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दाखिल-खारिज अर्जियों का तीन माह में निस्तारण अनिवार्य : इलाहाबाद हाईकोर्ट का सख्त आदेश

दाखिल-खारिज अर्जियों का तीन माह में निस्तारण अनिवार्य : इलाहाबाद हाईकोर्ट का सख्त आदेश

प्रस्तावना

भारत में भूमि और उससे जुड़े विवाद हमेशा से समाज और प्रशासन के लिए जटिल चुनौती रहे हैं। भूमि केवल संपत्ति नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक दृष्टि से भी नागरिकों के जीवन का अहम हिस्सा है। भूमि का स्वामित्व और उसका सही रिकॉर्ड होना हर व्यक्ति के लिए उतना ही आवश्यक है जितना किसी अन्य मौलिक अधिकार का संरक्षण। इसी संदर्भ में दाखिल-खारिज (Mutation) प्रक्रिया का महत्व सामने आता है। यह एक साधारण प्रशासनिक प्रक्रिया है, जो केवल राजस्व अभिलेखों में नामांतरण या स्वामित्व परिवर्तन को दर्ज करने तक सीमित होती है।

लेकिन व्यवहारिक स्तर पर यह प्रक्रिया अत्यधिक विलंबकारी और विवादग्रस्त बन चुकी है। तहसीलों में महीनों और वर्षों तक दाखिल-खारिज की अर्जियां लंबित रहती हैं। कई बार नागरिकों को जमीन का मालिक होते हुए भी राजस्व रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज कराने के लिए रिश्वत या राजनीतिक दबाव का सहारा लेना पड़ता है। यही कारण है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में इस समस्या पर कड़ा रुख अपनाते हुए तीन माह की समय-सीमा तय की है।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला महेंद्र सिंह की ओर से दाखिल याचिका से जुड़ा है। उन्होंने रामपुर जिले की मिलक तहसील के तहसीलदार को निर्देशित करने की मांग की थी कि वे सुखविंदर कौर बनाम महेंद्र सिंह दाखिल-खारिज अर्जी का शीघ्र निस्तारण करें।

याचिका की सुनवाई माननीय न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल के समक्ष हुई। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने यह गंभीर प्रश्न उठाया कि दाखिल-खारिज जैसे छोटे प्रशासनिक मामलों में इतनी बड़ी संख्या में याचिकाएं आखिरकार हाईकोर्ट तक क्यों पहुंच रही हैं।


राज्य सरकार का पक्ष

सुनवाई में अपर महाधिवक्ता मनीष गोयल ने यह जानकारी दी कि राज्य सरकार पहले ही 09 जुलाई 2025 को एक सर्कुलर जारी कर चुकी है। इस सर्कुलर में सभी जिलाधिकारियों, तहसीलदारों और उप जिलाधिकारियों (SDO) को स्पष्ट निर्देश दिए गए थे कि दाखिल-खारिज की अर्जियों का निस्तारण निर्धारित समय-सीमा के भीतर किया जाए।

फिर भी यथास्थिति में कोई बड़ा सुधार देखने को नहीं मिला और नागरिकों को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी।


दाखिल-खारिज प्रक्रिया : कानूनी आधार और स्वरूप

दाखिल-खारिज का उद्देश्य केवल भूमि के वास्तविक स्वामी का नाम राजस्व अभिलेखों (खसरा-खतौनी) में दर्ज कराना होता है।

  1. कानूनी आधार
    • उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 (U.P. Revenue Code, 2006) की धारा 34, 35 और 36 दाखिल-खारिज से संबंधित प्रावधान करती हैं।
    • भूमि का क्रय-विक्रय, उपहार, वसीयत, या उत्तराधिकार के बाद नामांतरण आवश्यक होता है।
  2. प्रक्रिया
    • इच्छुक पक्ष तहसीलदार के समक्ष अर्जी देता है।
    • राजस्व अधिकारी सुनवाई करते हैं और आवश्यक प्रमाण-पत्र (बिक्री विलेख, वसीयतनामा, विरासत प्रमाण आदि) का परीक्षण करते हैं।
    • फिर नाम राजस्व अभिलेख में दर्ज किया जाता है।
  3. समस्याएं
    • लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और कर्मचारियों की कमी के कारण कार्य समय पर नहीं होता।
    • कई बार अधिकारी जानबूझकर मामले लंबित रखते हैं, ताकि पक्षकार उनसे “अनौपचारिक लेन-देन” करें।
    • इससे नागरिकों को उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।

