धर्मनिरपेक्षता और विधि : एक संवैधानिक मूल्य का विश्लेषण (Secularism and Law: An Analysis of a Constitutional Value)
प्रस्तावना
धर्मनिरपेक्षता (Secularism) आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है। भारत एक बहुधार्मिक, बहुभाषीय, बहुजातीय और विविध सांस्कृतिक देश है, जहां धार्मिक विविधता को सामाजिक एकता में बदलना एक संवैधानिक आदर्श रहा है। धर्मनिरपेक्षता और विधि के मध्य संबंध भारतीय संविधान, न्यायपालिका के निर्णयों तथा विधायी नीतियों के माध्यम से स्पष्ट होता है। यह लेख धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक, विधिक और व्यावहारिक पक्षों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा और प्रकृति
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है—राज्य का किसी विशेष धर्म से न जुड़ना और सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान रखना। यह न तो धर्मविरोध है और न ही धार्मिक उदासीनता, बल्कि यह धार्मिक सहिष्णुता और समानता का समर्थन करता है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ पश्चिमी देशों से भिन्न है। पश्चिम में धर्म और राज्य के पूर्ण पृथक्करण (Separation of Church and State) की अवधारणा प्रमुख है, जबकि भारत में सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता (Positive Secularism) है, जो धर्मों को राज्य से अलग रखते हुए उनकी स्वतंत्रता और समानता को सुनिश्चित करती है।
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता
भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को एक मौलिक सिद्धांत के रूप में स्वीकार करता है।
मुख्य संवैधानिक प्रावधान –
- प्रस्तावना (Preamble) – 42वें संशोधन, 1976 द्वारा “धर्मनिरपेक्ष” शब्द जोड़ा गया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है।
- अनुच्छेद 14 – कानून के समक्ष समानता तथा विधि के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 15 एवं 16 – धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं।
- अनुच्छेद 25 से 28 – धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार प्रदान करते हैं:
- अनुच्छेद 25: धर्म की स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 26: धार्मिक संस्थाओं की स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 27: कराधान में धार्मिक स्वतंत्रता
- अनुच्छेद 28: शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा
धर्मनिरपेक्षता और भारतीय विधि व्यवस्था
भारतीय विधि प्रणाली धर्मनिरपेक्षता को सुनिश्चित करने के लिए कई प्रकार से कार्य करती है:
1. धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा:
न्यायालय बार-बार यह निर्णय देते रहे हैं कि व्यक्ति को अपने धर्म के पालन का अधिकार है, जब तक वह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विरुद्ध न हो।
उदाहरण – शिरूर मठ केस (1954) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धार्मिक प्रथाओं की “Essential Religious Practice” की पहचान न्यायालय करेगा।
2. धर्म के नाम पर भेदभाव के विरुद्ध प्रतिबंध:
राज्य किसी भी नागरिक को धर्म के आधार पर नौकरियों या शैक्षणिक संस्थानों में लाभ या हानि नहीं दे सकता।
3. समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code – UCC):
अनुच्छेद 44 में इसका उल्लेख है जो धर्मनिरपेक्ष कानून व्यवस्था की दिशा में एक प्रयास है, यद्यपि अभी तक पूरी तरह लागू नहीं किया गया है।
न्यायिक दृष्टिकोण
भारतीय न्यायपालिका ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) के रूप में मान्यता दी है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) – इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का अभिन्न अंग है।
- सरला मुद्गल केस (1995) – धर्मांतरण के बाद दूसरी शादी को लेकर न्यायालय ने समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर बल दिया।
- एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) – सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय राज्य की मूलभूत विशेषता है और इसका उल्लंघन राज्य सरकार को भंग करने का आधार हो सकता है।
धर्मनिरपेक्षता से उत्पन्न चुनौतियाँ
- धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता
- राजनीतिक उद्देश्यों हेतु धर्म का प्रयोग
- समान नागरिक संहिता का विरोध
- धर्म के नाम पर अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के अधिकारों में संतुलन बनाना
उपसंहार (निष्कर्ष)
भारतीय धर्मनिरपेक्षता एक संतुलित व्यवस्था है जो धर्म की स्वतंत्रता और राज्य की तटस्थता दोनों की रक्षा करती है। विधि के माध्यम से धार्मिक सहिष्णुता, समानता, और उदारता को सुनिश्चित करना एक सतत प्रक्रिया है। धर्मनिरपेक्षता की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य, न्यायपालिका और नागरिक किस प्रकार संवैधानिक मूल्यों का सम्मान करते हैं।
आज के समय में जबकि धर्म और राजनीति का घालमेल बढ़ता जा रहा है, धर्मनिरपेक्षता को विधिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर सुदृढ़ करना अत्यंत आवश्यक है, ताकि भारत एक लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण और समावेशी राष्ट्र के रूप में बना रहे।