है जिसका उद्देश्य लेनदेन में विश्वास और वित्तीय व्यवस्था में स्थिरता बनाए रखना है। इसलिए, तकनीकी आपत्तियों के आधार पर मामलों को खारिज करना न्यायिक नीति के विपरीत है।
निष्कर्ष
इस निर्णय के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि:
- एनआई एक्ट का उद्देश्य लेनदेन में भरोसा बनाए रखना है,
- आयकर कानून में उल्लंघन का चेक बाउंस मामले पर कोई प्रभाव नहीं,
- चेक को वैध ऋण का presumption प्राप्त है,
- High Court की तकनीकी व्याख्या गलत थी।
यह निर्णय चेक dishonour मामलों में एक महत्वपूर्ण मिसाल बनेगा और अदालतों को वादी पर अनावश्यक बोझ न डालने के लिए मार्गदर्शन करेगा।