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“दिल्ली उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला: विवाह के दौरान अर्जित संपत्ति में पत्नी के समान अधिकार की पुष्टि”

“दिल्ली उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला: विवाह के दौरान अर्जित संपत्ति में पत्नी के समान अधिकार की पुष्टि”


प्रस्तावना

भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का संबंध नहीं, बल्कि दो परिवारों और जीवन की साझेदारी का प्रतीक माना जाता है। परंतु, जब विवाह टूटने की स्थिति आती है, तब सबसे बड़ा विवाद अक्सर संपत्ति के अधिकारों को लेकर होता है। विशेष रूप से तब, जब पति-पत्नी दोनों ने मिलकर वैवाहिक जीवन के दौरान कोई संपत्ति अर्जित की हो। इसी सन्दर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसला दिया है, जिसने भारत में पति-पत्नी के समान संपत्ति अधिकारों को नया आयाम प्रदान किया है।

यह निर्णय न केवल महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि यह “समानता के अधिकार” (Article 14) और “न्यायपूर्ण जीवन के अधिकार” (Article 21) की व्याख्या को और मजबूत करता है।


मामले की पृष्ठभूमि

इस प्रकरण में एक दंपत्ति का विवाह वर्ष 1999 में हुआ था। दोनों ने एक साथ मुंबई में एक संपत्ति खरीदी थी, जो उनके नाम संयुक्त स्वामित्व (joint ownership) में दर्ज थी। बाद में वैवाहिक मतभेदों के कारण दोनों 2006 में अलग हो गए।

समय बीतने के बाद, उस संपत्ति को बैंक द्वारा नीलाम किया गया और ₹1.09 करोड़ की राशि प्राप्त हुई। इस राशि के बंटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ।

  • पति का दावा:
    पति ने यह कहते हुए संपूर्ण धनराशि अपने नाम जारी करने की मांग की कि संपत्ति के खरीद मूल्य और ईएमआई का भुगतान उसने अकेले किया था। इसलिए, पत्नी को उस संपत्ति या बिक्री से प्राप्त धन में कोई अधिकार नहीं है।
  • पत्नी का पक्ष:
    पत्नी ने परिवार न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें कहा गया था कि पूरी राशि पति को दी जाए। उसने यह तर्क दिया कि संपत्ति उनके संयुक्त नाम पर है, और विवाह के दौरान अर्जित की गई थी, अतः उसे भी समान हिस्सा मिलना चाहिए।

मुख्य प्रश्न (Legal Issue)

इस मामले में प्रमुख कानूनी प्रश्न यह था कि —

“क्या विवाह के दौरान पति-पत्नी द्वारा संयुक्त रूप से खरीदी गई संपत्ति पर केवल उसी व्यक्ति का अधिकार होगा जिसने आर्थिक योगदान किया हो, या फिर दोनों का समान अधिकार माना जाएगा?”


दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय

यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय की द्वैध पीठ (Division Bench) के समक्ष आया, जिसमें न्यायमूर्ति अनिल क्षेतरपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर शामिल थे।

अदालत ने अपने विस्तृत और विवेचनात्मक निर्णय में यह स्पष्ट किया कि:

“विवाह के दौरान अर्जित संयुक्त संपत्ति को परिवार की संयुक्त निधि (common family fund) से अर्जित माना जाएगा, और उस पर पति और पत्नी दोनों का समान अधिकार होगा, चाहे आय किसकी भी रही हो या ईएमआई किसने भरी हो।”


मुख्य कानूनी आधार

1. बेनामी लेनदेन (निषेध) अधिनियम, 1988 की धारा 4 (Section 4 of the Benami Transactions (Prohibition) Act, 1988):

अदालत ने स्पष्ट कहा कि पति का यह दावा कि “संपत्ति केवल उसी की है क्योंकि उसने पैसे दिए” बेनामी कानून की भावना के विरुद्ध है।

  • यदि कोई संपत्ति संयुक्त नाम पर खरीदी गई है, तो बाद में यह दावा करना कि “नाम तो पत्नी का है पर संपत्ति मेरी है” बेनामी दावा माना जाएगा, जो कानूनन प्रतिबंधित है।

2. विवाह एक साझेदारी (Marriage as Partnership):

अदालत ने यह भी कहा कि विवाह केवल भावनात्मक या सामाजिक संस्था नहीं है, बल्कि यह जीवन का आर्थिक सहयोग (economic partnership) भी है।

  • पत्नी चाहे घर संभालने का कार्य करे या नौकरी करे, उसका योगदान परिवार और संपत्ति निर्माण में अप्रत्यक्ष परंतु समान रूप से महत्वपूर्ण है।
  • इसलिए, संपत्ति में बराबर का हिस्सा देना न्यायसंगत और संवैधानिक रूप से उचित है।

निर्णय के मुख्य बिंदु (Key Outcomes)

