“धर्मांतरण में राज्य की अति-दखल निजता और स्वतंत्रता का उल्लंघन” : सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी — उत्तर प्रदेश धर्मांतरण प्रतिषेध अधिनियम, 2021 की वैधता पर गंभीर सवाल
प्रस्तावना
भारत के संविधान ने प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता और अंतःकरण की स्वायत्तता प्रदान की है। अनुच्छेद 25 के अंतर्गत हर व्यक्ति को अपनी पसंद के धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। परंतु जब राज्य इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अत्यधिक हस्तक्षेप करता है, तो यह संविधान की आत्मा से टकराता है।
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 (Uttar Pradesh Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Act, 2021) की कुछ धाराओं पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की द्विसदस्यीय पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए कहा कि इस कानून के कुछ प्रावधान निजता (Privacy), आनुपातिकता (Proportionality) और सांविधानिकता (Constitutionality) की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। यह टिप्पणी देश में धर्मांतरण और राज्य हस्तक्षेप के संवैधानिक संतुलन पर एक महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला सैम हिगिनबॉटम कृषि, प्रौद्योगिकी और विज्ञान विश्वविद्यालय (SHUATS), प्रयागराज के कुलपति और निदेशक के खिलाफ दर्ज एक धर्मांतरण मामले से संबंधित था।
राज्य सरकार ने उन पर आरोप लगाया था कि उन्होंने धर्मांतरण की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाई।
हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि आरोपों में पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं और मामला राजनीतिक या प्रेरित प्रतीत होता है।
अदालत ने इस आधार पर आपराधिक कार्यवाही को निरस्त (quash) कर दिया।
परंतु, इस निर्णय के दौरान पीठ ने धर्मांतरण अधिनियम की वैधानिक संरचना और उसकी संवैधानिक वैधता पर भी गंभीर चिंताएं व्यक्त कीं।
सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ
1. धर्मांतरण से जुड़ी प्रक्रिया अत्यधिक जटिल और हस्तक्षेपकारी
पीठ ने कहा कि कानून में धर्मांतरण से पहले और बाद में जो घोषणा (declaration) और सत्यापन (verification) की प्रक्रिया अनिवार्य की गई है, वह अत्यंत बोझिल और जटिल है।
यह पूरी प्रक्रिया व्यक्ति की निजता में अनावश्यक हस्तक्षेप करती है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करती है।
“धर्मांतरण से पहले और बाद की घोषणाओं की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि यह व्यक्ति की निजी आस्था को सार्वजनिक परीक्षा का विषय बना देती है।”
2. राज्य की अत्यधिक दखलअंदाजी
अदालत ने टिप्पणी की कि राज्य का धर्मांतरण की प्रक्रिया में “अत्यधिक नियंत्रण” लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के लिए घातक है।
धर्म अपनाना एक व्यक्तिगत और अंतःकरण का विषय है, जिसे प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन नहीं किया जा सकता।
3. आपराधिक कानून को उत्पीड़न का साधन न बनने देने की चेतावनी
न्यायालय ने कहा कि अजनबियों को मुकदमा चलाने की अनुमति देने से आपराधिक कानून “उत्पीड़न का औजार” बन सकता है।
यह न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए खतरनाक है, बल्कि धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक सौहार्द को भी प्रभावित करता है।
धारा 8 और 9 पर न्यायालय की चिंता
सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष रूप से अधिनियम की धारा 8 और धारा 9 पर प्रश्न उठाए।
- धारा 8 – धर्मांतरण से पहले व्यक्ति को जिला मजिस्ट्रेट (DM) को 60 दिन पहले लिखित सूचना देने की आवश्यकता बताती है।
- धारा 9 – धर्मांतरण के बाद पुनः सूचना देने और विस्तृत जांच की प्रक्रिया का प्रावधान करती है।
न्यायालय ने कहा कि ये प्रावधान व्यक्ति के व्यक्तिगत विवरणों को सार्वजनिक करने और राज्य की निगरानी को बढ़ावा देते हैं। इससे न केवल निजता का उल्लंघन होता है, बल्कि यह व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता पर असंवैधानिक नियंत्रण भी स्थापित करता है।
“व्यक्तिगत विवरण सार्वजनिक करने की आवश्यकता और प्रत्येक मामले में पुलिस जांच का आदेश देना निजता के अधिकार का सीधा उल्लंघन प्रतीत होता है।”
निजता और स्वतंत्रता का संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
भारत के संविधान में निजता का अधिकार (Right to Privacy), के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) के ऐतिहासिक निर्णय के बाद मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है।
इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि —
“निजता व्यक्ति की स्वतंत्रता की आत्मा है। राज्य केवल वैध और आनुपातिक कारणों से ही उसमें हस्तक्षेप कर सकता है।”
उत्तर प्रदेश धर्मांतरण अधिनियम की प्रक्रिया इस कसौटी पर विफल होती दिखाई देती है।
राज्य द्वारा प्रत्येक धर्मांतरण की पूर्व-अनुमति और जांच की शर्तें व्यक्ति की आस्था, विचार और अंतःकरण की स्वतंत्रता को असंवैधानिक रूप से सीमित करती हैं।
अनुच्छेद 25 का संरक्षण
सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता का वाहक है।
अनुच्छेद 25 प्रत्येक व्यक्ति — चाहे वह नागरिक हो या न हो — को “अंतःकरण की स्वतंत्रता” और “धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार” देता है।
यह अधिकार केवल धार्मिक समूहों के लिए नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर भी लागू होता है।
न्यायालय ने कहा कि धर्मांतरण का निर्णय व्यक्ति की आत्मा और विश्वास का प्रश्न है, और राज्य को इसमें केवल सार्वजनिक व्यवस्था या कानून व्यवस्था के सीमित मामलों में ही हस्तक्षेप का अधिकार है।
“संविधान किसी व्यक्ति को यह चुनने की स्वतंत्रता देता है कि वह कौन सा धर्म अपनाना चाहता है; राज्य को इस स्वतंत्रता पर नियंत्रण का कोई नैतिक या संवैधानिक अधिकार नहीं है।”
अधिनियम की व्यावहारिक समस्याएँ
- डर का वातावरण:
धर्मांतरण की प्रक्रिया को कानूनी जांच के अधीन करने से व्यक्ति के मन में भय उत्पन्न होता है।
इससे धर्म परिवर्तन एक सामाजिक कलंक का रूप ले लेता है। - झूठे मुकदमेबाजी का खतरा:
“अजनबियों” को शिकायत दर्ज कराने की अनुमति देने से व्यक्तिगत दुश्मनी या राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित मुकदमे बढ़ सकते हैं। - निजी विश्वास का सार्वजनिक परीक्षण:
किसी व्यक्ति की धार्मिक मान्यता को प्रशासनिक या पुलिस जांच का विषय बनाना संवैधानिक दृष्टि से अस्वीकार्य है।
सांविधानिक संतुलन और न्यायिक दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में राज्य की सीमाओं को रेखांकित करती है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ केवल सभी धर्मों का समान सम्मान नहीं, बल्कि राज्य का धर्म से दूर रहना भी है।
धर्मांतरण कानून का उद्देश्य यदि जबरन या छल से धर्म परिवर्तन को रोकना है, तो वह सीमित हद तक उचित है,
परंतु यदि वह व्यक्ति की स्वेच्छा को ही बाधित करने लगे, तो यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन है।
न्यायालय का सीमित रुख
हालांकि, पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि वह इस चरण में अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर औपचारिक निर्णय नहीं दे रही है,
क्योंकि वर्तमान मामला केवल आपराधिक मुकदमे के निरस्तीकरण से संबंधित था।
परंतु अदालत ने यह जोड़ा कि जब कोई मामला व्यक्तिगत स्वतंत्रता और धर्म की स्वतंत्रता जैसे मूल अधिकारों को छूता है,
तो उन संवैधानिक प्रश्नों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
भविष्य की दिशा: कानून और स्वतंत्रता का संतुलन
इस निर्णय से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि सर्वोच्च न्यायालय आने वाले समय में धर्मांतरण कानूनों की संवैधानिक समीक्षा की दिशा में कदम उठा सकता है।
अदालत की प्राथमिक चिंता यह है कि ऐसे कानून राज्य सत्ता को व्यक्तिगत जीवन पर अनुचित नियंत्रण का औजार न बना दें।
भविष्य में अपेक्षित सुधार:
- धर्मांतरण की परिभाषा को सीमित और स्पष्ट किया जाए, ताकि केवल धोखाधड़ी या बलपूर्वक धर्मांतरण ही अपराध माने जाएं।
- सूचना और जांच की प्रक्रिया को वैकल्पिक या न्यायिक निगरानी के अधीन किया जाए।
- निजता की सुरक्षा के लिए गारंटी जोड़ी जाए, ताकि व्यक्ति का विश्वास सार्वजनिक न हो।
- राजनीतिक दुरुपयोग की रोकथाम के लिए अभियोजन की अनुमति उच्च प्राधिकारी से ली जाए।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भारतीय लोकतंत्र और संविधान की मूल आत्मा की पुनर्पुष्टि है।
राज्य का कर्तव्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है, न कि उनके व्यक्तिगत विश्वासों पर निगरानी रखना।
उत्तर प्रदेश धर्मांतरण प्रतिषेध अधिनियम, 2021 यदि अपने वर्तमान स्वरूप में लागू रहता है, तो यह व्यक्ति की आस्था, निजता और स्वतंत्रता — तीनों को प्रभावित करता है।
यह निर्णय भारत के संवैधानिक न्यायशास्त्र के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण है, क्योंकि यह बताता है कि
“धर्म का चयन व्यक्ति का निजी निर्णय है, न कि राज्य की स्वीकृति का विषय।”
जब तक राज्य इस सीमा का सम्मान नहीं करेगा, तब तक संविधान की धर्मनिरपेक्षता अधूरी रहेगी।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी केवल एक कानूनी अवलोकन नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक चेतावनी है —
कि स्वतंत्रता तब तक सशक्त है, जब तक व्यक्ति अपने अंतःकरण के अनुरूप जीने के लिए स्वतंत्र है।