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“दोषमुक्ति के विरुद्ध अपील का अधिकार: ‘पीड़ित’ में शिकायतकर्ता या सूचक नहीं बल्कि किसी भी प्रकार की क्षति या हानि झेलने वाला व्यक्ति भी शामिल — सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय”

“Supreme Court of India ने स्थापित किया: ‘पीड़ित’ का अर्थ विस्तारित — अभियुक्त के रिहा / मुक्ति (अदालत द्वारा सफाई) के विरुद्ध अपील में न सिर्फ़ ‘शिकायतकर्ता’ बल्कि वह व्यक्ति जो अपराध से हानि या चोट उठा चुका है, अपीलकर्ता हो सकता है”


प्रस्तावना

भारत में आपराधिक न्यायप्रक्रिया-संहिता (Code of Criminal Procedure, 1973 – CrPC) के अंतर्गत अभियुक्त के विरुद्ध आरोप तय हो जाने तथा सुनवाई के बाद यदि उसे अदालत द्वारा रिहा (acquittal) किया गया हो, तो पारंपरिक रूप से सिर्फ़ राज्य (प्रोसेक्यूटर) या शिकायतकर्ता (complainant) ही इस फैसले के खिलाफ अपील कर सकते थे। परंतु हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उस अपराध से हानि या चोट उठाने वाला व्यक्ति (victim) — भले ही उसने प्राथमिकी दर्ज नहीं करवाई हो, या वह शिकायतकर्ता न हो — भी अपील का हकदार है।
यह बदलाव महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह अपराध-पीड़ितों के हित संरक्षण की दिशा में एक बड़े कदम का प्रतीक है। इस लेख में हम (1) कानूनी पृष्ठभूमि, (2) CrPC धारा 372 (प्रोविसो) का विश्लेषण, (3) सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णयों का विवेचन, (4) “पीड़ित” की व्याख्या-विस्तार, (5) अपील के उद्देश्य एवं प्रभाव, तथा (6) व्यावहारिक सुझाव प्रस्तुत करेंगे।


I. कानूनी पृष्ठभूमि

CrPC में पारंपरिक रूप से यह प्रावधान था कि अभियोजन पक्ष या राज्य द्वारा ही अभियुक्त के विरुद्ध व्यवस्था-विपरीत निर्णय (जैसे दोषसिद्धि या रिहाई) के विरुद्ध अपील की जा सकती है। शिकायतकर्ता-पीड़ित का अधिकार सीमित रहा। हालाँकि भारत में पीड़ितों-अधिकारों (victims’ rights) के विषय में कानून-समिति की सिफारिशें हुईं — उदाहरण के लिए Law Commission of India की रिपोर्ट, मिलिंमाथ कमिटी (Malimath Committee) आदि।
इन सिफारिशों के परिणामस्वरूप, 2009 में CrPC में संशोधन किया गया और धारा 372 में एक प्रोविसो जोड़ा गया कि “यदि अभियुक्त को रिहा किया गया हो, या कम सज़ा दी गई हो, या अनुचित मुआवजा निर्धारित हुआ हो, तब पीड़ित को अपील का अधिकार होगा।”
इस प्रकार इस संशोधन ने पीड़ित को एक नया स्टैच्युटरी (कानूनी) अधिकार दिया कि वह अदालती रिहाई अथवा अपर्याप्त दण्ड या मुआवजे के विरुद्ध अपील कर सके।


II. धारा 372 CrPC (प्रोविसो) का विश्लेषण

धारा 372 CrPC मुख्यतः “जब अभियुक्त को दोषसिद्धि हुई हो तो राज्य द्वारा अपील की अनुमति”-से संबंधित है, लेकिन प्रोविसो ने एक महत्वपूर्ण विस्तार किया:

“Provided that nothing in this section shall be deemed to empower any person other than — (i) the accused; (ii) the State Government or the public prosecutor on behalf of the State; (iii) the complainant, as defined in section 2(d) [of CrPC] who has suffered loss or injury as a result of the offence — to prefer an appeal under section 377 or section 378.” (संक्षिप्त रूप)

इस प्रोविसो का सार यह है:

