दिल्ली में बढ़ती लापता महिलाओं की संख्या: आंकड़ों के पीछे छिपी सच्चाई और सुरक्षा पर सवाल
भूमिका:
भारत की राजधानी दिल्ली—जिसे अक्सर “दिलवालों की दिल्ली” कहा जाता है—आज एक भयावह सामाजिक वास्तविकता से जूझ रही है। यहां चमचमाती सड़कों, सरकारी भवनों और तेज़ रफ्तार जिंदगी के पीछे एक गहरी चिंता छिपी है—महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा।
दिल्ली पुलिस के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, 1 जनवरी से 15 अक्टूबर 2025 के बीच कुल 19,682 लोग लापता हुए, जिनमें 61% यानी लगभग 11,900 महिलाएं और बच्चियां हैं। यह संख्या केवल एक सांख्यिकीय जानकारी नहीं, बल्कि समाज के उस डर, असुरक्षा और असमानता का आईना है जो हर दिन किसी न किसी परिवार की जिंदगी को तोड़ देता है।
अगर हम इन आंकड़ों को औसत में बदलें तो हर दिन करीब 40 से 45 महिलाएं या लड़कियां दिल्ली से लापता हो रही हैं। यह एक ऐसा आंकड़ा है जो किसी भी संवेदनशील समाज को झकझोर देने के लिए पर्याप्त है।
1. आंकड़ों की भयावह हकीकत
दिल्ली पुलिस द्वारा प्रस्तुत यह आंकड़ा केवल एक अवधि का विवरण है—जनवरी से मध्य-अक्टूबर तक का। परंतु यह अवधि यह समझने के लिए काफी है कि राजधानी में सुरक्षा का हाल किस ओर जा रहा है।
19,682 लापता लोगों में से लगभग 12 हजार महिलाएं और बच्चियां हैं, यानी हर दिन औसतन दो दर्जन से अधिक महिलाएं अपने घर से बाहर जाती हैं और फिर कभी वापस नहीं लौटतीं।
इनमें से कई मामले घरेलू विवाद, प्रेम प्रसंग, या स्वयं की इच्छा से घर छोड़ने से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन पुलिस रिकॉर्ड्स बताते हैं कि बड़ी संख्या में इन मामलों के पीछे अपराध, मानव तस्करी, यौन शोषण और जबरन विवाह जैसी घटनाएं भी जुड़ी होती हैं।
2. राजधानी में सुरक्षा का विडंबनापूर्ण चेहरा
दिल्ली, जो देश की राजनीतिक और प्रशासनिक राजधानी है, जहां हजारों पुलिसकर्मी तैनात हैं, CCTV कैमरे लगे हैं, और सुरक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं—वहीं इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं लापता होना एक बेहद गंभीर संकेत है।
यह सवाल खड़ा करता है कि आखिर सुरक्षा व्यवस्था में खामी कहां है?
क्या निगरानी प्रणाली कमजोर है?
क्या समाज में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर अब भी गंभीरता की कमी है?
या फिर यह एक गहरी सामाजिक समस्या का लक्षण है, जहां आर्थिक असमानता, बेरोज़गारी, और सामाजिक असुरक्षा ने महिलाओं को सबसे असुरक्षित वर्ग बना दिया है?
