धर्मांतरण और धार्मिक स्वतंत्रताः संविधान की कसौटी पर (Conversion and Religious Freedom: A Constitutional Perspective)
भूमिका
भारत एक बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, जहाँ प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म के पालन, प्रचार और परिवर्तन का अधिकार प्राप्त है। हालाँकि, जब धार्मिक स्वतंत्रता धर्मांतरण के प्रश्न से जुड़ती है, तो यह अधिकार और कर्तव्य के बीच संतुलन का विषय बन जाता है। धर्मांतरण का मुद्दा भारतीय समाज में लंबे समय से संवेदनशील रहा है, विशेषतः जब यह लालच, धोखे या बल प्रयोग से होता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या धर्मांतरण धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा है और क्या संविधान इसकी पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है?
संवैधानिक प्रावधान
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 प्रत्येक व्यक्ति को “अपने धर्म के पालन, प्रचार और प्रसार” की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह अधिकार न केवल धर्म के पालन की अनुमति देता है, बल्कि किसी अन्य धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता भी देता है। परंतु यह स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है। यह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है। इस प्रकार, जबरन या कपटपूर्ण धर्मांतरण को संविधान संरक्षण नहीं देता।
धर्मांतरण बनाम जबरन धर्मांतरण
स्वेच्छा से धर्म बदलना एक मौलिक अधिकार है, लेकिन अगर धर्मांतरण बल, धोखे, लालच या बहकावे से होता है, तो यह न केवल असंवैधानिक है बल्कि कई राज्यों में आपराधिक कृत्य भी है। उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए हैं जो “अनुचित साधनों” से धर्मांतरण पर रोक लगाते हैं।
न्यायपालिका की दृष्टि
सुप्रीम कोर्ट ने Rev. Stainislaus v. State of Madhya Pradesh (1977) में स्पष्ट किया कि “धर्म का प्रचार करने का अधिकार” का अर्थ किसी को धर्म बदलने के लिए मजबूर करना नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि “धर्मांतरण” और “धर्म प्रचार” के बीच अंतर है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य और विवाद
हाल के वर्षों में कई राज्यों ने ‘लव जिहाद’ कानून के नाम पर कठोर धर्मांतरण विरोधी विधेयक पारित किए हैं। आलोचकों का कहना है कि ये कानून धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं और व्यक्तिगत पसंद को बाधित करते हैं। वहीं, समर्थक मानते हैं कि ये कानून धोखाधड़ी से हो रहे धर्मांतरण को रोकने के लिए जरूरी हैं।
समाज में प्रभाव और राजनीतिक आयाम
धर्मांतरण का मुद्दा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक भी बन चुका है। यह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच अविश्वास का कारण बन सकता है। अतः संतुलन की आवश्यकता है ताकि न तो धार्मिक स्वतंत्रता बाधित हो और न ही समाज में अस्थिरता उत्पन्न हो।
निष्कर्ष
धर्मांतरण और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखना एक संवेदनशील कार्य है। संविधान व्यक्तिगत धार्मिक विश्वासों की रक्षा करता है, परंतु वह धोखाधड़ी, जबरन या अनुचित साधनों से धर्मांतरण की अनुमति नहीं देता। इसलिए आवश्यकता है कि कानून, संविधान और न्यायपालिका के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज की स्थिरता दोनों की रक्षा की जाए। धार्मिक स्वतंत्रता का सार तभी सुरक्षित रह सकता है जब वह सचेत, स्वैच्छिक और जानकारीपूर्ण निर्णय पर आधारित हो।