“दीवानी प्रक्रिया संहिता की मूल धाराएँ: भारतीय न्यायिक प्रणाली की संरचना और क्रियाविधि”

शीर्षक:
“दीवानी प्रक्रिया संहिता की मूल धाराएँ: भारतीय न्यायिक प्रणाली की संरचना और क्रियाविधि”


परिचय:

दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code – CPC) भारत की दीवानी न्यायिक प्रणाली की आधारशिला है। इसका उद्देश्य है – दीवानी मामलों में एक समान, निष्पक्ष, व्यवस्थित और प्रभावशाली न्यायिक प्रक्रिया सुनिश्चित करना। यह संहिता सिविल मुकदमों के संचालन की प्रक्रिया निर्धारित करती है – जैसे वाद की प्रस्तुति, समन की सेवा, उत्तर दाखिल करना, गवाही देना, निर्णय सुनाना और निर्णय का निष्पादन (execution)।

यह कानून न केवल वादों की प्रक्रिया बताता है, बल्कि न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर अधिकारक्षेत्र (jurisdiction), आदेशों की वैधता, अपील, पुनर्विचार, निष्पादन आदि की व्याख्या भी करता है।


CPC की संरचना (Structure of CPC):

  • कुल खंड (Parts): 2 भाग
    • पहला भाग: धाराएँ (Sections) – धारा 1 से 158 तक
    • दूसरा भाग: आदेश (Orders) – कुल 51 आदेश व उनके नियम (Rules)
  • कुल आदेश: Order I से Order LI तक
  • प्रारंभिक रूप से अधिनियमित: 21 मार्च 1908
  • प्रवर्तन तिथि: 1 जनवरी 1909

दीवानी प्रक्रिया संहिता की प्रमुख धाराएँ (Important Sections of CPC):

🔹 धारा 1 – संहिता का शीर्षक, विस्तार और प्रारंभ

यह धारा बताती है कि यह संहिता “Civil Procedure Code, 1908” कहलाएगी और संपूर्ण भारत में लागू होगी (कुछ अपवादों को छोड़कर)।

🔹 धारा 2 – परिभाषाएँ (Definitions)

इस धारा में संहिता में प्रयुक्त महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या की गई है जैसे “वाद” (suit), “निर्णय” (judgment), “आदेश” (decree), “निष्पादन” (execution) आदि।

🔹 धारा 9 – दीवानी न्यायालयों का क्षेत्राधिकार

यह महत्वपूर्ण धारा बताती है कि कोई भी व्यक्ति जिसका नागरिक अधिकार उल्लंघन हुआ है, वह दीवानी न्यायालय में वाद दायर कर सकता है, जब तक कि वह वाद किसी अन्य विधि द्वारा निषिद्ध न हो।

🔹 धारा 10 – एक ही वाद का पुनरावृत्ति (Stay of Suit)

यदि कोई मामला पहले से ही किसी न्यायालय में लंबित है, तो वही विषयवस्तु दोबारा किसी अन्य न्यायालय में नहीं उठाया जा सकता।

🔹 धारा 11 – पूर्वविधारित निर्णय (Res Judicata)

इस सिद्धांत के अनुसार, जब एक मामला पहले ही किसी सक्षम न्यायालय द्वारा निर्णयित हो चुका है, तो वही पक्ष पुनः वही मामला नहीं उठा सकते।

🔹 धारा 26 – वाद की संस्थापना (Institution of Suit)

यह धारा बताती है कि दीवानी वाद कैसे प्रारंभ किया जाएगा – वादपत्र (plaint) के माध्यम से।

🔹 धारा 27–32 – समन की सेवा (Service of Summons)

इन धाराओं में बताया गया है कि प्रतिवादी (defendant) को कैसे और कब समन भेजा जाएगा और सेवा की विधि क्या होगी।

🔹 धारा 34 – ब्याज की अनुमति

इस धारा के तहत न्यायालय द्वारा मुख्य राशि पर ब्याज लगाने का प्रावधान है, पूर्व कालीन और भविष्य की दरें अलग-अलग हो सकती हैं।

