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दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure – CrPC) : एक विस्तृत अध्ययन

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure – CrPC) : एक विस्तृत अध्ययन


1. प्रस्तावना

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) भारत में आपराधिक मामलों की जांच, अभियोजन और न्यायिक प्रक्रिया के लिए एक प्रमुख विधिक ढांचा प्रदान करती है। यह संहिता न केवल अपराध की जांच के तरीकों को निर्धारित करती है, बल्कि अभियुक्त के अधिकारों, पीड़ित के हितों, और न्यायालयों की शक्तियों व दायित्वों को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित करती है। इसका उद्देश्य न्याय की त्वरित, निष्पक्ष और प्रभावी डिलीवरी सुनिश्चित करना है।


2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में दण्ड प्रक्रिया का स्वरूप ब्रिटिश शासनकाल में विकसित हुआ।

  • पहला प्रयास 1861 में हुआ जब “Criminal Procedure Code, 1861” लागू की गई।
  • इसके बाद 1898 में एक नया संशोधित कोड आया, जो लंबे समय तक लागू रहा।
  • स्वतंत्रता के बाद, आवश्यक संशोधनों और भारतीय परिस्थितियों के अनुसार सुधार करते हुए 1973 में वर्तमान दण्ड प्रक्रिया संहिता लागू की गई, जो 1 अप्रैल 1974 से प्रभावी हुई।

3. उद्देश्यों

CrPC के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं—

  1. अपराधों की जांच व अभियोजन की स्पष्ट प्रक्रिया प्रदान करना।
  2. अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई और विधिक सहायता का अधिकार सुनिश्चित करना।
  3. पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए प्रभावी व्यवस्था प्रदान करना।
  4. पुलिस, मजिस्ट्रेट और न्यायालय की शक्तियों और कर्तव्यों का निर्धारण करना।
  5. विधि का शासन (Rule of Law) स्थापित करना।

4. संरचना

दण्ड प्रक्रिया संहिता में 37 अध्याय, 484 धाराएँ और दो अनुसूचियां (Schedules) हैं।

  • पहली अनुसूची – संज्ञेय (Cognizable) और असंज्ञेय (Non-Cognizable) अपराधों का वर्गीकरण।
  • दूसरी अनुसूची – विभिन्न प्रकार के प्रपत्र (Forms) और आदेशों का प्रारूप।

5. प्रमुख प्रावधान

(A) जांच और गिरफ्तारी

  • अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा FIR दर्ज करना (धारा 154)।
  • संज्ञेय अपराध में पुलिस को बिना वारंट गिरफ्तारी का अधिकार (धारा 41)।
  • गिरफ्तारी के समय अभियुक्त के अधिकार, जैसे कारण बताना, वकील से मिलने का अधिकार (धारा 50)।

(B) जमानत और रिमांड

  • जमानती और गैर-जमानती अपराध का वर्गीकरण।
  • मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस रिमांड अधिकतम 15 दिन तक (धारा 167)।

(C) विचारण प्रक्रिया

  • सत्र व मजिस्ट्रेट न्यायालयों में विभिन्न प्रकार की सुनवाई प्रक्रिया।
  • अभियोजन और बचाव पक्ष को समान अवसर।

(D) साक्ष्य और गवाह

  • गवाहों को सम्मन भेजना और उनके बयान दर्ज करना।
  • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग द्वारा गवाही की अनुमति।

(E) निर्णय और सजा

  • निर्णय को कारण सहित लिखित रूप में देना।
  • दोषसिद्धि या बरी करने के आधार।

(F) अपील, पुनरीक्षण और पुनर्विचार

  • उच्चतर न्यायालय में अपील का अधिकार।
  • पुनरीक्षण (Revision) द्वारा त्रुटियों का सुधार।

6. CrPC में संशोधन

1973 से अब तक CrPC में कई बार संशोधन हुए, जैसे—

  • CrPC (संशोधन) अधिनियम, 2005 – पीड़ित को मुआवजे का अधिकार।
  • CrPC (संशोधन) अधिनियम, 2010 – गवाह संरक्षण संबंधी प्रावधान।
  • CrPC (संशोधन) अधिनियम, 2013 – निर्भया कांड के बाद बलात्कार संबंधी प्रावधान कड़े किए गए।
  • CrPC (संशोधन) अधिनियम, 2018 – नाबालिग से बलात्कार पर मृत्युदंड का प्रावधान।

7. अभियुक्त और पीड़ित के अधिकार

(A) अभियुक्त के अधिकार

  1. कानूनी सहायता का अधिकार (धारा 304)।
  2. त्वरित सुनवाई का अधिकार।
  3. मौन रहने का अधिकार।
  4. निष्पक्ष न्यायाधीश के समक्ष सुनवाई।

(B) पीड़ित के अधिकार

  1. FIR दर्ज कराने का अधिकार।
  2. जांच की प्रगति की जानकारी पाने का अधिकार।
  3. मुआवजा और पुनर्वास का अधिकार।

8. न्यायालयों की संरचना (CrPC के अनुसार)

  • सत्र न्यायालय (Sessions Court)
  • मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM)
  • न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी
  • विशेष न्यायालय (जैसे POCSO कोर्ट, NDPS कोर्ट आदि)

9. महत्व

CrPC एक ऐसा विधिक उपकरण है जो अपराध की सूचना से लेकर अंतिम सजा और अपील तक पूरे आपराधिक न्याय तंत्र को व्यवस्थित करता है। यदि यह संहिता न हो, तो न्याय व्यवस्था में स्पष्टता, पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखना कठिन हो जाएगा।


10. निष्कर्ष

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था की रीढ़ है। यह न केवल अपराधी को दंडित करने की प्रक्रिया निर्धारित करती है, बल्कि अभियुक्त के मौलिक अधिकारों और पीड़ित के हितों के बीच संतुलन भी बनाए रखती है। बदलते समय के साथ इसमें संशोधन की आवश्यकता बनी रहती है, ताकि यह आधुनिक तकनीक, अपराध के नए स्वरूप और समाज की न्याय संबंधी अपेक्षाओं के अनुरूप रह सके।