  1. पत्नी को बिक्री से प्राप्त ₹1.09 करोड़ में से 50% हिस्सा देने का आदेश:
    अदालत ने कहा कि संपत्ति के संयुक्त स्वामित्व को देखते हुए पत्नी को 50% हिस्सा (₹54.5 लाख) प्राप्त होगा।
  2. पति का तलाक याचिका (Divorce Petition) खारिज:
    अदालत ने यह पाया कि पति ने पत्नी के साथ असहयोग का रवैया अपनाया और उसका आर्थिक अधिकार दबाने की कोशिश की। अतः उसकी तलाक याचिका को अस्वीकार कर दिया गया
  3. पत्नी के लिए ₹2 लाख मासिक भरण-पोषण (Maintenance):
    अदालत ने परिवार न्यायालय द्वारा निर्धारित भरण-पोषण आदेश को बरकरार रखा, और यह कहा कि पत्नी को ₹2 लाख प्रतिमाह का भरण-पोषण मिलेगा।

अदालत का तर्क (Court’s Reasoning)

अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि:

  • विवाह के दौरान जब कोई संपत्ति पति-पत्नी के संयुक्त नाम से खरीदी जाती है, तो यह कानूनी रूप से यह अनुमान (presumption) बनता है कि संपत्ति दोनों के संयुक्त प्रयत्नों से अर्जित हुई है।
  • पत्नी का आर्थिक योगदान केवल नकद रूप में नहीं, बल्कि गृहिणी के रूप में उसकी भूमिका भी संपत्ति अर्जन में सहायक होती है।
  • गृहकार्य, बच्चों की देखभाल और परिवार का संचालन, पति को अपनी आर्थिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर देता है — अतः यह भी एक प्रकार का अप्रत्यक्ष आर्थिक योगदान (indirect financial contribution) है।

महत्व और प्रभाव (Significance and Impact)

यह फैसला भारतीय न्यायशास्त्र में महिलाओं के आर्थिक अधिकारों की दृष्टि से अत्यंत ऐतिहासिक है।

1. महिलाओं की आर्थिक समानता की दिशा में बड़ा कदम:

इस निर्णय से यह सिद्धांत स्थापित हुआ कि विवाह में पत्नी का योगदान केवल भावनात्मक या पारिवारिक नहीं, बल्कि आर्थिक भी माना जाएगा।

2. न्यायपालिका द्वारा सामाजिक परिवर्तन:

यह निर्णय यह दिखाता है कि भारतीय न्यायपालिका अब आर्थिक न्याय (economic justice) को पारिवारिक मामलों में भी लागू करने लगी है।

3. भविष्य के मामलों के लिए मिसाल (Precedent):

यह निर्णय आने वाले सभी ऐसे मामलों में न्यायिक मार्गदर्शक (judicial precedent) के रूप में कार्य करेगा, जहाँ पति-पत्नी के बीच संयुक्त संपत्ति के स्वामित्व का विवाद हो।


नारी सशक्तिकरण के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण

भारत में आज भी अधिकांश महिलाएँ घर संभालने का कार्य करती हैं, जिसे ‘गृहिणी का कार्य’ कहकर कम आंका जाता है। परंतु यह फैसला यह दर्शाता है कि घर संभालना, बच्चों की परवरिश करना और परिवार का आर्थिक प्रबंधन भी संपत्ति निर्माण की प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है।

अदालत ने यह स्वीकार किया कि:

“घर चलाना भी एक प्रकार की full-time नौकरी है, और इसका प्रतिफल पत्नी को संपत्ति में समान अधिकार के रूप में मिलना चाहिए।”

इस प्रकार यह निर्णय नारी गरिमा, समानता के अधिकार और आर्थिक न्याय — तीनों को एक साथ सशक्त करता है।


संवैधानिक परिप्रेक्ष्य

यह निर्णय संविधान के निम्नलिखित अनुच्छेदों की भावना से मेल खाता है:

  • अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार (Right to Equality)
  • अनुच्छेद 15 – लैंगिक भेदभाव का निषेध (Prohibition of Discrimination on Grounds of Sex)
  • अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Life and Personal Liberty)

अदालत ने अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश दिया कि विवाह के संबंध में भी इन संवैधानिक अधिकारों का पालन किया जाना आवश्यक है।


निष्कर्ष

दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय परिवार कानून की दिशा को पुनर्परिभाषित करता है। यह केवल एक पति-पत्नी के विवाद का निपटारा नहीं, बल्कि यह भारतीय समाज में विवाह को “समानता और साझेदारी” के सिद्धांत पर आधारित संस्था के रूप में स्थापित करने की दिशा में बड़ा कदम है।

यह फैसला उन सभी महिलाओं के लिए प्रेरणा है जिन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा परिवार और घर की देखभाल में समर्पित किया है। अब न्यायालय यह मानने लगा है कि उनकी वह भूमिका भी आर्थिक मूल्य रखती है, और इसलिए वे भी संपत्ति में समान अधिकार की अधिकारी हैं।


न्यायालय के शब्दों में सारांश:

“पति और पत्नी विवाह में समान साझेदार हैं। जब वे मिलकर जीवन का घर बनाते हैं, तो उसके नींव के पत्थर में दोनों का श्रम और समर्पण शामिल होता है। इसलिए, वैवाहिक संपत्ति में दोनों का अधिकार समान होना चाहिए।”