3. अपराध से जुड़े पहलू
हालांकि पुलिस का कहना है कि सभी लापता मामलों का संबंध अपराध से नहीं होता। कई बार लोग स्वयं घर छोड़ देते हैं—कभी प्रेम प्रसंग, तो कभी परिवारिक कलह के कारण।
लेकिन हर मामला अपराध से मुक्त नहीं होता।
दिल्ली महिला आयोग (DCW) और अन्य एनजीओ के अनुसार, बड़ी संख्या में लापता महिलाओं को बाद में मानव तस्करी के नेटवर्क, जबरी मजदूरी, या देह व्यापार के दलदल में पाया गया है।
कुछ मामलों में तो लापता बच्चियां अंतरराज्यीय या अंतरराष्ट्रीय तस्करी नेटवर्क का हिस्सा बन जाती हैं।
ऐसे मामलों में असली अपराधी पकड़ में नहीं आते, और परिवार वर्षों तक अपनी बेटी की तलाश में दर-दर भटकते रहते हैं।
4. मानव तस्करी: आंकड़ों के पीछे की काली सच्चाई
भारत में हर साल हजारों महिलाएं और बच्चियां मानव तस्करी का शिकार बनती हैं।
दिल्ली इस नेटवर्क का “ट्रांजिट हब” मानी जाती है—यानी यहां से कई पीड़ित महिलाओं को दूसरे राज्यों या देशों में भेजा जाता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्टों में भी यह स्पष्ट किया गया है कि दिल्ली, मुंबई, और कोलकाता जैसी महानगरियां तस्करी के प्रमुख केंद्र हैं।
ग्रामीण इलाकों से गरीब और असहाय परिवारों की लड़कियों को झूठे रोजगार, मॉडलिंग या शादी के नाम पर लाया जाता है, और फिर वे हमेशा के लिए गायब हो जाती हैं।
5. सामाजिक कारण और पारिवारिक दबाव
कई बार लापता होने के पीछे सामाजिक कारण भी होते हैं।
कम उम्र में विवाह, घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीड़न, यौन शोषण, या परिवार का अस्वीकारात्मक रवैया लड़कियों को घर छोड़ने पर मजबूर कर देता है।
दिल्ली में ग्रामीण पृष्ठभूमि से आई हुई या झुग्गी-झोपड़ी इलाकों में रहने वाली महिलाएं विशेष रूप से असुरक्षित रहती हैं।
कई बार माता-पिता की डांट या गरीबी भी लड़कियों को पलायन की ओर धकेल देती है।
लेकिन जब वे सड़कों पर या अजनबी माहौल में पहुंचती हैं, तो अपराधी गिरोह उनका शिकार बना लेते हैं।
6. पुलिस की कार्यप्रणाली और सीमाएं
दिल्ली पुलिस हर लापता व्यक्ति के लिए ‘मिसिंग रिपोर्ट’ दर्ज करती है और विशेष शाखाओं जैसे क्राइम ब्रांच तथा एंटी-ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट को जांच सौंपी जाती है।
लेकिन मामलों की विशाल संख्या, संसाधनों की कमी, और कई बार सामाजिक उदासीनता के कारण जांच प्रक्रिया धीमी हो जाती है।
कई बार लापता मामलों को ‘रूटीन’ समझ लिया जाता है, जब तक कोई गंभीर सबूत न मिले।
इसके अलावा, परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर होने से वे कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाते।
हालांकि पुलिस ने कई बार “ऑपरेशन मिलाप” जैसे अभियान चलाकर सैकड़ों लापता लड़कियों को उनके घर वापस भेजा है, लेकिन समस्या की जड़ अब भी बनी हुई है।
7. साइबर अपराध और सोशल मीडिया की भूमिका
वर्तमान समय में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और ऑनलाइन नेटवर्किंग साइट्स भी लापता मामलों में नई चुनौती बन गए हैं।
अपराधी ऑनलाइन माध्यमों से किशोरियों को झूठे वादों में फंसाते हैं—कभी प्रेम संबंध के नाम पर, कभी नौकरी या मॉडलिंग के बहाने।
कई मामले ऐसे सामने आए हैं जहां लड़कियों को ऑनलाइन ‘गूमिंग’ करके बुलाया गया और फिर वे गायब हो गईं।
इससे यह स्पष्ट है कि दिल्ली जैसे शहरी क्षेत्र में साइबर सुरक्षा और डिजिटल जागरूकता भी महिलाओं की सुरक्षा का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।
8. न्याय व्यवस्था और कानूनी ढांचा
भारत में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई कड़े कानून मौजूद हैं—
जैसे कि भारतीय दंड संहिता की धारा 366 (महिला का अपहरण या बलपूर्वक विवाह),