🔹 धारा 35 – व्यय (Costs)

यह न्यायालय को अधिकार देती है कि वह वाद की प्रक्रिया में हुए खर्च को निर्धारित कर सके और उपयुक्त पक्ष को वह भुगतान करने का निर्देश दे सके।

🔹 धारा 96 – प्रथम अपील (First Appeal)

न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय या अपीलीय न्यायालय में प्रथम अपील की जा सकती है, यदि पक्ष असंतुष्ट हो।

🔹 धारा 100 – द्वितीय अपील (Second Appeal)

यह केवल “विधिक प्रश्नों” (Substantial Question of Law) के आधार पर ही की जा सकती है।

🔹 धारा 114 – पुनर्विचार (Review)

यदि न्यायालय द्वारा कोई स्पष्ट भूल या त्रुटि हो गई हो, तो वही न्यायालय उस आदेश पर पुनर्विचार कर सकता है।

🔹 धारा 115 – पुनरीक्षण (Revision)

सत्र न्यायालय के आदेश की समीक्षा उच्च न्यायालय द्वारा की जा सकती है, यदि कोई अधिकार का उल्लंघन हो या कोई गंभीर प्रक्रिया त्रुटि हो।

🔹 धारा 144 – प्रतिकर (Restitution)

यदि किसी आदेश को बाद में अमान्य कर दिया गया, तो न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि पूर्व स्थिति बहाल की जाए।

🔹 धारा 151 – न्यायालय की अवशिष्ट शक्तियाँ

जहाँ संहिता में कोई विशेष प्रावधान नहीं है, वहाँ न्यायालय अपनी प्राकृतिक न्यायिक शक्तियों का प्रयोग कर सकता है, “न्याय, सुविधा और निष्पक्षता” के लिए।


महत्वपूर्ण आदेश (Orders) की संक्षिप्त जानकारी:

आदेश (Order) विषयवस्तु
Order I पक्षकारों की व्यवस्था
Order II वाद की रूपरेखा
Order V समन की सेवा
Order VI वादपत्र की औपचारिकताएँ
Order VII वादपत्र की प्रस्तुति
Order VIII उत्तरपत्र (Written Statement)
Order IX अनुपस्थिति और निषेध
Order X पक्षकारों से पूछताछ
Order XI–XIII साक्ष्य और दस्तावेज
Order XV वाद का निपटारा
Order XXI आदेश का निष्पादन (Execution of Decree)

दीवानी प्रक्रिया संहिता का व्यावहारिक महत्व (Practical Importance of CPC):

  1. एकरूपता (Uniformity): सभी भारतीय न्यायालयों में एक समान प्रक्रिया का पालन होता है।
  2. न्याय की गारंटी: प्रक्रिया का पालन न्याय को व्यवस्थित व निष्पक्ष बनाता है।
  3. न्यायिक अपील: न्यायिक त्रुटियों के सुधार हेतु अपील, पुनर्विचार व पुनरीक्षण की प्रक्रिया निर्धारित है।
  4. निष्पादन (Execution): निर्णय के बाद उसे लागू कराने की विधि सुनिश्चित करता है।
  5. नागरिकों के अधिकारों की रक्षा: कोई भी नागरिक कानूनी प्रक्रिया द्वारा अपने अधिकारों की पुनःस्थापना कर सकता है।

निष्कर्ष (Conclusion):

दीवानी प्रक्रिया संहिता भारतीय न्यायिक व्यवस्था का मूल ढांचा है, जो न्याय की प्राप्ति के लिए निर्धारित कानूनी पथ को प्रशस्त करता है। इसकी धाराएँ व आदेश एक समावेशी, व्यवस्थित और न्यायोचित व्यवस्था को बल देते हैं। हालांकि न्यायिक प्रणाली को सुगम और शीघ्र बनाने हेतु संहिता में समय-समय पर संशोधन होते रहते हैं, लेकिन इसकी मूल भावना – “प्रत्येक व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार” – आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है।