  • केवल आरोपी (convicted) के अपील के रूप में ही नहीं, बल्कि जिसने अपराध से हानि या चोट उठाई है (i.e., victim) उसे भी अपील का अधिकार दिया गया।
  • इस अधिकार के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति ही शिकायतकर्ता (complainant) हो। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह स्पष्ट किया है।
  • प्रोविसो ने विशेष रूप से शिकायतकर्ता को ही नहीं, बल्कि “लॉस या इन्जुरी हुने वाले” व्यक्ति को अपीलकर्ता मानने की दिशा में मार्ग खोला।
  • इस तरह प्रोविसो ने न्यायप्रक्रिया में पीड़ित की भूमिका को सक्रिय रूप से स्थापित किया।

III. सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णयों

हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय पर अनेक निर्णायक बातें कहीं हैं। नीचे कुछ-प्रमुख हैं:

1. M/s Celestium Financial v. A. Gnanasekaran (2025 INSC 804)

  • इस मामले में बैंक चेक डिशोनर (धारा 138 एन॰आइ. ऐक्ट) से संबंधित था। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि शिकायतकर्ता (payee) जो चेक के भुगतान से वंचित हुआ, “पीड़ित” की श्रेणी में आता है और उसे धारा 372 प्रोविसो के आधार पर रिहाई (acquittal) के विरुद्ध अपील का अधिकार है।
  • कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि: “We hold that the victim of an offence has the right to prefer an appeal under the proviso to Section 372 of the CrPC, irrespective of whether he is a complainant or not.”
  • यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि न्यायालय ने शिकायतकर्ता-पीड़ित होने के आधार पर नहीं बल्कि हानि-उठाने योग्य व्यक्ति होने के आधार पर अपीलकर्ता-पीड़ित का मानदंड तय किया।

2. अन्य सामान्य निर्णय (2025 अगस्त)

  • 22 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह कहा कि “victims of crime, including their legal heirs, can file an appeal against acquittal of the accused.”
  • अदालत ने स्पष्ट किया कि यह अधिकार शिकायतकर्ता-पक्ष, अभियोजन या राज्य को दिए गए अधिकारों के तुल्य होना चाहिए।
  • साथ ही, अगर पीड़ित अपील दाखिल कर चुका हो और पेंडेंसी में उसकी मृत्यु हो जाए, तो उसके कानूनी उत्तराधिकारी (legal heirs) उस अपील को जारी रख सकते हैं।

IV. “पीड़ित” (Victim) की व्याख्या एवं उसका विस्तार

– CrPC में “पीड़ित” की परिभाषा धारा 2(wa) में दी गई है (संशोधित रूप से), जिसमें कहा गया है: उस व्यक्ति को-जिसने किसी अपराध के परिणामस्वरूप हानि या चोट उठाई हो।
– सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि यह व्यक्ति शिकायतकर्ता न भी हो सकता है, परंतु उसने अपराध से संपत्ति या शारीरिक/मानसिक हानि झेली है।
– उदाहरणतः, चेक-निषिद्ध (Section 138 NI Act) मामले में चेक के भुगतान से वंचित व्यक्ति को आर्थिक हानि हुई, इसलिए वह ‘पीड़ित’ है।
– इसके अतिरिक्त, कंपनी, संगठन, कानूनी उत्तराधिकारी भी ‘पीड़ित’ में शामिल किए गए हैं-उदाहरण के लिए कॉर्पोरेट पेंचेस में।
– यह दृष्टिकोण न्याय-संविधानात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण है: क्योंकि अन्यायग्रस्त व्यक्ति को न्याय से वंचित नहीं करना चाहिए, सिर्फ इसलिए कि उसने ‘शिकायतकर्ता’ के रूप में नाम नहीं किया।


V. अपील (Against Acquittal) का उद्देश्य, प्रभाव एवं चुनौतियाँ

उद्देश्य

  • अभियुक्त के रिहा (acquittal) होने की स्थिति में, जो हानि-उठाने वाला/पीड़ित रहा है, उसे अपील का सीधा अधिकार मिलना न्यायसंगत माना गया है।
  • यह व्यवस्था पीड़ित-पक्ष को न्यायप्रक्रिया में सक्रिय भूमिका देती है-सिर्फ गवाह या शिकायतकर्ता के रूप में नहीं बल्कि अपीलकर्ता के रूप में।
  • अपराध लगाने-पारिस्थितियों में अभियुक्त के रिहा होने पर पीड़ित को “न्याय खण्डित हुआ” महसूस न हो, इसका भरोसा बढ़ाता है।