धारा 370 (मानव तस्करी),
और धारा 363 (अपहरण)।
इसके अलावा बाल संरक्षण कानून (POCSO Act, 2012) और महिला संरक्षण अधिनियम भी हैं।
लेकिन इन कानूनों के लागू होने और न्याय मिलने के बीच लंबा अंतर है।
कई बार पीड़ित परिवार FIR दर्ज कराने में ही महीनों लगा देते हैं, और फिर अदालतों में वर्षों तक केस चलता है।
इस देरी से अपराधियों में भय खत्म हो जाता है और अपराध का ग्राफ बढ़ता चला जाता है।
9. महिला आयोग और समाजिक संगठनों की भूमिका
दिल्ली महिला आयोग (DCW), राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW), और कई सामाजिक संगठन लगातार इस दिशा में काम कर रहे हैं।
वे न केवल लापता महिलाओं के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं, बल्कि पीड़ित परिवारों को कानूनी और मानसिक सहायता भी प्रदान करते हैं।
स्वाति मालीवाल जैसी कार्यकर्ताओं ने कई बार दिल्ली पुलिस पर कार्रवाई में देरी को लेकर सवाल उठाए हैं।
इन संगठनों की मांग है कि हर लापता मामले को केवल “घरेलू मामला” समझकर नहीं छोड़ा जाए, बल्कि हर रिपोर्ट की शुरुआती 24 घंटे के भीतर गंभीरता से जांच की जाए।
10. मीडिया और नागरिक समाज की जिम्मेदारी
मीडिया की भूमिका भी इस पूरे परिदृश्य में महत्वपूर्ण है।
जब कोई बड़ी घटना होती है, तब कुछ दिन तक सुर्खियां बनती हैं, लेकिन छोटे-छोटे मामलों पर ध्यान नहीं दिया जाता।
दरअसल, हर लापता लड़की के पीछे एक परिवार की कहानी होती है, एक मां की बेचैनी और एक पिता की लाचारी।
इसलिए नागरिक समाज और मीडिया को मिलकर ऐसी घटनाओं को केवल “न्यूज़ आइटम” न बनाकर सामाजिक मुहिम में बदलना चाहिए।
11. तकनीकी निगरानी और संभावित समाधान
दिल्ली में 10,000 से अधिक CCTV कैमरे लगाए गए हैं, लेकिन अपराधों की जाँच में इनकी वास्तविक भूमिका अक्सर सीमित रहती है।
जरूरत है कि इन तकनीकी साधनों को रियल-टाइम ट्रैकिंग सिस्टम, फेशियल रिकग्निशन तकनीक, और AI-आधारित निगरानी नेटवर्क से जोड़ा जाए।
साथ ही, स्कूलों, कॉलेजों, और मेट्रो स्टेशनों जैसे संवेदनशील इलाकों में विशेष महिला सुरक्षा इकाइयां तैनात की जानी चाहिए।
इसके अतिरिक्त, ‘सुरक्षित दिल्ली ऐप’ और महिला हेल्पलाइन 1091 के प्रति जागरूकता बढ़ाना भी अनिवार्य है।
12. मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समर्थन की आवश्यकता
लापता होने की घटनाएं सिर्फ अपराध का नहीं, बल्कि समाज की संवेदनहीनता का भी प्रतीक हैं।
महिलाओं और बच्चियों को आत्मनिर्भर बनाने, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने से ऐसी घटनाएं कम की जा सकती हैं।
स्कूलों और मोहल्लों में सुरक्षा शिक्षा (Safety Education) और Gender Sensitization जैसे कार्यक्रम जरूरी हैं।
जब समाज में यह समझ बढ़ेगी कि हर लड़की की सुरक्षा सामूहिक जिम्मेदारी है, तभी परिवर्तन संभव होगा।
13. निष्कर्ष: डर नहीं, जिम्मेदारी की जरूरत
दिल्ली के ये आंकड़े हमें डराने के लिए नहीं, बल्कि जगाने के लिए हैं।
अगर हर दिन 40 से 45 महिलाएं या बच्चियां लापता हो रही हैं, तो यह केवल पुलिस की नहीं, बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है।
जब तक हम इस मुद्दे को केवल “कानूनी” या “सांख्यिकीय” दृष्टि से देखेंगे, तब तक असली समाधान नहीं निकलेगा।
ज़रूरत है एक समग्र दृष्टिकोण की—जहां कानून, पुलिस, समाज, तकनीक, और नागरिक चेतना मिलकर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करें।
आज समय की मांग है कि दिल्ली न केवल राजनीतिक शक्ति का केंद्र बने, बल्कि महिला सुरक्षा और समानता की मिसाल भी बने।
क्योंकि एक शहर की असली पहचान उसके भवनों से नहीं, बल्कि उसकी महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा से तय होती है।