IndianLawNotes.com

“दस्तावेज़ स्वीकृति (Admission) के बगैर हस्ताक्षर-हस्तलिखित तुलना नहीं: धारा 73 एवं धारा 45 के प्रावधानों एवं Supreme Court of India की व्याख्या”

“दस्तावेज़ स्वीकृति (Admission) के बगैर हस्ताक्षर-हस्तलिखित तुलना नहीं: धारा 73 एवं धारा 45 के प्रावधानों एवं Supreme Court of India की व्याख्या”


प्रस्तावना

भारतीय साक्ष्य­संहिता (Indian Evidence Act, 1872) में दस्तावेजी साक्ष्य से सम्बन्धित अनेक प्रावधान हैं। इसके अन्तर्गत विशेष रूप से धारा 45 तथा धारा 73 का महत्त्व है, जब प्रश्न उठता है कि किसी दस्तावेज़ पर किए गए हस्ताक्षर, लिखावट या मुहर वास्तव में उस व्यक्ति द्वारा की गई है या नहीं। प्रायः अदालतों में यह विवाद उठता है–क्या लिखावट (हस्तलिखित) या हस्ताक्षर किसी व्यक्ति के द्वारा किए गए हैं? इस प्रश्न के समाधान के लिए धारा 73 अदालत को प्रत्यक्ष तुलना (Comparison) का अधिकार देती है और धारा 45 विशेषज्ञ (expert) की राय का प्रावधान करती है। लेकिन न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि धारा 73 का प्रयोग तभी संभव है जब तुलना के लिए स्वीकृत या प्रमाणित (admitted or proved) दस्तावेज़ उपलब्ध हों। यहाँ “स्वीकृति” का अर्थ है कि उस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर या लिखावट, जिसे तुलना के लिए उपयोग करना है, वह पहले से या तो विवादित नहीं हो या व्यवहार में प्रमाणित हो चुका हो कि वह उस व्यक्ति द्वारा लिखी गई है।

इस आलेख का उद्देश्य है – धारा 45 एवं 73 के प्रावधानों को समझना, विशेष रूप से “स्वीकृत दस्तावेज़” की आवश्यकता तथा Supreme Court of India तथा उच्च न्यायालयों के निर्णयों द्वारा दिए गए विवेचन-मार्ग को स्पष्ट करना।


धारा 45 और धारा 73 – विधानसंहिता एवं उद्देश्य

धारा 45 – विशेषज्ञ की राय

धारा 45 इस प्रकार है:

“When the Court has to form an opinion upon a point of foreign law or of science or art, or as to identity of handwriting or finger-impressions, the opinions of persons specially skilled in such foreign law, science or art are relevant facts.”
इसका अर्थ है कि यदि अदालत को किसी प्रश्न पर विशेष ज्ञान (जैसे लिखावट की पहचान) बनाना हो, तो उस विषय में ‘विशेषज्ञ’ की राय देना प्रासंगिक साक्ष्य माना जाएगा। उदाहरण के लिए, यदि यह विवाद है कि यह लिखावट वास्तव में X के द्वारा है या नहीं, तो लिखावट-विश्लेषण (handwriting analysis) करने वाला विशेषज्ञ अपनी राय दे सकता है। लेकिन ध्यान रहे: विशेषज्ञ की राय अकेली पर्याप्त नहीं होती; अदालत को पूरे साक्ष्य-स्थल को देखने की स्वतंत्रता है।

धारा 73 – तुलना (Comparison)

धारा 73 इस प्रकार है:

“In order to ascertain whether a signature, writing or seal is that of the person by whom it purports to be written or made, any signature, writing or seal admitted or proved to the satisfaction of the Court to have been written or made by that person may be compared with the one which is to be proved, although no notice has been given, and whether the admitted signature etc. has been produced or not.”
इसका सिद्धांत सरल है: यदि किसी व्यक्ति ने हस्ताक्षर या लिखावट की है और वह दस्तावेज़ स्वीकृत या प्रमाणित है, तो उस दस्तावेज़ के हस्ताक्षर/लिखावट को उस व्यक्ति द्वारा कथित किए गए अन्य दस्तावेज़ के हस्ताक्षर/लिखावट से तुलना (court-comparison) की जा सकती है। इसमें अदालत स्वयं तुलना कर सकती है या यदि आवश्यक हो, तो विशेषज्ञ से भी राय ले सकती है।

लेकिन एक बहुत महत्वपूर्ण शर्त है — तुलना के लिए उपयोग किया जाने वाला “स्वीकृत या प्रमाणित” दस्तावेज़ (specimen/or admitted document) विवाद-रहित होना चाहिए। अर्थात्, वह दस्तावेज़ जिसे आधार के रूप में लिया जा रहा है, उस पर हस्ताक्षर या लिखावट उस व्यक्ति की हो, और वह लिखावट दोनों पक्षों द्वारा विवादित न हो; अथवा अदालत की संतुष्टि के बाद प्रमाणित हो चुकी हो। इस शर्त के बिना धारा 73 का प्रयोग नहीं हो सकता।


“स्वीकृत दस्तावेज़” की अवधारणा और आवश्यकता

उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि धारा 73 द्वारा तुलना तभी सही तरह से हो सकती है जब निम्नलिखित बिंदु पूरे हों:

  1. स्वीकृति या प्रमाण – तुलना के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला दस्तावेज़ पहले से उस व्यक्ति द्वारा लिखा गया हो – यानी कि हस्ताक्षर/लिखावट उस व्यक्ति की हो, और उसे या तो विवादित न किया गया हो (स्वीकृत) या विवादित होने पर भी अदालत ने प्रमाणित कर लिया हो (proved to satisfaction of court).
  2. तुलना का समय-चरण – धारा 73 का प्रयोग उस मुकदमे या विवाद के दौरान ही होता है जहाँ दस्तावेज़ प्रस्तुत है और उस पर विवाद उपस्थित है। अनुसंधान-स्थिति या भविष्य-स्थितियों के लिए धारा 73 लागू नहीं होती।
  3. स्वनिर्णय का अधिकार – अदालत स्वयं तुलना कर सकती है; यह आवश्यक नहीं कि तुलना हेतु विशेषज्ञ लाया जाए। लेकिन विशेषज्ञ की सहायता लेना सुरक्षित होता है।
  4. सावधानी की आवश्यकता – हस्तलिखित या हस्ताक्षर की तुलना करना प्रत्येक मामले में सरल नहीं होता; इसमें जोखिम है कि केवल दृष्टि-निर्णय पर आधारित तुलना गलत निष्कर्ष दे सकती है। उच्च न्यायालयों ने इसे “हैरान कर देने वाला” कहा है।

उदाहरण के लिए, जैसा कि एक ब्लॉग में बताया गया है: “Section 73 empowers the Court to compare the signature… The phrase ‘admitted or proved to the satisfaction of the court’ … contemplates that the specimen document … must be undisputed … only then proceed for comparison.”

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि स्वीकृत दस्तावेज़ की उपलब्धता धारा 73 की तुलना प्रक्रिया की पूर्व- आवश्यकता है। यदि वह दस्तावेज़ विवादित हो या उसका हस्ताक्षर उस व्यक्ति द्वारा किया गया हो यह विवादित हो, तो तुलना के आधार के रूप में उसे उपयोग करना उचित नहीं है।


सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्याएँ एवं प्र 중요 निर्णय

प्रमुख निर्णयों की झलक

  • Dr Narayan Mukherjee vs Krishna Dey में यह माना गया कि “Court is within its right to compare writings by itself as per the provisions of Section 73 … without the aid of a handwriting expert, if occasion so demands.”
  • एक अन्य निर्णय में कहा गया: “The language under Section 73 … does not permit any court to give a direction to an accused to give his specimen writings for anticipated necessity for comparison in a proceeding which is not before the Court.”
  • ब्लॉग बम्रवती विश्लेषण में उल्लेख है कि उच्च न्यायालयों ने स्पष्ट किया कि “specimen document or signature must be undisputed … only then comparison.”
  • नवीनतम आलेखों में भी बताया गया है कि “For invoking Section 73, there must first have been some signature or writing admitted or proved to the satisfaction of the Court…”