प्रभाव

  • अब अपील का द्वार पूर्व की अपेक्षा अधिक खुल गया है: सिर्फ राज्य-प्रोसेक्यूटर नहीं बल्कि व्यक्तिगत रूप से हानि-उठाने वाला भी अपील कर सकेगा।
  • इससे न्यायप्राप्ति में वृद्धि होने की संभावना है क्योंकि पीड़ित को दूसरा मौका मिलता है कि अभियुक्त के विरुद्ध फैसले का पुनरावलोकन हो सके।
  • इस अधिकार के साथ, न्यायिक प्रावधानों में “पीड़ित-सक्षमकर्ता” (victim-empowerment) की दिशा मजबूत हुई है।

चुनौतियाँ

  • यह भी ध्यान देने योग्य है कि अपील के लिए समय-सीमा, प्रक्रिया-शर्तें (limitation, jurisdiction, पंजीकरण आदि) अभी भी लागू हैं। उदाहरणस्वरूप, Celestium मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चार महीने के भीतर अपील दाखिल करने की अनुमति दी थी।
  • अपीलकर्ता-पीड़ित को यह साबित करना होगा कि उसने अपराध से हानि या चोट उठायी है-यह तथ्य विवाद का विषय हो सकता है।
  • संसाधन-प्रशासन की दृष्टि से, यह व्यवस्था न्यायिक व्यवस्था पर भार बढ़ा सकती है यदि पर्याप्त दिशा-निर्देश नहीं हों।

VI. व्यावहारिक सुझाव (Lawyers / पीड़ित-पक्ष के लिए)

  1. अपील दाखिल करने का सही विकल्प चुनें: पीड़ित व्यक्ति को यह चयन करना होगा कि वह किसी रिहाई-फैसले के विरुद्ध धारा 372 प्रोविसो के अंतर्गत अपील करना चाहता है या नहीं (शिकायतकर्ता के रूप में तय प्रक्रिया)।
  2. समय-सीमा पर ध्यान दें: जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है, अपील जल्दी दाखिल की जानी चाहिये-अगर देर हो जाए तो लिमिटेशन प्रश्न उठ सकता है।
  3. हानी/चोट (loss/injury) का दस्तावेजीकरण करें: पीड़ित-पक्ष को यह प्रमाण जुटाना होगा कि उसने अपराध के कारण वास्तव में हानि या चोट उठाई है — जैसे वित्तीय हानि, इलाज-खर्च, मानसिक तनाव आदि।
  4. कानूनी उत्तराधिकरण/उत्तराधिकारी-मुक़दमे (legal heirs) का इंतज़ाम: यदि अपील पेंडिंग है और पीड़ित की मृत्यु हो जाती है, तो कानूनी उत्तराधिकारी-पीड़ित को अपील जारी रखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार किया है।
  5. प्रोसेक्यूशन-एजेंसी तथा अभियोजन-सम्बन्धित प्रक्रिया-शर्तें देखें: राज्य या प्रोसेक्यूटर द्वारा अपील का अधिकार अलग-हो सकता है; इसलिए अपील की रणनीति तय करते समय राज्य-अपील की भी संभावना देखें।
  6. विधि-प्रावधानों से अवगत रहें: अपील का अधिकार सिर्फ धारा 372 प्रोविसो तक सीमित नहीं है; नए संशोधन, अन्य अधिनियम (उदाहरण-NI Act 138, BNSS 413 इत्यादि) को भी देखें।

VII. निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायप्रक्रिया में पीड़ित-वर्ग को एक सशक्त अधिकार प्रदान किया है — अभियुक्त के रिहा/सफाई (acquittal) के बाद भी न्याय की संभावना खुली रखी है। यह परिवर्तन पारंपरिक शिकायतकर्ता-केन्द्रित दृष्टिकोण से हटकर “हानि-उठाने वाला व्यक्ति” (victim) को न्याय-प्रवेश द्वार देता है।
इस प्रकार अब ऐसा नहीं रह गया कि सिर्फ शिकायतकर्ता (जिसने प्राथमिकी दर्ज कराई) ही अपीलकर्ता बन सकता है; चाहे व्यक्ति शिकायतकर्ता न हो-लेकिन यदि उसने अपराध से हानि या चोट उठाई है, वह अपील कर सकता है। यह परिवर्तन न्याय के सिद्धांत-विपण-मार्ग (rights-based) की दिशा में एक अभूतपूर्व कदम है।
इस व्यवस्था के सफल क्रियान्वयन के लिए अधिवक्ताओं, न्यायालयों एवं पीड़ित-पक्ष को सजग रहना होगा ताकि यह अधिकार रूप में ही न रह जाए, बल्कि व्यावहारिक रूप से यथोचित न्याय के साधन बने।