दिल्ली हाईकोर्ट का स्पष्ट रुख — “संसद को निर्देश नहीं दे सकते”, भारतीय न्याय संहिता की याचिका खारिज

 दिल्ली हाईकोर्ट का स्पष्ट रुख — “संसद को निर्देश नहीं दे सकते”, भारतीय न्याय संहिता की याचिका खारिज


दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita – BNS), 2023 के कुछ प्रावधानों को निरस्त करने की मांग वाली एक जनहित याचिका को खारिज करते हुए यह स्पष्ट किया कि न्यायपालिका संसद को कानून बनाने या निरस्त करने का निर्देश नहीं दे सकती।

मामले का नाम: [Public Interest Litigation challenging provisions of the Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023]
न्यायालय: दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court)
पीठ: मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय एवं न्यायमूर्ति अनीश दयाल

प्रकृति: जनहित याचिका (Public Interest Litigation)
विषय: विधायिका की शक्ति बनाम न्यायपालिका का अधिकार क्षेत्र — कानून के निरसन की मांग

मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति अनीश दयाल की खंडपीठ ने कहा कि किसी अधिनियम को समाप्त (repeal) करने का एकमात्र तरीका संसद द्वारा विधिवत संशोधन अधिनियम (Amendment Act) पारित करना होता है। अदालत ने कहा कि यदि वह संसद को ऐसा करने का निर्देश देती है, तो वह “कानून बनाने” के दायरे में आ जाएगा, जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।


मामले की पृष्ठभूमि:

  • याचिकाकर्ता ने भारतीय न्याय संहिता, 2023 (जो भारतीय दंड संहिता, 1860 की जगह लाई गई है) की कुछ धाराओं को असंवैधानिक और दमनकारी बताते हुए उन्हें रद्द करने की मांग की थी।
  • विशेष रूप से, याचिका में कहा गया कि:
    • धारा 147 से 158 “राज्य के विरुद्ध अपराध” से संबंधित हैं।
    • धारा 189 से 197 “सार्वजनिक शांति भंग करने” से जुड़े प्रावधान हैं।
  • याचिकाकर्ता का तर्क था कि ये धाराएं ब्रिटिश राज के दमनकारी कानूनों पर आधारित हैं, जिनका उद्देश्य भारतीयों को नियंत्रित करना और उनकी स्वतंत्रता को कुचलना था।

न्यायालय की टिप्पणी:

पीठ ने सुस्पष्ट शब्दों में कहा:

“समापन केवल संशोधन अधिनियम पारित करके ही स्वीकार्य है। यह संसद का अधिनियम है। हम संसद को ऐसा करने का निर्देश नहीं दे सकते। यह कानून बनाने के समान होगा, जो हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।”

अदालत ने आगे यह भी रेखांकित किया कि:

  • संविधान के तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता का पृथक्करण (Separation of Powers) सुनिश्चित किया गया है।
  • न्यायपालिका की भूमिका कानून की व्याख्या (Interpretation) और लागू करने (Enforcement) तक सीमित है, न कि उन्हें बनाने या रद्द करने की।

निष्कर्ष:

यह निर्णय संविधान में स्थापित संवैधानिक मर्यादाओं और शक्तियों के संतुलन की स्पष्ट पुष्टि करता है। यह मामला न्यायपालिका की भूमिका को सीमित रखते हुए विधायिका की स्वायत्तता को मान्यता देता है।

दिल्ली हाईकोर्ट का यह रुख महत्वपूर्ण है, विशेषकर जब देश में नए आपराधिक कानूनों पर बहस चल रही है। अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि कानूनों की वैधता पर विचार किया जा सकता है, परंतु उन्हें निरस्त करना या संसद को ऐसा निर्देश देना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता