शीर्षक:
“दंड या मुआवजा? – सुप्रीम कोर्ट का सख्त संदेश : सजा की जगह मुआवजा नहीं, न्याय की गरिमा से समझौता नहीं”
⚖️ भूमिका
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में दंड और मुआवजा दो अलग-अलग उद्देश्य साधने वाले तंत्र हैं – एक अपराधी को दंडित करने के लिए, दूसरा पीड़ित को न्याय और राहत देने के लिए। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में इस सिद्धांत को दोहराया कि मुआवजा सजा का विकल्प नहीं हो सकता। एक उच्च न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि की पुष्टि और चार साल की सजा निर्धारित करने के बावजूद, उस सजा को घटाकर केवल मुआवजा देने का आदेश देने को सुप्रीम कोर्ट ने “कानूनी भूल” करार दिया।
🧾 मामले का संदर्भ
⚖️ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
- उच्च न्यायालय ने पहले दोष सिद्ध किया और चार वर्ष की सजा भी सुनाई।
- बाद में, उसी न्यायालय ने यह सजा घटाकर केवल मुआवजा देने का आदेश दे दिया।
- सुप्रीम कोर्ट ने इसे “दंड की वैधानिकता और न्यायिक संतुलन” के खिलाफ बताया।
🔍 प्रमुख कानूनी निष्कर्ष
📌 1. CRPC की धारा 357 और 354 का विश्लेषण
- धारा 357 CrPC: अदालत को अधिकार देता है कि वह पीड़ित को मुआवजा देने का आदेश दे सकती है।
- धारा 354 CrPC: सजा देते समय न्यायाधीश को कारण सहित निर्णय देना आवश्यक होता है।
➡️ लेकिन: यह दोनों धाराएं दंड को समाप्त करने या मुआवजा के बदले सजा हटाने की अनुमति नहीं देतीं।
📌 2. सजा और मुआवजा – दो भिन्न लक्ष्य
- सजा (Punishment) : अपराधी को दंडित करना, समाज में अनुशासन और न्याय बहाल करना।
- मुआवजा (Compensation) : पीड़ित को पुनर्वास और आर्थिक राहत देना।
➡️ इनमें से एक को दूसरे का स्थान नहीं दिया जा सकता।
🚫 सुप्रीम कोर्ट का आपत्ति बिंदु
- ✅ सजा की पुष्टि के बाद उसका रूपांतरण असंवैधानिक
- जब अदालत दोषसिद्धि और सजा तय कर चुकी है, तो उसे उस सजा को मुआवजा देकर समाप्त करने का कोई अधिकार नहीं होता।
- ✅ न्यायिक स्थिरता और विश्वसनीयता पर आघात
- ऐसा निर्णय यह गलत संकेत देता है कि पैसे के बल पर न्यायिक सजा को बदला जा सकता है, जो न्याय की मूल भावना के विरुद्ध है।
- ✅ सजा का उद्देश्य कमज़ोर नहीं किया जा सकता
- दंड न केवल अपराधी के लिए, बल्कि समाज के लिए भी एक सशक्त संदेश होता है। अगर अपराध गंभीर है, तो मात्र पैसे से अपराध का प्रायश्चित नहीं हो सकता।
- ✅ भविष्य में खतरनाक उदाहरण बन सकता है
- यदि अदालतें सजा के बदले मुआवजा स्वीकार करने लगें, तो “पैसा देकर सजा से बचने” का खतरनाक उदाहरण स्थापित हो जाएगा।
🔎 न्यायिक सिद्धांतों का उल्लंघन
🔴 ‘समानता के साथ न्याय’ का हनन
- ऐसे निर्णय समाज के अन्य पीड़ितों और अपराधियों के साथ असमान व्यवहार को जन्म देते हैं।
- यह न्यायिक निष्पक्षता को नुकसान पहुंचाता है।
🔴 ‘Finality of Judgment’ का उल्लंघन
- जब एक अदालत दोषसिद्धि के साथ सजा घोषित कर देती है, तो वह अंतिम रूप से पारित आदेश होता है।
- इसे बाद में कम कर देना या बदल देना न्यायिक अनुशासन की कमी दर्शाता है।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट का आदेश : स्पष्ट और कड़ा संदेश
“एक बार जब अदालत ने दोषसिद्धि को मंजूरी दे दी और उचित सजा निर्धारित कर दी, तो वह अदालत सजा को मुआवजा में बदलकर घटा नहीं सकती। मुआवजा, सजा का विकल्प नहीं है। दोनों का उद्देश्य अलग है और इन्हें मिलाया नहीं जा सकता।”
📚 पूर्ववर्ती निर्णयों से समन्वय
✅ State of M.P. v. Mehtaab (2021)
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा: “दंड और मुआवजा दो अलग कानूनी अवधारणाएं हैं, जो एक-दूसरे का स्थान नहीं ले सकतीं।”
✅ Karan v. State of Haryana (2023)
- “सजा को मुआवजा देकर समाप्त करना न्याय का मजाक बनाना है।”
💬 व्यापक प्रभाव
- यदि यह प्रवृत्ति आगे बढ़े तो धनी अपराधी सजा से बच सकते हैं, जबकि गरीब अपराधियों को पूरा दंड भुगतना पड़ेगा — जो न्याय की असमानता है।
- पीड़ित को भले ही राहत मिले, पर समाज को यह संदेश जाएगा कि “अपराध की कीमत तय की जा सकती है”।
🧭 निष्कर्ष : दंड और मुआवजा – समानांतर लेकिन अलग रास्ते
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय दंड न्याय प्रणाली की गरिमा, स्थिरता और समानता की रक्षा करता है। अदालत ने स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया है कि “धन” के माध्यम से दंड से बचने का कोई मार्ग नहीं होना चाहिए।
इस निर्णय के माध्यम से यह पुनः स्थापित हुआ कि
“न्याय को खरीदा नहीं जा सकता — और सजा को मुआवजे में नहीं बदला जा सकता।”