न्यायिक व्याख्या – मुख्य बिंदु

  1. स्वीकृति/प्रमाणीकरण की अनिवार्यता
    सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर तुलना के लिए इस्तेमाल वाला दस्तावेज़ उस व्यक्ति का हस्ताक्षर/लिखावट स्वीकृत या प्रमाणित नहीं है, तो धारा 73 के तहत उसे तुलना हेतु आधार नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए, यदि दूसरे पक्ष ने उस हस्ताक्षर/लिखावट को पहले से ही विवादित कर रखा है, तो वह दस्तावेज़ “undisputed specimen” नहीं माना जाएगा।
  2. निरपेक्ष तुलना नहीं
    केवल दृष्टि-निर्णय द्वारा, बिना विशेषज्ञ राय के भी तुलना संभव है (धारा 73 की शक्ति के अंतर्गत) लेकिन उस समय भी अदालत को सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि हस्तलिखित तुलना एक सरल-सा कार्य नहीं है। एक निर्णय में यह कहा गया कि “mere comparison of signatures without the aid … is dangerous.”
  3. धारा 45 का सहारा
    जब लिखावट/हस्ताक्षर की पहचान वैज्ञानिक/विशेषज्ञ विश्लेषण-योग्य हो (उदाहरण-तॉइपिंग मशीन, डिजिटल हस्ताक्षर, लिखावट की जटिलता) तो धारा 45 के अंतर्गत विशेषज्ञ की राय ली जा सकती है। लेकिन यह ध्यान में रखें कि विशेषज्ञ की राय भी स्वतः निर्णायक नहीं होती; उसे अन्य साक्ष्यों के साथ मिलाकर इंटिग्रेट करना पड़ता है।
  4. तुलना की सीमा एवं विवेकाधिकार
    अदालत को यह विवेक-शक्ति है कि वह कब धारा 73 की तुलना खुद करे, कब विशेषज्ञ की राय ले और कब दोनों की सहायता से अंतिम निष्कर्ष दे। उदाहरणस्वरूप, उच्च न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि “Courts could arrive at a conclusion based on their own observation of disputed signatures/handwritings with admitted evidence if there is other supporting evidence also pointing towards the conclusion.”

“केवल स्वीकृत दस्तावेज़ों के लिए” सिद्धांत – गहन विवेचन

यहाँ हम इस सिद्धांत की समीक्षा करते हैं कि क्यों यह आवश्यक है कि तुलना के लिए आधार-दस्तावेज़ पहले से स्वीकृत या प्रमाणित हो।

(क) प्रमाण-शक्ति और निष्पक्षता

यदि तुलना के लिए दस्तावेज़ विवादित हो, तो किस आधार पर यह मान लिया जाए कि वह व्यक्ति ने लिखा है? ऐसे दायरे में तुलना करना निष्पक्ष नहीं होगा, क्योंकि आधार स्वयं विवादित है। स्वीकृति/प्रमाण के चरण ने यह सुनिश्चित किया है कि तुलना का “उपकरण” विश्वसनीय है। इस तरह प्रक्रिया न्याय-साधक एवं निष्पक्ष बनी रहती है।

(ख) विवादित दस्तावेज़ की तुलना में जोखिम

यदि अदालत बिना पुष्टि के किसी अस्वीकृत दस्तावेज़ से तुलना करती है, तो यह जोखिम हो जाता है कि निष्कर्ष विवादित आधार पर ही आधारित होगा। उदाहरण के लिए, यदि दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर नहीं स्वीकृत है और बाद में वह व्यक्ति दावा करता है कि यह दस्तावेज़ मेरी नहीं है, तो तुलना का आधार ही खंडित हो जाएगा। इसलिए न्यायालयों ने यह चेतावनी दी है कि “mere comparison … without aid … is dangerous.”

(ग) प्रक्रिया-व्यवस्था का अभाव

धारा 73 में यह प्रावधान है कि कोई भी स्वीकृत या प्रमाणित हस्ताक्षर/लिखावट उस व्यक्ति द्वारा “to the satisfaction of the Court” लिखी गई हो। यदि यह पूरा नहीं होता, तो तुलना के पूर्व प्रक्रिया अधूरी रह जाएगी — यह न्याय की दृष्टि से उचित नहीं है।

(घ) अन्य साक्ष्यों से संतुलन

यह भी देखा गया है कि धारा 73 की तुलना केवल तभी उचित है जब अन्य साक्ष्य भी मौजूद हों जो निष्कर्ष की पुष्टि करते हों। यदि सब कुछ आधार-दस्तावेज़ पर निर्भर हो जाए, और वह आधार विवादित हो, तो निष्कर्ष खतरे में होगा। उदाहरण के लिए, एक लेख में बताया गया है कि “Courts could arrive at a conclusion … if there is other supporting evidence also pointing towards the conclusion.”


