दुष्कर्म पीड़िता के गर्भपात की मांग पर हाईकोर्ट की सख्ती : न्याय और संवेदनशीलता का संतुलन
प्रस्तावना
भारत में दुष्कर्म पीड़िताओं की स्थिति हमेशा से संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण रही है। जब पीड़िता नाबालिग हो और गर्भवती हो जाए, तो उसका दर्द और कठिनाई और भी बढ़ जाती है। ऐसे मामलों में समय पर कानूनी और चिकित्सकीय हस्तक्षेप न केवल पीड़िता के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है, बल्कि यह उसके मानवीय अधिकारों से भी जुड़ा है। हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ (न्यायमूर्ति मज्ज कुमार गुप्ता और न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता) ने एक नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता को गर्भपात की अनुमति देते हुए यह स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में न्यायालयों को शीघ्र कार्यवाही करनी चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला बागपत जिले के सिपावली आहीर थाना क्षेत्र से जुड़ा है। 17 वर्षीय नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता की मां ने अपनी बेटी के गर्भपात की अनुमति के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
- पीड़िता ने 25 जुलाई 2025 को बागपत के विशेष पॉक्सो न्यायाधीश के समक्ष आवेदन किया था, लेकिन कोर्ट ने संवेदनशीलता न दिखाते हुए आवेदन रद्द कर दिया।
- इसके बाद पीड़िता की मां ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की।
- हाईकोर्ट ने 22 अगस्त 2025 को आदेश पारित करते हुए बागपत के सीएमओ को मेडिकल बोर्ड गठित करने का निर्देश दिया।
- 23 अगस्त को मेडिकल बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें कहा गया कि पीड़िता की उम्र 17 वर्ष है और गर्भावस्था जारी रहने पर उसकी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा होगा।
- इस रिपोर्ट के आधार पर हाईकोर्ट ने पीड़िता को गर्भपात की अनुमति दी और मेरठ मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों की टीम को एक सप्ताह के भीतर सुरक्षित गर्भपात कराने का आदेश दिया।
हाईकोर्ट की टिप्पणी
खंडपीठ ने कहा –
- नाबालिग से दुष्कर्म के मामलों में गर्भपात संबंधी आवेदन पर तुरंत सुनवाई होनी चाहिए।
- देरी करना पीड़िता के जीवन और स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
- निचली अदालतों को ऐसे मामलों में संवेदनशील रुख अपनाना चाहिए।
- इस तरह की देरी न्याय के सिद्धांतों और पीड़िता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
संवैधानिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य
भारत में गर्भपात से संबंधित कानून मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) Act, 1971 में निहित हैं। 2021 में इसमें संशोधन कर प्रावधान और स्पष्ट किए गए।
- बलात्कार पीड़िताओं और नाबालिगों के लिए 24 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है।
- गर्भपात के लिए मेडिकल बोर्ड की सिफारिश अनिवार्य होती है।
- यह सुनिश्चित किया गया है कि निर्णय पीड़िता की सहमति और चिकित्सकीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर हो।
सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार अपने फैसलों में कहा है कि महिलाओं को प्रजनन संबंधी स्वतंत्रता (Reproductive Rights) प्राप्त है और यदि गर्भ उनकी इच्छा के विरुद्ध है तो उसे जारी रखना उनके मौलिक अधिकारों का हनन होगा।
निचली अदालत की असंवेदनशीलता
हाईकोर्ट ने बागपत के विशेष पॉक्सो न्यायाधीश की कार्यवाही को असंवेदनशील बताते हुए कहा कि उन्होंने पीड़िता की स्थिति को समझने के बजाय केवल तकनीकी आधार पर आवेदन खारिज कर दिया। न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे खासकर दुष्कर्म और नाबालिगों से जुड़े मामलों में संवेदनशील रवैया अपनाएँ।
पीड़िता और परिवार की पीड़ा
17 वर्षीय नाबालिग पीड़िता पहले से ही दुष्कर्म जैसी त्रासदी झेल चुकी थी। इसके बाद गर्भावस्था उसकी मानसिक और सामाजिक स्थिति को और अधिक बिगाड़ सकती थी।
- मेडिकल रिपोर्ट में भी स्पष्ट हुआ कि गर्भावस्था जारी रहने पर पीड़िता की मानसिक स्थिरता पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
- परिवार भी इस निर्णय से सहमत था कि गर्भपात ही पीड़िता के भविष्य के लिए बेहतर होगा।
हाईकोर्ट के निर्देश
- मेरठ मेडिकल कॉलेज की टीम को सुरक्षित गर्भपात कराने का आदेश।
- मेरठ के डीएम को निगरानी की जिम्मेदारी।
- उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश कि ऐसे मामलों में भविष्य में देरी न हो।
- मुख्य सचिव से हलफनामा दाखिल करने को कहा गया कि आगे ऐसी परिस्थितियाँ न उत्पन्न हों।
महत्वपूर्ण पहलू
- मानव अधिकार का प्रश्न – पीड़िता का जीवन और भविष्य उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
- न्यायिक सक्रियता – हाईकोर्ट ने समय रहते निर्णय लेकर एक नाबालिग को असहनीय दर्द और जोखिम से बचाया।
- नीति निर्माण का संकेत – सरकार और न्यायपालिका को मिलकर ऐसी प्रणाली बनानी चाहिए जिससे गर्भपात संबंधी याचिकाओं पर तत्काल सुनवाई सुनिश्चित हो।
सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण
दुष्कर्म पीड़िताओं के लिए समाज का रवैया अक्सर नकारात्मक और भेदभावपूर्ण होता है। नाबालिग होने की स्थिति में यह बोझ और भी बढ़ जाता है।
- गर्भपात की अनुमति देना केवल कानूनी नहीं बल्कि मानवीय दृष्टि से भी अनिवार्य था।
- इस निर्णय ने यह संदेश दिया कि न्यायपालिका केवल कानून की व्याख्या तक सीमित नहीं है, बल्कि वह पीड़िता की मानसिक और सामाजिक गरिमा की भी रक्षा करती है।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला केवल एक नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता के लिए राहत नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज और न्याय व्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण नजीर है। न्यायमूर्ति मज्ज कुमार गुप्ता और न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता की खंडपीठ ने स्पष्ट कर दिया कि ऐसे मामलों में देरी न्याय के साथ अन्याय है।
यह आदेश न केवल अदालतों बल्कि सरकार और प्रशासन के लिए भी मार्गदर्शन है कि दुष्कर्म पीड़िताओं के अधिकारों और भविष्य की सुरक्षा के लिए तत्काल और संवेदनशील कार्रवाई जरूरी है।
अंततः यह मामला हमें यह सिखाता है कि कानून केवल दंड देने का साधन नहीं, बल्कि मानव गरिमा की रक्षा का उपकरण है। और जब न्यायालय संवेदनशीलता के साथ हस्तक्षेप करता है, तो वह पीड़िता के जीवन को नई दिशा देता है।