“धर्मांतरण और धार्मिक स्वतंत्रता कानून: संवैधानिक अधिकार बनाम सामाजिक नियंत्रण”

लेख शीर्षक:
“धर्मांतरण और धार्मिक स्वतंत्रता कानून: संवैधानिक अधिकार बनाम सामाजिक नियंत्रण”


प्रस्तावना

भारत जैसे बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक और बहुजातीय देश में धर्मांतरण और धार्मिक स्वतंत्रता एक अत्यंत संवेदनशील और विवादास्पद विषय है। संविधान एक ओर प्रत्येक नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर कुछ राज्य सरकारें जबरन या प्रलोभन द्वारा किए जा रहे धर्मांतरण को रोकने के लिए विशेष कानून बनाती हैं। यह लेख धर्मांतरण और धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित कानूनी, संवैधानिक और सामाजिक पहलुओं का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है।


1. धार्मिक स्वतंत्रता का संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित प्रावधान किए गए हैं:

  • अनुच्छेद 25: प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म को मानने, पालन करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्राप्त है।
  • अनुच्छेद 26: धार्मिक संप्रदायों को अपने धार्मिक मामलों का संचालन करने का अधिकार है।
  • अनुच्छेद 27: धार्मिक शिक्षा के लिए कर वसूली का निषेध।
  • अनुच्छेद 28: शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध।

हालांकि, अनुच्छेद 25(1) की स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। यह ‘सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य’ के अधीन है, और राज्य इसमें उचित सीमा तक हस्तक्षेप कर सकता है।


2. धर्मांतरण से संबंधित राज्य कानून

केंद्र सरकार ने अब तक कोई सर्वभारतीय धर्मांतरण विरोधी कानून नहीं बनाया है, लेकिन कई राज्य सरकारों ने जबरन, धोखे या प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण को रोकने के लिए कानून बनाए हैं। प्रमुख राज्य हैं:

  • मध्य प्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 2021
  • उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020
  • ओडिशा धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1967
  • छत्तीसगढ़ धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1968
  • गुजरात धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 2003 (संशोधित 2021)
    इन कानूनों के तहत बिना अनुमति धर्मांतरण अपराध माना जाता है और दंडनीय है।

3. न्यायालयों का दृष्टिकोण

भारतीय न्यायपालिका ने भी इस विषय में समय-समय पर अपने विचार प्रकट किए हैं:

  • राष्ट्रवाद की दृष्टि से धर्मांतरण: सुप्रीम कोर्ट ने Rev. Stainislaus v. State of Madhya Pradesh (1977) में कहा कि “धर्म का प्रचार” करने का अधिकार, जबरन धर्मांतरण करने का अधिकार नहीं देता।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि “केवल विवाह हेतु धर्म परिवर्तन वैध नहीं है।”
  • दिल्ली उच्च न्यायालय (2025) ने यह भी कहा है कि “स्वेच्छा से धर्म बदलना मौलिक अधिकार है, लेकिन जबरन या छल से कराया गया धर्मांतरण असंवैधानिक है।”

4. सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण

  • समर्थक तर्क देते हैं कि धर्मांतरण विरोधी कानून “गैर-हिंदू धर्मों” द्वारा किए जा रहे अवैध और छलपूर्ण धर्मांतरण को रोकते हैं।
  • आलोचक तर्क देते हैं कि ये कानून व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के अधिकार का उल्लंघन करते हैं।
  • जनजातीय क्षेत्रों में विशेष रूप से यह विषय संवेदनशील है जहाँ मिशनरी गतिविधियों को लेकर लंबे समय से विवाद रहा है।

5. वर्तमान चुनौतियाँ और विवाद

  • स्वेच्छा बनाम बाध्यता का निर्धारण बहुत कठिन है।
  • कानून के दुरुपयोग की आशंका — कई बार प्रेम विवाहों या अंतरधार्मिक विवाहों को लक्ष्य कर कानूनी कार्यवाही की जाती है।
  • धर्म परिवर्तन की सूचना देना और सरकारी अनुमति लेना मौलिक अधिकारों के विरुद्ध माना जाता है।
  • राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्मांतरण मुद्दे का इस्तेमाल भी बढ़ती चिंता का विषय है।

6. अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण

  • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणापत्र (UDHR) की धारा 18: “हर व्यक्ति को धर्म या आस्था की स्वतंत्रता का अधिकार है। इसमें धर्म बदलने और अकेले या समूह में, सार्वजनिक या निजी रूप से धर्म का पालन करने का अधिकार शामिल है।”
  • भारत इस घोषणा का हिस्सा होते हुए भी अपने आंतरिक सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार कानून बनाता है।

निष्कर्ष

धर्मांतरण और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखना एक संवेदनशील कार्य है। जहां एक ओर धार्मिक स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार के रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए, वहीं दूसरी ओर समाज में सामूहिक छल या दबाव द्वारा धर्मांतरण की प्रवृत्ति पर अंकुश भी आवश्यक है। इस विषय पर एक सर्वसमावेशी, संतुलित और संविधान सम्मत राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक सद्भाव — दोनों की रक्षा कर सके।