व्यवहारिक सुझाव एवं अदालतों द्वारा देखी गई चुनौतियाँ

सुझाव

  • आवेदन करते समय पक्ष को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि तुलना के लिए प्रमाणित/स्वीकृत दस्तावेज़ उपलब्ध हों। यदि नहीं हों, तो धारा 73 के तहत आवेदन करना जल्दबाजी होगा।
  • अदालत को चाहिए कि पहले यह देखें कि उस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर/लिखावट वास्तव में उस व्यक्ति की है — यानी वह पक्ष ने विवाद नहीं किया हो या यदि किया हो तो अभियुक्त/प्रतिवादी ने उसे स्वीकृति दे दी हो।
  • विशेषज्ञ की राय का उपयोग तभी करें जब लिखावट-पहचान की जटिलता हो, अन्यथा अदालत स्वयं तुलना कर सकती है।
  • तुलना के दौरान अदालत को अपनी निष्पक्षता, सावधानी एवं प्रमाण-प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करना चाहिए—विशेष रूप से यदि तुलना दृष्टि-निर्णय पर आधारित हो।
  • यदि दस्तावेज़ डिजिटल हस्ताक्षर या इलेक्ट्रॉनिक लिखावट है, तो विश्लेषण की तकनीकी जटिलता को देखते हुए विशेषज्ञ की राय विशेष उपयोगी होगी।

चुनौतियाँ

  • कभी-कभी ऐसा होता है कि मूल-हस्ताक्षर या लिखावट नहीं मिल पाती, या जो मिलती है वह विवादित होती है। इस स्थिति में धारा 73 लागू नहीं होती; अदालत को विशेषज्ञ राय (धारा 45) या अन्य साक्ष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  • लिखावट-विश्लेषण एक निश्चित विज्ञान नहीं है; कई बार ‘किनारे’ के कारण तुलना निष्कर्ष-क्षम नहीं होती। जैसा कि उल्लेख हुआ, यह “हैरान कर देने वाला” हो सकता है।
  • आवश्यकता-अनुसार, अदालत को यह निर्देश देना पड़ सकता है कि व्यक्ति कोर्ट में उपस्थित हो तथा “any words or figures” लिखे ताकि तुलना हो सके – यह अधीन धारा 73(2) की शक्ति है।

निष्कर्ष

संक्षिप्त रूप से कहा जाए तो — धारा 73 और धारा 45 भारतीय साक्ष्य-प्रक्रिया में हस्ताक्षर/लिखावट या मुहर की पहचान एवं तुलना के लिए महत्त्वपूर्ण साधन हैं। लेकिन इनका उपयोग युक्ति-संगत, सावधानीपूर्ण तथा विधि-अनुकूल होना चाहिए। विशेष रूप से यह महत्वपूर्ण है कि धारा 73 के अंतर्गत तुलना तभी हो सकेगी जब “स्वीकृत या प्रमाणित” दस्तावेज़ मौजूद हो। अन्यथा, तुलना प्रक्रिया का आधार ही प्रभावित होगा और निष्कर्ष न्यायोपयोगी नहीं रहेंगे।

इसलिए, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि – “केवल स्वीकृत दस्तावेज़ों के कारण ही हस्ताक्षर/लिखावट की तुलना न्यायालय के समक्ष सुरक्षित-प्रक्रिया के अंतर्गत आ सकती है।” यदि इस पूर्व-शर्त का पालन नहीं हुआ, तो धारा 73 का लाभ उठाना न्यायिक दृष्टि से अव्यवस्थित हो जाएगा।

      आपके द्वारा चाहे गए विषय — “धारा 45/73 Evidence Act Of Comparison Signatures & Handwritings Can Be Sought Only For Admitted Documents: Supreme Court” — को ध्यान में रखते हुए, इस आलेख में हमने विधि-प्रावधान, सर्वोच्च न्यायालय एवं अन्य न्यायालयों के व्याख्याएँ, कारण-परिणाम तथा सुझाव समाहित किए हैं।