लेख शीर्षक:
“दहेज हत्या मामले में पति को 10 वर्ष की सजा, सास-ससुर साक्ष्य के अभाव में बरी – बरेली की अदालत का फैसला”
परिचय:
दहेज हत्या के एक संवेदनशील मामले में बरेली की एक अदालत ने पांच वर्ष पूर्व हुई विवाहिता की मौत के लिए उसके पति को दोषी मानते हुए 10 वर्ष के कठोर कारावास और 10,000 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई है। वहीं, सास और ससुर को पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया है। यह निर्णय अपर सत्र न्यायाधीश विजेन्द्र त्रिपाठी द्वारा सुनाया गया।
मामले की पृष्ठभूमि:
- पीड़िता: सुशीला देवी
- पति/आरोपी: प्रेमपाल
- ग्राम: दुनकी, थाना शाही
- वादी मुकदमा: पोशाकी लाल (पीड़िता के पिता)
- मूल निवास: ग्राम गिरधरपुर, थाना शीशगढ़
- घटना तिथि: 25 सितम्बर 2020
पीड़िता के पिता ने थाना शाही में तहरीर दी कि उनकी पुत्री सुशीला देवी की शादी प्रेमपाल से की गई थी। शादी के बाद से ही ससुराल पक्ष द्वारा दहेज में बाइक और 50,000 रुपये की मांग की जा रही थी। मांग पूरी न होने पर बेटी को शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।
घटनाक्रम:
- विवाह के कुछ समय बाद सुशीला को उसके ससुराल वालों ने मारपीट कर घर से निकाल दिया, जिससे वह अपने मायके में रहने लगी।
- 22 सितम्बर 2020 को, सुशीला को जबरन ससुराल लाया गया।
- 25 सितम्बर 2020 को सूचना मिली कि उसने जहरीला पदार्थ खा लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
- पुलिस जांच के बाद दहेज उत्पीड़न, हत्या और दहेज निषेध अधिनियम के तहत केस दर्ज कर आरोप पत्र कोर्ट में दाखिल किया गया।
अदालत का फैसला:
- पति प्रेमपाल को दोषी मानते हुए 10 साल के कठोर कारावास और ₹10,000 जुर्माना लगाया गया।
- सास-ससुर को दोषमुक्त कर दिया गया क्योंकि उनके खिलाफ ठोस सबूत प्रस्तुत नहीं हो सके।
सरकारी वकील हेमेंद्र गंगवार ने बताया कि अभियोजन पक्ष ने सभी आवश्यक तथ्यों को अदालत में रखा, जिनके आधार पर पति की संलिप्तता प्रमाणित हुई।
न्यायालय की टिप्पणी:
“दहेज के लिए की गई यातना और विवाहिता की मौत समाज में एक गंभीर अपराध है, जिसे कठोरता से दंडित किया जाना चाहिए।”
“परंतु जब तक अन्य सह-आरोपियों के विरुद्ध ठोस और विश्वसनीय साक्ष्य न हों, उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”
निष्कर्ष:
यह निर्णय न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता को दर्शाता है – जहाँ दोषी को सजा दी जाती है, वहीं बेकसूर को साक्ष्य के अभाव में राहत मिलती है। साथ ही यह फैसला दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ एक मजबूत संदेश देता है कि समाज में महिलाओं के साथ हो रहे उत्पीड़न को अदालत गंभीरता से लेती है।