“दिव्यांग कैदियों के अधिकार और जेल सुधार: सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्देश”


“दिव्यांग कैदियों के अधिकार और जेल सुधार: सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्देश”


परिचय:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार कैदियों को भी उतना ही प्राप्त है, जितना एक आम नागरिक को। लेकिन जब बात दिव्यांग कैदियों की आती है, तो उनकी आवश्यकताएं विशेष होती हैं, और उनकी अनदेखी करना न केवल मानवीय गरिमा का उल्लंघन है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों के भी खिलाफ है। इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय दिया है जो जेलों में दिव्यांग कैदियों की स्थिति में सुधार लाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।


मामले की पृष्ठभूमि:

यह निर्णय उस याचिका के संदर्भ में आया है जिसे वकील एल. मुरुगनाथम ने दायर किया था। वे बीकर मस्कुलर डिस्ट्रॉफी नामक बीमारी से ग्रस्त हैं और जेल में उनके लिए उपयुक्त चिकित्सा व भोजन उपलब्ध नहीं था। उन्होंने शिकायत की कि उन्हें प्रोटीन युक्त आहार जैसे अंडा, चिकन, मेवे आदि नहीं दिए गए, जो उनकी स्वास्थ्य संबंधी जरूरत थी।

हालांकि, मद्रास हाई कोर्ट ने उन्हें ₹5 लाख मुआवजा देने का आदेश दिया था, लेकिन राज्य सरकार ने यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। इस पर न्यायमूर्ति जे. बी. पारडीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने विस्तृत सुनवाई करते हुए कई महत्वपूर्ण आदेश पारित किए।


सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्देश:

1. दिव्यांग कैदियों की पहचान अनिवार्य:

  • जेल में प्रवेश के समय प्रत्येक कैदी से उसकी दिव्यांगता संबंधी जानकारी मांगी जाए।
  • कैदी को यह अधिकार दिया जाए कि वह अपनी किसी भी मानसिक, शारीरिक या अन्य दिव्यांगता के बारे में खुलकर बता सके।

2. जेलें बनें दिव्यांग अनुकूल (Disabled Friendly):

  • सभी जेलों में व्हीलचेयर की सुविधा, रैंप, विशेष शौचालय, और सुरक्षित स्थान बनाए जाएं।
  • कैदियों को जेल की नियमावली और अन्य जानकारी ब्रेल लिपि, बड़ी लिखाई, सांकेतिक भाषा या सरल भाषा में दी जाए।

3. चिकित्सा और सहायक सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं:

  • दिव्यांग कैदियों को फिजियोथेरेपी, साइकोथेरेपी, स्पीच थेरेपी, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं और सहायक उपकरण दिए जाएं।
  • जेल प्रशासन यह सुनिश्चित करे कि इन सेवाओं तक नियमित और निर्बाध पहुंच हो।

‘मनपसंद खाना नहीं मिलना मौलिक अधिकार का हनन नहीं’: सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि:

  • महंगा या मनपसंद खाना नहीं मिलना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।
  • राज्य का दायित्व है कि वह कैदियों को पोषणयुक्त, स्वास्थ्यवर्धक, और डॉक्टर की सलाह अनुसार भोजन दे।
  • लेकिन विलासिता या व्यक्तिगत पसंद का खाना देना आवश्यक नहीं है।

‘जेलें सुधार केंद्र हैं, सुविधा स्थल नहीं’: न्यायालय की चेतावनी

कोर्ट ने यह दोहराया कि:

  • जेलें कोई ऐश्वर्य स्थल नहीं हैं।
  • इनका उद्देश्य सुधार और पुनर्वास है, न कि कैदियों को उनकी इच्छानुसार सुविधाएं देना।
  • यदि किसी कैदी की गरिमा या स्वास्थ्य को सीधा नुकसान नहीं हो रहा है, तो नॉन-एसेंशियल सुविधाओं की मांग को मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।

महत्व और प्रभाव:

यह फैसला कई मायनों में ऐतिहासिक है:

  1. यह दिव्यांग और ट्रांसजेंडर कैदियों के अधिकारों को पहचान देता है, जो अब तक उपेक्षित थे।
  2. यह सभी राज्यों के जेल प्रशासन को मानवाधिकारों के अनुरूप जेल संरचना विकसित करने के लिए बाध्य करेगा।
  3. यह कैदियों के स्वास्थ्य, गरिमा और न्यायपूर्ण व्यवहार को सुनिश्चित करने की दिशा में एक सशक्त कदम है।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय जेलों में सुधार और संवेदनशील प्रशासन की दिशा में बड़ा कदम है। यह याद रखना आवश्यक है कि कैदियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा संविधान का कर्तव्य है। दिव्यांग व्यक्तियों के साथ समानता और गरिमा का व्यवहार केवल संवैधानिक आवश्यकता नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण की भी मांग है।


संदेश:
“दिव्यांगता कोई अपराध नहीं, और जेलें दंड की जगह सुधार का माध्यम हैं – यही है सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट संकेत।”