द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकृति केवल मूल दस्तावेज के लोप या बाधा के प्रमाण पर निर्भर: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय
🔷 भूमिका:
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) के अंतर्गत प्राथमिक (Primary) और द्वितीयक (Secondary) साक्ष्य की धारणा एक आधारभूत कानूनी सिद्धांत है। न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता और निष्पक्षता इसी पर निर्भर करती है कि किस प्रकार और किन परिस्थितियों में साक्ष्य को स्वीकार किया जाए।
हाल ही में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि —
“जब तक यह साबित न हो जाए कि मूल दस्तावेज (original document) खो गया है या उसे कोर्ट में प्रस्तुत करना संभव नहीं है, तब तक किसी भी प्रकार का द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता।”
यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में साक्ष्य की शुद्धता और सिद्धि की अनिवार्यता को बल देता है।
🔷 मामले की पृष्ठभूमि:
- याचिकाकर्ता ने निचली अदालत में एक फोटोस्टेट दस्तावेज (Photocopy) को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया था।
- संबंधित दस्तावेज एक विवादित संपत्ति के स्वामित्व से जुड़ा हुआ था।
- प्रतिवादी पक्ष ने आपत्ति जताई कि यह केवल द्वितीयक साक्ष्य है और मूल दस्तावेज कोर्ट में पेश नहीं किया गया।
- ट्रायल कोर्ट ने इस फोटोस्टेट दस्तावेज को स्वीकार कर लिया, जिसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
🔷 छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का निर्णय और कानूनी व्याख्या:
🧾 मुख्य बिंदु:
- 📌 धारा 64 (Section 64) – प्राथमिक साक्ष्य का सिद्धांत:
- सामान्यतः दस्तावेजी साक्ष्य के लिए मूल दस्तावेज (Original Document) ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
- 📌 धारा 65 (Section 65) – द्वितीयक साक्ष्य की अनुमति:
- द्वितीयक साक्ष्य केवल उन्हीं परिस्थितियों में स्वीकार किया जाता है जब:
- मूल दस्तावेज खो गया हो,
- नष्ट हो गया हो,
- किसी के कब्जे में हो जो कोर्ट में न लाए,
- या जिसे लाना न्यायिक रूप से असंभव हो।
- द्वितीयक साक्ष्य केवल उन्हीं परिस्थितियों में स्वीकार किया जाता है जब:
- 📌 मूल दस्तावेज के लोप या बाधा का ठोस प्रमाण आवश्यक:
- कोर्ट ने कहा कि सिर्फ यह कह देना कि दस्तावेज उपलब्ध नहीं है, पर्याप्त नहीं।
- याचिकाकर्ता को यह साबित करना होता है कि दस्तावेज वाकई में नष्ट, खोया, या बाधित है।
⚖️ फैसले की भाषा में:
“जब तक यह संतोषजनक रूप से साबित न हो कि मूल दस्तावेज का प्रस्तुतीकरण संभव नहीं है, तब तक उसकी फोटोप्रति को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करना भारतीय साक्ष्य अधिनियम के विरुद्ध है।”
🔷 इस निर्णय का विधिक महत्व:
- ✅ साक्ष्य की शुद्धता की रक्षा:
- यह फैसला सुनिश्चित करता है कि न्यायिक प्रक्रिया प्रमाणिकता पर आधारित हो, न कि मनमानी फोटोप्रति या नकली दस्तावेजों पर।
- ✅ दूसरी ओर से अधिकारों की सुरक्षा:
- द्वितीयक साक्ष्य की अंधाधुंध स्वीकृति से प्रतिवादी पक्ष के रक्षा के अधिकारों का हनन हो सकता है।
- ✅ न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन:
- इस निर्णय से निचली अदालतों को स्पष्ट संकेत गया कि साक्ष्य के संबंध में कठोर परीक्षण और सत्यापन आवश्यक है।
🔷 पूर्ववर्ती निर्णयों में समान विचार:
- State of Rajasthan v. Khemraj (AIR 2000 SC 1759):
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फोटोप्रति को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक मूल दस्तावेज की अनुपलब्धता उचित रूप से सिद्ध न हो। - Smt. J. Yashoda v. K. Shobha Rani (AIR 2007 SC 1721):
द्वितीयक साक्ष्य केवल तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जब धारा 65 की शर्तें पूर्ण रूप से सिद्ध हों।
🔷 निष्कर्ष:
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का यह फैसला भारतीय साक्ष्य प्रणाली में सख्ती और प्रमाणिकता की अहमियत को दोहराता है। यह एक स्पष्ट संदेश देता है कि कोई भी व्यक्ति, न्यायिक प्रक्रिया में शॉर्टकट के रूप में द्वितीयक साक्ष्य का दुरुपयोग नहीं कर सकता, जब तक कि उसके पास मूल दस्तावेज के अभाव का ठोस और प्रमाणिक कारण न हो।
यह निर्णय न्यायिक ईमानदारी, निष्पक्षता और कानूनी प्रक्रिया की गरिमा को बनाए रखने की दिशा में एक अहम कदम है।