हाईकोर्ट का आदेश

माननीय न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट कहा :

  1. दाखिल-खारिज की हर अर्जी का निस्तारण अधिकतम तीन माह में किया जाए।
  2. राज्य सरकार के 09 जुलाई 2025 के सर्कुलर और राजस्व संहिता के प्रावधानों का हर हाल में पालन हो।
  3. किसी भी अधिकारी द्वारा समयसीमा का उल्लंघन सिविल अवमानना माना जाएगा।
  4. संबंधित तहसीलदार अथवा एसडीओ को व्यक्तिगत रूप से अवमानना कार्यवाही का सामना करना पड़ेगा।

अवमानना अधिनियम, 1971 का संदर्भ

Contempt of Courts Act, 1971 में अवमानना दो प्रकार की मानी गई है –

  • सिविल अवमानना – जब कोई व्यक्ति या अधिकारी अदालत के आदेश या निर्देश का पालन करने में विफल रहता है।
  • क्रिमिनल अवमानना – जब कोई व्यक्ति न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुँचाता है।

इस मामले में सिविल अवमानना लागू होगी।

  • दंड – अधिकतम 6 माह की कारावास, या 2,000 रुपये का जुर्माना, अथवा दोनों।
  • अधिकारी चाहे किसी भी पद पर हों, उन्हें व्यक्तिगत रूप से दंडित किया जा सकता है।

दाखिल-खारिज और न्यायपालिका की चिंता

हाईकोर्ट ने यह चिंता जताई कि दाखिल-खारिज जैसी छोटी प्रक्रिया के लिए इतनी बड़ी संख्या में याचिकाएं दाखिल होना प्रशासन की विफलता का प्रतीक है।

  • इससे न्यायालय का कीमती समय बर्बाद होता है।
  • आम लोगों के लिए न्याय पाना कठिन और महंगा हो जाता है।
  • प्रशासन की साख और विश्वसनीयता प्रभावित होती है।

संविधानिक संदर्भ

  • अनुच्छेद 300A“कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा प्राधिकृत प्रावधान को छोड़कर अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।”
    • दाखिल-खारिज की देरी सीधे नागरिक के संपत्ति अधिकार का हनन है।
  • अनुच्छेद 14कानून के समक्ष समानता
    • यदि कुछ मामलों का निस्तारण जल्दी और कुछ का जानबूझकर विलंब से होता है, तो यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है।

सामाजिक और प्रशासनिक प्रभाव

  1. जनता को सीधी राहत – नागरिकों को अब वर्षों तक चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे।
  2. भ्रष्टाचार में कमी – जवाबदेही तय होने से रिश्वतखोरी पर रोक लगेगी।
  3. प्रशासनिक दक्षता – राजस्व अभिलेख अद्यतन रहेंगे, जिससे भूमि विवाद घटेंगे।
  4. न्यायालय पर बोझ कम होगा – दाखिल-खारिज संबंधी याचिकाओं की बाढ़ रुकेगी।
  5. नागरिकों का विश्वास – लोगों का भरोसा न्यायपालिका और प्रशासन दोनों में बढ़ेगा।

चुनौतियां

  • तहसीलों में पहले से लंबित मामलों की संख्या लाखों में है।
  • कर्मचारी और तकनीकी संसाधन सीमित हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर उत्तराधिकार संबंधी विवाद जटिल होते हैं, जिनका निस्तारण तीन माह में कठिन हो सकता है।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार को डिजिटलीकरण, अतिरिक्त स्टाफ की नियुक्ति और ऑनलाइन मॉनिटरिंग सिस्टम लागू करना होगा।


निष्कर्ष

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह आदेश केवल दाखिल-खारिज मामलों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक संकेत है कि न्यायपालिका प्रशासनिक लापरवाही को अब बर्दाश्त नहीं करेगी। यह आदेश नागरिकों के संपत्ति अधिकार की रक्षा करता है और प्रशासनिक प्रणाली में पारदर्शिता, जवाबदेही और दक्षता लाने का मार्ग प्रशस्त करता है।

यदि राज्य सरकार और अधिकारी इस आदेश का पालन ईमानदारी से करते हैं, तो भविष्य में भूमि विवादों और दाखिल-खारिज संबंधी शिकायतों में भारी कमी आएगी। इससे न्यायपालिका का भार घटेगा, जनता को समयबद्ध राहत मिलेगी और लोकतांत्रिक शासन की विश्वसनीयता और भी मजबूत होगी।